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This Article is From Jul 31, 2016

मोहम्मद रफी : सुरों का सरताज, जिसे 'तुम यूं भुला न पाओगे...'

मोहम्मद रफी : सुरों का सरताज, जिसे 'तुम यूं भुला न पाओगे...'
मोहम्मद रफी की फाइल फोटो
नई दिल्ली: 'तुम मुझे यूं भुला न पाओगे...' यह गीत सुनते ही आज भी मोहम्मद रफी का चेहरा आंखों के आगे आ जाता है. या दूसरे छोर से देखें, तो मोहम्मद रफी का नाम याद आते ही यही गीत सबसे पहले अंतर में बजने लगता है. आज 31 जुलाई को बॉलीवुड के सबसे मशहूर रहे पार्श्वगायक मोहम्मद रफी साहब को गुज़रे हुए 36 वर्ष बीत गए हैं, लेकिन चाहे रोमांटिक गाने हों, दर्दभरे नग़मे, शादी-ब्याह का माहौल, देशभक्ति गीत या भजन उनके गाए गीतों का जादू आज भी बरकरार है.

पंजाब के कोटला सुल्तान सिंह गांव में 24 दिसंबर, 1924 को एक मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार में जन्मे रफी साहब बचपन में एक फकीर के गाए गीतों को बहुत ध्यान से सुना करते थे और उन्हीं से प्रेरणा लेकर आखिरकार वह सुरों और आवाज़ की दुनिया के बेताज बादशाह बने. बचपन में उन्हें अपने परिवार से भी शौक को पूरा करने में सहयोग और मदद मिली और उन्होंने लाहौर में उस्ताद अब्दुल वाहिद खान से संगीत की शिक्षा लेनी शुरू कर दी. इसके अलावा रफी साहब ने गुलाम अली खान से भारतीय शास्त्रीय संगीत भी सीखा.

अपने समय के सबसे मशहूर अभिनेताओं को आवाज़ देने वाले रफी साहब संभवतः हिन्दुस्तान के एकमात्र गायक हैं, जिन्होंने किसी अन्य पार्श्वगायक के लिए भी गीत गाए. फिल्म 'रागिनी' में 'मन मोरा बावरा...' और 'शरारत' में 'अजब है दास्तां तेरी यह ज़िंदगी...' किशोर के ऐसे गीत हैं, जिन्हें मोहम्मद रफी ने किशोर कुमार के लिए गाया.

वैसे मोहम्मद रफी ने अपना पहला फिल्मी गीत वर्ष 1944 में बनी पंजाबी फिल्म 'गुल बलोच' के लिए गाया था, जिसके संगीत निर्देशक श्याम सुंदर थे, लेकिन पहला हिन्दी फिल्मी गीत गाने का अवसर उन्हें नौशाद ने फिल्म 'पहले आप' में दिया. वर्ष 1946 में मुंबई आकर बस गए रफी साहब ने वर्ष 1949 में नौशाद के ही संगीत निर्देशन में 'दुलारी' फिल्म के गीतों से सफलता की ऊंचाइयों को छुआ और उसके बाद का लंबा अरसा हिन्दी फिल्म जगत में 'रफी का युग' कहा जाता है.

वैसे बताया जाता है कि रफी ने अपना पहला सार्वजनिक प्रदर्शन 13 साल की उम्र में तब किया था, जब वह अपने बड़े भाई के साथ एक कार्यक्रम में गए थे और बिजली चले जाने के कारण केएल सहगल साहब ने गाने से इनकार कर दिया. कहते हैं, इसी कार्यक्रम में श्यामसुंदर मौजूद थे और उन्होंने ही रफी को मुंबई आने का बुलावा भेजा था.

लगभग 700 फिल्मों के लिए 26,000 से भी ज़्यादा गीत गाने वाले रफी साहब ने विभिन्न भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेज़ी और अन्य यूरोपीय भाषाओं में भी गीत गाए. उन्हें छह बार फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया और वर्ष 1965 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से नवाज़ा.

अपने सक्रिय काल के दौरान बॉलीवुड के लगभग हर बड़े अभिनेता को अपनी आवाज़ से अमर कर देने वाले रफी का 31 जुलाई, 1980 को निधन हो जाने के बाद भारी बारिश के बीच भी मुंबई की सड़कों पर हज़ारों की भीड़ इकट्ठी हो गई थी, क्योंकि उनके बीच से गुज़र रहा था, उस आवाज़ का जनाज़ा, जिसने सालों तक उनके दिलोदिमाग पर छाए रहकर उन्हें सुकून बख्शा था.

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