नई दिल्ली:
असम के गुवाहाटी से लगभग 8 किलोमीटर दूर स्थित है देवी सती का कामाख्या मंदिर. इस मंदिर को लेकर कई कथाएं प्रचलित हैं. लेकिन 51 शक्तिपीठों में से सबसे महत्वपूर्ण माने जाने वाला यह मंदिर रजस्वला माता की वजह से ज़्यादा ध्यान आकर्षित करता है. यहां चट्टान के रूप में बनी योनि से रक्त निकलता है.
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प्रचलित कथा के अनुसार देवी सति ने भगवान शिव से शादी की. इस शादी से सति के पिता राजा दक्ष खुश नहीं थे. एक बार राजा दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन किया लेकिन इसमें सति के पति भगवान शिव को नहीं बुलाया. सति इस बात से नाराज़ हुईं और बिना बुलाए अपने पिता के घर पहुंच गई. इस बात पर राजा दक्ष ने उनका और उनके पति का बहुत अपमान किया. अपने पति का अपमान उनसे सहा नहीं गया और हवन कुंड में कूद गई.
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इस बात का पता चलते ही भगवान शिव भी यज्ञ में पहुंचे और सति का शव लेकर वहां से चले गए. वह सति का शव लेकर तांडव करने लगे, उन्हें रोकने के लिए भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र फेंका. इस चक्र से सति का शव 51 हिस्सों में जाकर कटकर जगह-जगह गिरा. इसमें सति की योनि और गर्भ इसी कामाख्या मंदिर के स्थान यानी निलाचंल पर्वत पर गिरा. इस स्थान पर 17वीं सदी में बिहार के राजा नारा नारायणा ने मंदिर बनाया.
इस मंदिर में हर साल अंबुवाची मेले का आयोजन किया जाता है. इस मेले में देशभर के तांत्रिक हिस्सा लेने आते हैं. ऐसी मान्यता है कि इन तीन दिनों में माता सति रजस्वला होती हैं और जल कुंड में पानी की जगह रक्त बहता है. इन तीन दिनों के लिए मंदिर के दरवाजे बंद रहते हैं. तीन दिनों के बाद बड़ी धूमधाम से इन्हें खोला जाता है. हर साल मेले के दौरान मौजूद ब्रह्मपुत्र नदी का पानी लाल हो जाता है. ऐसा माना जाता है कि ये पानी माता के रजस्वला होने का कारण होता है.
इतना ही नहीं यहां दिया जाने वाले वाला प्रसाद भी रक्त में डूबा कपड़ा होता है. ऐसा कहा जाता है कि तीन दिन जब मंदिर के दरवाजे बंद किए जाते हैं तब मंदिर में एक सफेद रंग का कपड़ा बिछाया जाता है जो मंदिर के पट खोलने तक लाल हो जाता है. इसी लाल कपड़े को इस मेले में आए भक्तों को दिया जाता है. इस प्रसाद को अंबुवाची प्रसाद भी कहा जाता है. इस मंदिर में कोई भी मूर्ति नहीं है. यहां सिर्फ योनि रूप में बनी एक समतल चट्टान को पूजा जाता हैं. मूर्तियां साथ में बने एक मंदिर में स्थापित की गई हैं. इस मंदिर में पशुओं की बली भी दी जाती है. लेकिन यहां किसी भी मादा जानवर की बलि नहीं दी जाती है.
आपको बता दें इन पौराणिक कथाओं में विश्वास ना रखने वाले लोगों का मानना है कि इस मंदिर के पास मौजूद नदी का पानी मंदिर में मेले में चढ़ाए गए सिंदूर के कारण होता है. या फिर यह रक्त पशुओं का रक्त होता है, जिनकी यहां बलि दी जाती है.
खैर, सच्चाई जो भी हो! इस मंदिर के आर्षकण का केंद्र रजस्वला रक्त की पूजा है, जिसे देखने यहां हर साल बहुत लोग जाते हैं.
देखें वीडियो - कामाख्या मंदिर को स्वच्छ बनाने का एनडीटीवी का एक्शन प्लान तैयार
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प्रचलित कथा के अनुसार देवी सति ने भगवान शिव से शादी की. इस शादी से सति के पिता राजा दक्ष खुश नहीं थे. एक बार राजा दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन किया लेकिन इसमें सति के पति भगवान शिव को नहीं बुलाया. सति इस बात से नाराज़ हुईं और बिना बुलाए अपने पिता के घर पहुंच गई. इस बात पर राजा दक्ष ने उनका और उनके पति का बहुत अपमान किया. अपने पति का अपमान उनसे सहा नहीं गया और हवन कुंड में कूद गई.
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इस बात का पता चलते ही भगवान शिव भी यज्ञ में पहुंचे और सति का शव लेकर वहां से चले गए. वह सति का शव लेकर तांडव करने लगे, उन्हें रोकने के लिए भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र फेंका. इस चक्र से सति का शव 51 हिस्सों में जाकर कटकर जगह-जगह गिरा. इसमें सति की योनि और गर्भ इसी कामाख्या मंदिर के स्थान यानी निलाचंल पर्वत पर गिरा. इस स्थान पर 17वीं सदी में बिहार के राजा नारा नारायणा ने मंदिर बनाया.
इस मंदिर में हर साल अंबुवाची मेले का आयोजन किया जाता है. इस मेले में देशभर के तांत्रिक हिस्सा लेने आते हैं. ऐसी मान्यता है कि इन तीन दिनों में माता सति रजस्वला होती हैं और जल कुंड में पानी की जगह रक्त बहता है. इन तीन दिनों के लिए मंदिर के दरवाजे बंद रहते हैं. तीन दिनों के बाद बड़ी धूमधाम से इन्हें खोला जाता है. हर साल मेले के दौरान मौजूद ब्रह्मपुत्र नदी का पानी लाल हो जाता है. ऐसा माना जाता है कि ये पानी माता के रजस्वला होने का कारण होता है.
इतना ही नहीं यहां दिया जाने वाले वाला प्रसाद भी रक्त में डूबा कपड़ा होता है. ऐसा कहा जाता है कि तीन दिन जब मंदिर के दरवाजे बंद किए जाते हैं तब मंदिर में एक सफेद रंग का कपड़ा बिछाया जाता है जो मंदिर के पट खोलने तक लाल हो जाता है. इसी लाल कपड़े को इस मेले में आए भक्तों को दिया जाता है. इस प्रसाद को अंबुवाची प्रसाद भी कहा जाता है. इस मंदिर में कोई भी मूर्ति नहीं है. यहां सिर्फ योनि रूप में बनी एक समतल चट्टान को पूजा जाता हैं. मूर्तियां साथ में बने एक मंदिर में स्थापित की गई हैं. इस मंदिर में पशुओं की बली भी दी जाती है. लेकिन यहां किसी भी मादा जानवर की बलि नहीं दी जाती है.
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खैर, सच्चाई जो भी हो! इस मंदिर के आर्षकण का केंद्र रजस्वला रक्त की पूजा है, जिसे देखने यहां हर साल बहुत लोग जाते हैं.
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