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This Article is From Aug 16, 2012

असम में हिंसा : सरकारी उदासीनता ही जिम्मेदार!

असम में हिंसा : सरकारी उदासीनता ही जिम्मेदार!
असम से लौटकर हृदयेश जोशी की खास रिपोर्ट: गुवाहाटी से कोकराझार की ओर बढ़ते हुए कभी इस बात का एहसास नहीं होता कि आप एक ऐसे इलाके में घुस रहे हैं, जहां लाखों लोग बेघर हो चुके हों और कई लोगों की जान गई हो। सड़क के दोनों ओर हरियाली, पानी से भरी खेत, धान की रोपाई और ट्रैक्टर की बजाय परंपरागत तरीके से हल चलाते किसान दिखते हैं। बरसात के मौसम में पश्चिमी असम के इस इलाके में प्रवेश करते हुए कभी-कभी लगता है कि आप केरल के अंदरूनी हिस्से में हैं।

यह एक अजीब इत्तफाक है कि बागियों की हिंसा, आदिवासियों का आंदोलन और अलग-अलग समुदायों के नस्ली संघर्ष अक्सर उन इलाकों में सिर उठाते हैं, जिन्हें कुदरत ने बेपनाह खूबसूरती दी है। छत्तीसगढ़ के बस्तर या झारखंड और ओडिशा के दूसरे इलाकों की तरह असम का बोडोलैंड भी कुदरती खूबसूरती के बीच हो रहे खूनी संघर्ष की मिसाल है।

कोकराझार का कॉमर्स कॉलेज ज़्यादातर पत्रकारों की रिपोर्टिंग का पहला पड़ाव बना। महिलाओं और बच्चों समेत बोडो समुदाय के करीब डेढ़ हज़ार लोग दंगों की शुरुआत के साथ ही यहां भागकर आ गए। प्रधानमंत्री के दौरे से पहले इस कैंप में पहुंचकर हमने कई लोगों से बात की। तब यहां हालात अच्छे नहीं थे। लोगों ने हमसे खाने-पीने से लेकर, दवाइयों, कपड़ों और टॉयलेट्स की दिक्कतों का ज़िक्र किया।

प्रधानमंत्री के आने से पहले इस कैंप को चमका दिया गया। पीएम के दौरे से पहले आने वाली एडवांस पार्टी और आर्मी ने मिलकर मेडिकल कैंप से लेकर पानी के टैंकरऔर मेकशिफ्ट टॉयलेट सबका इंतजाम कर दिया। हालांकि इस कैंप से कुछ ही किलोमीटर दूर चाहे बोडो समुदाय का टीटागुड़ी कैंप हो या फिर ढुबरी और चिरांग ज़िले में मुस्लिम समुदाय के लिए बनाए गए छोटे-बड़े कैंप, सब जगह हालात बहुत खराब दिखे।

मालपाड़ा गांव में रहने वाली 25 साल की जयश्री मूसाहारी पीएम के सामने तो नहीं जा पाई, लेकिन कैमरे पर उसने असम की नस्ली संघर्ष की एक तस्वीर ज़रूर खींच दी। बोडोलैंड में पिछले कुछ सालों में कई बार हिंसा भड़की, लेकिन उसके गांव में कभी हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष नहीं हुआ। मगर बार-बार भड़की हिंसा ने असम में इस बार साम्प्रदायिक लकीरें भी गहरी कर दी हैं।

जयश्री मूसाहारी को आज अपने भविष्य का डर सता रहा है, तो मुस्लिम समुदाय की ज़िंदगी भी पूरी तरह तितर-बितर हो गई है। चिरांग, गोसाईगांव औऱ ढुबरी ज़िलों में कैंपों में पहुंचे मुस्लिम समुदाय के कई लोगों के लिए वापस अपने घरों में लौटना फिलहाल मुमकिन नहीं है। आर्थिक रूप से भी ये लोग बोडो समुदाय के मुकाबले काफी कमज़ोर हैं।

मुस्लिम कैंपों का दौरा करते हुए यह बात भी साफ हुई कि यह महज़ हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष नहीं, बल्कि बांग्लाभाषियों को बोडोलैंड से खदेड़ने का मुद्दा है। यह असम के इस इलाके की अनदेखी और सियासी फायदे के लिए उसके इस्तेमाल की कहानी भी है। पिछले कई सालों से सरहद पार से लोगों के आकर बसने, वोटबैंक की तरह उनके इस्तेमाल होने और फिर उनके खिलाफ बोडो समुदाय के भीतर बढ़ते गुस्से को अनदेखा करने का सच भी इसका हिस्सा है।

