
स्वतंत्रता सेना गौर हरिदास
मुंबई:
85 साल के गौर हरिदास स्वतंत्रता सेनानी हैं। 1945 में आजादी की लड़ाई में गौर हरिदास ने बापू के साथ आंदोलनों में हिस्सा लिया था। झंडा फहराने और वंदेमातरम् गाने के लिए गौर को 8 महीने की सजा भी हुई थी।
लेकिन 1976 में जब उनके बेटे को माटुंगा के वीजेटीआई में कम अंक की वजह से प्रवेश नहीं मिला। उन्हें पता चला कि स्वतंत्रता सेनानी कोटे से उसे प्रवेश मिल सकता है तो कॉलेज गए।

लेकिन वहां जाकर उन्हें पता चला कि उनके पास सरकार का ताम्र पत्र नहीं है इसलिए वो स्वतंत्रता सेनानी है ही नहीं।
हैरान गौर ने तब पहली बार 12 मार्च 1976 को बांद्रा में कलेक्टर के पास स्वतंत्रता सेनानी की पहचान पाने के लिए आवेदन किया। उस दिन से जो उनका संघर्ष शुरू हुआ तो वो 32 साल चला।
गौर हरिदास ने एनडीटीवी को बताया कि उस दिन के बाद से जो उनका सरकारी दफ्तरों का चक्कर शुरू हुआ आजादी की लड़ाई से भी कठिन था।
गौर हरिदास ने 32 साल में,
- 321 दरवाजे खटखटाये
- 66000 सीढियां चढ़ी
- 1043 पत्र लिखे
- और 2300 बार लोगों के सामने हाथ जोड़े।
तब जाकर साल 2008 में उन्हें स्वतंत्रता सेनानी की पहचान मिल पाई।
मशहूर अभिनेता और निर्माता-निर्देशक अनंत महादेवन ने पहचान पाने की उनकी 32 साल की संघर्ष गाथा पर फिल्म बनाई है। जो 14 अगस्त यानी शुक्रवार को रिलीज होनी है। महादेवन ने अपनी फिल्म का नाम ही "गौर हरिदास्तान - दी फ्रीडम फाईल्स" रखा है।
गौर हरि बूढ़े जरूर हो गए हैं। लेकिन हड्डियों और आवाज में आज भी दम है। पहचान पाने के संघर्ष के दौरान की खट्टी-मीठी बातें याद करते हुए उन्होंने बताया कि तब उन्हें बार-बार सरकारी दफ्तर के चक्कर लगाते देख एक शख्स मिला था।
उसने राज्य सरकार की बजाय केंद्र सरकार की पेंशन दिलाने का वादा कर पेंशन की रकम में से 25 फीसदी कमीशन मांगा। तब उन्होंने उसे ये कहकर मना कर दिया कि उन्हें केंद्र सरकार की बजाय राज्य सरकार से तामपत्र चाहिए और वो संघर्ष पहचान पाने के लिए कर रहे हैं। पेंशन के लिए नहीं।
गौर हरिदास के मुताबिक सबसे अधिक दुख उन्हें तब हुआ था। जब एक सरकारी अधिकारी ने उन्हें कहा कि आप ओडिसा से हैं और आजादी की लड़ाई भी ओडिसा में लड़े थे तो क्यों नहीं वहां आवेदन करते? हरिदास ने तब उसे जवाब दिया कि मैंने तो देश की आजादी के लिए लड़ाई लड़ी थी। ओडिसा या महाराष्ट्र के लिए नहीं।
लेकिन 1976 में जब उनके बेटे को माटुंगा के वीजेटीआई में कम अंक की वजह से प्रवेश नहीं मिला। उन्हें पता चला कि स्वतंत्रता सेनानी कोटे से उसे प्रवेश मिल सकता है तो कॉलेज गए।

लेकिन वहां जाकर उन्हें पता चला कि उनके पास सरकार का ताम्र पत्र नहीं है इसलिए वो स्वतंत्रता सेनानी है ही नहीं।
हैरान गौर ने तब पहली बार 12 मार्च 1976 को बांद्रा में कलेक्टर के पास स्वतंत्रता सेनानी की पहचान पाने के लिए आवेदन किया। उस दिन से जो उनका संघर्ष शुरू हुआ तो वो 32 साल चला।
गौर हरिदास ने एनडीटीवी को बताया कि उस दिन के बाद से जो उनका सरकारी दफ्तरों का चक्कर शुरू हुआ आजादी की लड़ाई से भी कठिन था।
गौर हरिदास ने 32 साल में,
- 321 दरवाजे खटखटाये
- 66000 सीढियां चढ़ी
- 1043 पत्र लिखे
- और 2300 बार लोगों के सामने हाथ जोड़े।
तब जाकर साल 2008 में उन्हें स्वतंत्रता सेनानी की पहचान मिल पाई।
मशहूर अभिनेता और निर्माता-निर्देशक अनंत महादेवन ने पहचान पाने की उनकी 32 साल की संघर्ष गाथा पर फिल्म बनाई है। जो 14 अगस्त यानी शुक्रवार को रिलीज होनी है। महादेवन ने अपनी फिल्म का नाम ही "गौर हरिदास्तान - दी फ्रीडम फाईल्स" रखा है।
गौर हरि बूढ़े जरूर हो गए हैं। लेकिन हड्डियों और आवाज में आज भी दम है। पहचान पाने के संघर्ष के दौरान की खट्टी-मीठी बातें याद करते हुए उन्होंने बताया कि तब उन्हें बार-बार सरकारी दफ्तर के चक्कर लगाते देख एक शख्स मिला था।
उसने राज्य सरकार की बजाय केंद्र सरकार की पेंशन दिलाने का वादा कर पेंशन की रकम में से 25 फीसदी कमीशन मांगा। तब उन्होंने उसे ये कहकर मना कर दिया कि उन्हें केंद्र सरकार की बजाय राज्य सरकार से तामपत्र चाहिए और वो संघर्ष पहचान पाने के लिए कर रहे हैं। पेंशन के लिए नहीं।
गौर हरिदास के मुताबिक सबसे अधिक दुख उन्हें तब हुआ था। जब एक सरकारी अधिकारी ने उन्हें कहा कि आप ओडिसा से हैं और आजादी की लड़ाई भी ओडिसा में लड़े थे तो क्यों नहीं वहां आवेदन करते? हरिदास ने तब उसे जवाब दिया कि मैंने तो देश की आजादी के लिए लड़ाई लड़ी थी। ओडिसा या महाराष्ट्र के लिए नहीं।
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