मुंबई:
मद्रास कैफे कहानी है विक्रम यानी कि जॉन अब्राहम की... जिन्हें कोवर्ट ऑपरेशन के तहत श्रीलंका भेजा जाता हैं जहां ग्रहयुद्ध छिड़ा हुआ होता है। इस फिल्म में 1980 से 90 की शुरुआत का वह वक्त दर्शाया गया है जब लंका के और तमिलों के बीच लड़ाई जारी थी और जातीय संघर्ष के बीच हज़ारों लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा था।
हिंदुस्तान के एक पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश भी रची गई थी। सबसे पहले तो मैं दाद देना चाहूंगा इस फिल्म के को-प्रोडयूसर जॉन अब्राहम की जिन्होंने यह फिल्म बनाने में निडरता दिखाई... बिना यह सोचे की फिल्म विवादों में घिर सकती है या इस तरह की संजीदा फिल्म का बॉक्स आफिस अंजाम क्या होगा...।
मद्रास कैफे हिंदी फिल्मों के आजकल के चलन से आपको दूसरी दिशा में ले जाती है जहां आपके दिल और दिमाग को एक ताज़ा हवा का झोंका सा महसूस होता है। फिल्म में पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या की कड़ियों को सिलसिलेवार जोड़ा गया है बिना किसी ड्रामे और लाग लपेट के। सबसे अच्छी बात यह है कि फिल्म की टीम ने एक तेज़ धार पर चलते हुए भी फिल्म को किसी तरफ गिरने नहीं दिया। फिल्म का झुकाव किसी भी एक पक्ष की तरफ नहीं लगेगा।
फिल्म का डॉक्यूमेंट्री स्टाइल उन लोगों को अखर सकता है जो इससे मनोरंजन की आशा लिए देखने जाएंगे। मगर मेरे लिए यह काम करता है क्योंकि अगर निर्देशक ने इसमें ज़रा सा भी मसाला डालने की कोशिश की होती तो हम लोग ही उनकी आलोचना कर रहे होते। उन्होंने फिल्म को ईमानदारी से बनाया है। कहानी और स्क्रीनप्ले को ईमानदारी से लिखा गया है। निर्माता और निर्देशक की फिल्म के प्रति नीयत साफ दिखती है। सबसे अच्छी बात है की फिल्म के सारे एक्टर्स रिअल लगते हैं। यह अच्छी बात है की निर्देशक ने उन चेहरों का इस्तेमाल किया है जिन्हें हम अक्सर बड़े पर्दे पर नहीं देखते हैं।
दूसरी अच्छी बात है कि शूजीत फिल्मों में गानों के रिवाज़ से भी दूर रहे हैं। जॉन और नर्गिस की एक्टिंग भी अच्छी है। बैकग्राउंड स्कोर भी कहानी पर हावी नहीं होता। बस मुझे एक चीज़ खटकी और वह यह कि कहानी के पहले भाग में अगर एडिटिंग थोड़ी तेज़ न होती तो बेहतर था क्योंकि यह फिल्म एक फास्ट पेस एंटरटेनर नहीं है जिस वजह से कई बार दर्शक को एक इमोशन तक पहुंचने से पहले ही झटका लग सकता है... पर शायद निर्देशक ने विषय को देखते हुए ऐसा किया हो।
कुल मिलाकर मद्रास कैफे एक बेहतरीन फिल्म है और मेरी तरफ से फिल्म को 3.5 स्टार्स...।
हिंदुस्तान के एक पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश भी रची गई थी। सबसे पहले तो मैं दाद देना चाहूंगा इस फिल्म के को-प्रोडयूसर जॉन अब्राहम की जिन्होंने यह फिल्म बनाने में निडरता दिखाई... बिना यह सोचे की फिल्म विवादों में घिर सकती है या इस तरह की संजीदा फिल्म का बॉक्स आफिस अंजाम क्या होगा...।
मद्रास कैफे हिंदी फिल्मों के आजकल के चलन से आपको दूसरी दिशा में ले जाती है जहां आपके दिल और दिमाग को एक ताज़ा हवा का झोंका सा महसूस होता है। फिल्म में पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या की कड़ियों को सिलसिलेवार जोड़ा गया है बिना किसी ड्रामे और लाग लपेट के। सबसे अच्छी बात यह है कि फिल्म की टीम ने एक तेज़ धार पर चलते हुए भी फिल्म को किसी तरफ गिरने नहीं दिया। फिल्म का झुकाव किसी भी एक पक्ष की तरफ नहीं लगेगा।
फिल्म का डॉक्यूमेंट्री स्टाइल उन लोगों को अखर सकता है जो इससे मनोरंजन की आशा लिए देखने जाएंगे। मगर मेरे लिए यह काम करता है क्योंकि अगर निर्देशक ने इसमें ज़रा सा भी मसाला डालने की कोशिश की होती तो हम लोग ही उनकी आलोचना कर रहे होते। उन्होंने फिल्म को ईमानदारी से बनाया है। कहानी और स्क्रीनप्ले को ईमानदारी से लिखा गया है। निर्माता और निर्देशक की फिल्म के प्रति नीयत साफ दिखती है। सबसे अच्छी बात है की फिल्म के सारे एक्टर्स रिअल लगते हैं। यह अच्छी बात है की निर्देशक ने उन चेहरों का इस्तेमाल किया है जिन्हें हम अक्सर बड़े पर्दे पर नहीं देखते हैं।
दूसरी अच्छी बात है कि शूजीत फिल्मों में गानों के रिवाज़ से भी दूर रहे हैं। जॉन और नर्गिस की एक्टिंग भी अच्छी है। बैकग्राउंड स्कोर भी कहानी पर हावी नहीं होता। बस मुझे एक चीज़ खटकी और वह यह कि कहानी के पहले भाग में अगर एडिटिंग थोड़ी तेज़ न होती तो बेहतर था क्योंकि यह फिल्म एक फास्ट पेस एंटरटेनर नहीं है जिस वजह से कई बार दर्शक को एक इमोशन तक पहुंचने से पहले ही झटका लग सकता है... पर शायद निर्देशक ने विषय को देखते हुए ऐसा किया हो।
कुल मिलाकर मद्रास कैफे एक बेहतरीन फिल्म है और मेरी तरफ से फिल्म को 3.5 स्टार्स...।
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