सफेद मगर मटमैली हो चुकी इस मूर्ति को देख कर लगा कि अंबेडकर की है। हैरान मन तेज़ निगाह से देख रहा था कि आख़िर कौन हो सकता है जो बनारस के अस्सी घाट जाने के रास्ते पैड और बैट के साथ खड़ा है। कार रोक दी मैंने। तस्वीर लेने के लिए पीछे आ रही गाड़ियों की पीं पां झेलते हुए सड़क पार कर गया। ये तो विज्जी है। ऐसा नहीं कि मैं उन्हें पहचानता था पर मूर्ति के नीचे लिखा पढ़कर मैं एक ऐसे बनारस में चला गया, जिसकी बात ही कोई नहीं करता।
मैंने अपनी ज़िंदगी में चंद राज्यों के ही शहर देखिए हैं। कहीं किसी शहर में क्रिकेटर की मूर्ति नहीं देखी। बनारस में देखी। विज्जी और बनारस। हमने कभी विज्जी के बहाने बनारस के बारे में सोचा ही नहीं था। विजयनगरम के महाराज की मूर्ति। मूर्ति के नीचे लिखा पढ़ने लगा। काशी के मैदान में विज्जी की टीम ने एम सी सी इंग्लैंड की टीम को हराया था। बस इस एक सूचना ने बनारस के बारे में बार बार बनाई एकरसीय छवि को पलट दिया। मैं उस दौर में चला गया जब विज्जी की यह जीत पर बनारस को बताये बिना गुज़र गई होगी। तब क्रिकेट इतना लोकप्रिय था कहां। फिर भी कल्पना करने के पैसे नहीं लगते। इस शहर के वजूद में सिर्फ बाबा फ़क़ीर और कबीर नहीं हैं विज्जी भी हैं। बनारस ने कभी विज्जी का इतिहास नहीं गाया।
विज्जी न्याय मंत्री रहे हैं। विधानसभा के सदस्य रहे हैं। क्रिकेट बोर्ड के उपाध्यक्ष से लेकर अध्यक्ष तक रहे हैं। उन लोगों का शुक्रिया जिन्होंने अस्सी घाट जाने के रास्ते पर विज्जी की मूर्ति लगाई। मुझे नहीं मालूम कि किन लोगों ने यह मूर्ति लगाई और लगाने का इतिहास क्या है मगर बनारस के इतिहास के इस सफ़ेद पन्ने को देख मियाज़ हरिहर हो गया। विज्जी के बारे में ज़्यादा नहीं जानता लेकिन विज्जी ने मेरे लिए बनारस को नया कर दिया। जो लोग बनारस को जानने का दावा करते हैं दरअसल वो बनारस के बारे में उतना ही जानते हैं। बनारस आएं तो ऐसे टूरिस्ट गाइड टाइप बनारसियों से बचने से बचें जो बनारस के बारे में सब जानते हैं। बनारस को खुद की नज़र से देखिये विज्जी मिलेंगे।
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