राजस्थान के शहर डूंगरपुर से 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है बेणेश्वर. यहां के सोम व माही नदियों के संगम पर बने स्थित शिव मंदिर के परिसर में हर साल माघ शुक्ल पूर्णिमा के अवसर पर लगने वाला मेला आदिवासियों का महाकुंभ कहा जाता है. यहां स्थित भगवान शिव मंदिर के निकट भगवान विष्णु का भी मंदिर है, जिसके बारे में मान्यता है कि जब भगवान विष्णु के अवतार माव जी ने यहां तपस्या की थी, यह मंदिर उसी समय बना था.
इस मेले में इस क्षेत्र के सभी आदिवासी समुदाय के साथ-साथ मध्य प्रदेश और गुजरात से हजारों आदिवासी सोम और माही नदियों के पवित्र संगम पर डुबकी लगाने के पश्चात भगवान शिव के बेणेश्वर मंदिर तथा आसपास के मंदिरों में पूजा-अर्चना करते हैं. इस मेले जादुई तमाशे और करतबों का प्रदर्शन और शाम में लोक कलाकारों द्वारा प्रस्तुत संगीत-नृत्य के कार्यक्रम पर्यटकों को आकर्षित करते हैं. आदिवासी समूहों में अपनी पारंपरिक पोशाकों को पहने नाचते-गाते इस पर्व पर स्नान करने आते हैं.
जानिए क्या है मान्यताएं और परम्पराएं
इस मेले में इस क्षेत्र के सभी आदिवासी समुदाय के साथ-साथ मध्य प्रदेश और गुजरात से हजारों आदिवासी सोम और माही नदियों के पवित्र संगम पर डुबकी लगाने के पश्चात भगवान शिव के बेणेश्वर मंदिर तथा आसपास के मंदिरों में पूजा-अर्चना करते हैं. इस मेले जादुई तमाशे और करतबों का प्रदर्शन और शाम में लोक कलाकारों द्वारा प्रस्तुत संगीत-नृत्य के कार्यक्रम पर्यटकों को आकर्षित करते हैं. आदिवासी समूहों में अपनी पारंपरिक पोशाकों को पहने नाचते-गाते इस पर्व पर स्नान करने आते हैं.
जानिए क्या है मान्यताएं और परम्पराएं
- लोगों का मानना है कि बेणेश्वर त्रिवेणी संगम से जुड़ी नदी सोम यदि पहले पूर्ण प्रवाह के साथ बहे तो उस वर्ष चावल की फसल अच्छी होती है. वहीं माही में जल प्रवाह पहले होने पर समय ठीक नहीं माना जाता है.
- बेणेश्वर महामेले के सभी दिनों में भगवान को अलग-अलग भोग लगता है. माघ शुक्ल पूर्णिमा को शीरा, माघ कृष्ण प्रतिपदा को दाल-बाटी, द्वितीया को दाल-बाटी, तृतीया को पूड़ी-शीरा, चतुर्थी को दाल-रोटी, पंचमी को मोदक, दाल-बाटी आदि.
- यहां के राधा-कृष्ण मन्दिर पर सोने-चान्दी के वागे व 24 अवतारों के चित्रांकन युक्त चान्दी के किवाड़ मेले से ठीक एक दिन पहले चतुर्दशी को वहां पहुंचते हैं व इनका उपयोग होता है.
- मान्यता और परंपरा के अनुसार मुख्य मेला पूर्णिमा से पंचमी तक साबला का पुजारी वहां पूजा करता है जबकि राधा-कृष्ण मन्दिर में आम दिनों में आदिवासी पुजारी ही होते हैं.
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