आज चार लाख से अधिक लोगों को कैंपों में धकेल चुकी इस कहानी के कई पहलू हैं। उग्रवादी संगठन बोडो लिबरेशन टाइगर्स यानी बीएलटी भले ही आज एक राजनीतिक दल बनाकर मुख्यधारा में शामिल हो गया हो, लेकिन उसके काडर ने हथियार नहीं डाले हैं। यह हथियारबंद काडर बांग्लाभाषियों के लिए एक खौफ पैदा करता है और कानून-व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है।

दूसरी ओर आज़ादी के बाद से अब तक ज़्यादातर समय असम पर राज करने वाली पार्टी कांग्रेस का रवैया बेहद गैर-ज़िम्मेदाराना रहा है। सीमापार से शरणार्थियों की आमद पर ढुलमुल रवैया ही था कि एक ओर आईएमडीटी जैसा कमज़ोर कानून बनाया गया, जो बाद में सुप्रीम कोर्ट को रद्द करना पड़ा। दूसरी ओर 'इंदिरा इज़ इंडिया' कहने वाले देवकांत बरूआ ने ही असम पर कांग्रेसी पकड़ के लिए 'अली-कुली-बंगाली' की ज़रूरत का नारा दिया, जिसका साफ मतलब था कि कांग्रेस बांग्लादेशी शरणार्थियों की समस्या को हल करने की बजाय उसे सियासी हथियार बनाएगी और बढ़ावा देगी।

असम में भड़की मौजूदा हिंसा की राज्य सरकार ने न केवल अनदेखी की, बल्कि उसे फैलने का पर्याप्त समय भी दिया। कैंपों में मौजूद मुस्लिम समुदाय के लोगों ने आरोप लगाया कि राज्य सरकार ने सोची-समझी रणनीति के तहत अल्पसंख्यकों के दिल में खौफ पैदा करने के लिए ऐसा किया।

मौजूदा जिस हालात को बांग्लाभाषी मुसलमानों को असम से खदेड़ने की कोशिश के रूप में भी इस्तेमाल हो रहा है, उसकी ज़द में मुस्लिम समुदाय के वे लोग भी आएंगे, जो कई सालों से असम में रहे रहे हैं। यह एक कड़वा सच है कि बाहरी आबादी के बढ़ने से बोडो समुदाय का गुस्सा बढ़ा है, लेकिन यह कहना भी ठीक समझ नहीं है कि संसाधनों पर दबाव बढ़ने की सारी ज़िम्मेदारी बांग्लाभाषी मुस्लिमों पर है।

यह एक सच है कि सीमापार से शरणार्थी जिस तरह से भारत में आए हैं, वह उनके आने से अधिक परोक्ष रूप से उन्हें यहां बसाने की कहानी है और अब संसाधनों के दबाव का हवाला देकर कत्लेआम की छूट तो कतई नहीं दी जानी चाहिए। यह भी हकीकत है कि रोज़गार के लिए जैसे बंगाली मुसलमान बांग्लादेश से असम में आए, वैसे ही बांग्लाभाषी हिन्दू भी उत्तरी बंगाल और कोलकाता के आसपास आकर बसे। यही नहीं, दुनिया के अलग अलग हिस्सों में भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका समेत कई एशियाई और अफ्रीकियों के अलावा तमाम देशों के लोग बसे और इनमें से कई गैर-कानूनी तरीकों से भी गए।  

असल में आज असम देश के उन राज्यों में है, जहां आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों की संख्या सबसे अधिक है। बोडोलैंड में बाहरी लोगों के आने से असंतोष है, तो मणिपुर, नागालैंड जैसे राज्यों में सरकार ने बंदूक के दम पर वहां के मूल निवासियों की आवाज़ को दबाया है। इन राज्यों से मूल निवासियों का पलायन देश के दूसरे हिस्सों में हुआ, यानी पूर्वोत्तर के अलग अलग हिस्सों में लोगों को 'बसाने और उजाड़ने' की राजनीति होती रही है।

शरणार्थी कैंपों में दौरा करते हुए एक बात बार-बार महसूस हुई। यह भावना पूर्वोत्तर के लोगों के दिल में घर कर गई है कि दिल्ली को नहीं लगता कि पश्चिम बंगाल के आगे भी हिन्दुस्तान बसता है। आज वहां जो कुछ हो रहा है, उसके पीछे लोगों का यह गुस्सा भी एक वजह है। यह बार-बार साबित हुआ कि सरकारें इन इलाकों में सिर्फ अपने फायदे के लिए पहुंचती हैं, लेकिन यह खिलवाड़ कितना खतरनाक साबित हो रहा है, इसे समझाने के लिए किसी दिव्य दृष्टि की ज़रूरत नहीं है।

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