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This Article is From Nov 28, 2014

मणि-वार्ता : कश्मीर में बीजेपी के उभरने के खतरे

मणि-वार्ता : कश्मीर में बीजेपी के उभरने के खतरे

मणिशंकर अय्यर कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं...

चुनाव के शुरुआती चरण से संकेत मिलता है कि जम्मू एवं कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस का समर्थन काफी कम हुआ है। ये संकेत भी मिले हैं कि घाटी में पीडीपी को शानदार जीत मिलेगी, जबकि जम्मू और संभवतः लद्दाख में भारतीय जनता पार्टी विजेता बनकर उभरेगी।

चुनाव के दौरान किए गए इस तरह के आकलन कतई विश्वसनीय नहीं होते, और जैसे-जैसे चुनावी अभियान आगे बढ़ता रहेगा, तस्वीर और साफ होती रहेगी। लेकिन फिलहाल, ऐसा जाहिर हो रहा है कि चेनाब नदी राज्य में विभाजित जनादेश की रेखा बन चुकी है, जो हिन्दू-बहुल जम्मू और मुस्लिम-बहुल कश्मीर को अलग करती है, और लद्दाख एक किनारे में असहाय-सा खड़ा दिखाई देता है, जबकि अतीत में ऐसा लगता था, जैसे नेशनल कांफ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन की मौजूदगी पूरे राज्य में है।

नेशनल कांफ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन तो हार को भी उसी तरह स्वीकार कर लेंगी, जिस तरह वे अब तक जीत को करती आई हैं, क्योंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसे उतार-चढ़ाव आते ही हैं, लेकिन सभी भारतीयों, जिनमें इस राज्य के मतदाता भी शामिल हैं, को धर्म के आधार पर राज्य को राजनैतिक रूप से विभाजित कर देने के खतरों को गंभीरता से समझना चाहिए। महबूबा मुफ्ती ने साफ कर दिया है कि उनका राज्य में भारतीय जनता पार्टी की गाड़ी पर सवार होने का कोई इरादा नहीं है। उन्होंने 23 नवंबर को 'द हिन्दू' अख़बार को दिए इंटरव्यू ने कहा, "बीजेपी एक ख़ास तरह के लोगों को यह कहने की कोशिश कर रही है कि वह कश्मीर को अलग ढंग से लेगी और कश्मीरियों को सबक सिखाएगी..." उन्होंने यह भी कहा कि भारतीय जनता पार्टी का इरादा 'कश्मीरियों के अधिकार छीन लेने' का है, क्योंकि जब वे अनुच्छेद 370 की बात करते हैं, तो उसका अर्थ राज्य के अधिकार छीनना ही है..." महबूबा मुफ्ती ने उस 'संप्रदायीकरण' की तरफ भी ध्यान आकर्षित किया, जिसे 'वे (बीजेपी) प्रोत्साहित कर रहे हैं...' महबूबा मुफ्ती ने इसे 'बहुत, बहुत खतरनाक खेल' बताया और कहा, यहां कोशिश हो रही है, "पहले जम्मू को कश्मीर के खिलाफ खड़ा किया जाए और फिर कश्मीर को पूरे भारत के खिलाफ..." मुफ्ती ने मोदी की उस भाषा (लूट) की भी निंदा की, जिसका इस्तेमाल मोदी ने किश्तवार में अपने कश्मीरr चुनावी अभियान की शुरुआत करते हुए किया था।

महबूबा मुफ्ती से असहमत होना मुश्किल है। पाकिस्तानी वार्ताकार, खासकर नियाज नाइक, जो दिल्ली में पाकिस्तान के उच्चायुक्त रह चुके हैं, लंबे समय से इस बात की वकालत कर रहे हैं कि अगर पूरा जम्मू एवं कश्मीर पाक-अधिकृत कश्मीर का हिस्सा नहीं बन सकता है, तो कम से कम घाटी का विलय पाकिस्तान में कर देना चाहिए और जम्मू एवं लद्दाख को भारत के हिस्से में रहने देना चाहिए। इसकी इकलौती वजह यह है कि घाटी में मुस्लिम लोगों की बहुलता है, जबकि भारत के नियंत्रण तथा संप्रभुता वाले राज्य के दूसरे हिस्सों में ऐसा नहीं है। हम लगातार इस तरह के शरारती सुझावों का विरोध करते रहे हैं, राज्य की अखंडता का बचाव करते रहे हैं, और संपूर्ण जम्मू-कश्मीर (पाक-अधिकृत कश्मीर सहित) की भारतीय संघ से अखंडता का भी।

लेकिन अगर इस विधानसभा चुनाव के नतीजे राज्य को धर्म के आधार पर राजनैतिक रूप से विभाजित कर देते हैं, तो घाटी में मौजूद पाक-समर्थक तत्वों और पाकिस्तान की भी, घाटी को पाकिस्तान से मिलाने की मांग करने की हिम्मत बढ़ेगी। महबूबा मुफ्ती यह भी कहती हैं, "हम ऐसा नहीं होने देंगे..." और हम बस उम्मीद कर सकते हैं, कि वह सही हों।

बहरहाल, पानी का गदला होना तय लग रहा है, और उसकी वजह अनुच्छेद 370 को लेकर भारतीय जनता पार्टी का रुख है। प्रधानमंत्री कार्यालय के ही राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह, जो जम्मू से ही सांसद हैं, ने शपथ लेने के कुछ ही घंटे के भीतर अनुच्छेद 370 को खत्म करने की बात कहकर जोरदार विवाद खड़ा कर दिया था, हालंकि बाद में भारतीय जनता पार्टी की ओर से नरमी दिखाते हुए कहा गया कि वे संविधान के इस अनुच्छेद को जारी रखने या न रखने के मुद्दे पर आम बहस से ज्यादा कुछ नहीं चाहते... लेकिन इस अनुच्छेद पर बहस की बात से भी घाटी के अंदर हालात असहज हो सकते हैं।

निश्चित तौर पर, संविधान में यह अनुच्छेद अस्थायी और तात्कालिक हिस्से में जुड़ा हुआ है, लेकिन इसे जारी रखने की मूल वजह यह है कि इस अनुच्छेद को लागू करने के लिए जो कारण - राज्य के एक हिस्से पर पाकिस्तान का जबरन और गैरकानूनी कब्ज़ा - संविधान सभा में तत्कालीन कानून मंत्री गोपालस्वामी आयंगार ने बताया था, वह आज भी प्रासंगिक है। अनुच्छेद 370 को पाकिस्तान की ओर से गैरकानूनी कब्ज़ा खत्म के बाद ही हटाया जा सकता है, उससे पहले नहीं। यदि वर्ष 1972 में हुए शिमला समझौते में की गई परिकल्पना के अनुसार जम्मू-कश्मीर से जुड़े मुद्दों का 'अंतिम निपटारा' किया जाता है, तो अनुच्छेद 370 पर पुनर्विचार की गुंजाइश हो सकती है, लेकिन उससे पहले, यह मोदी की तरफ से गैरज़िम्मेदारी की इंतिहा है कि एक तरफ तो वह कश्मीर के लोगों से सुलह की बात करते हैं, और दूसरी तरफ 370 पर सार्वजनिक बहस छिड़वाकर तनाव पैदा कर देते हैं, और वह भी चुनाव के तनाव-भरे माहौल में।

वैसे, देश के संविधान के अनुच्छेद 370 को जम्मू-कश्मीर के संविधान के पहले अनुच्छेद से अलग करके देखना ऐतिहासिक अज्ञानता है (जिसका उदाहरण मोदी अक्सर देते रहे हैं)। जम्मू-कश्मीर के संविधान का पहला अनुच्छेद साफ बताता है कि जम्मू एवं कश्मीर भारतीय संघ का अभिन्न अंग है। अगर बिना सोचे-विचारे अनुच्छेद 370 पर संदेह जताया गया तो घाटी के अंदर के लोग भी एकता पर सवाल उठाएंगे। इसमें वे कश्मीरी भी शामिल होंगे, जो यह मानते हैं कि अनुच्छेद 370 ही वो शर्त थी, जिसके चलते जम्मू एवं कश्मीर के संविधान का पहला अनुच्छेद बना था। अंत में, पीवी नरसिम्हा राव के उस वादे का क्या हुआ, जिसमें उन्होंने कश्मीर के लिए असीमित स्वायत्तता की बात की थी, जिसने कश्मीर में आतंकवाद की कमर तोड़ दी थी, सो, अगर अब अनुच्छेद 370 पर सवाल उठे तो क्या होगा...?

वास्तविकता यह है कि भारतीय जनता पार्टी अपनी ही आग से खेल रही है। श्यामाप्रसाद मुखर्जी के 1953 के घाटी के दौरे, जहां वह बीमार पड़े और उनकी मृत्यु हो गई थी, से पहले ही जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अनुच्छेद 370 की वैधता पर सवाल उठाए थे। अब केंद्र में उनकी सरकार है, और अनुच्छेद 370 को लेकर उनका अतीत वाला स्टैंड अब उनके गले आ पड़ा है। अब न वे अपने अतीत से पीछा छुड़ा सकते हैं, और न उस पर बने रह सकते हैं, जब दूर से ही सही, राज्य में सत्ता तक पहुंचना संभव दिख रहा हो।

जिस क्षण वे अपने अतीत के स्टैंड को हल्का-सा बदलेंगे, घाटी की सभी सीटें तो हारेंगे ही, चेनाब से सटे जम्मू की मुस्लिम-बहुल सीटों भी हार सकते हैं। सो, मौजूदा संदर्भ में भले ही मोदी का बातें घुमाने का अंदाज सुखद है, लेकिन इस मामले में यह सहज नहीं है, क्योंकि हम भाषण-कला की बात नहीं कर रहे हैं, हम भारतीय संघ की एकता और अखंडता की बात कर रहे हैं। अनुच्छेद 370 को लेकर लंबे समय से चली आ रही भगवा स्थिति में बदलाव से ही घाटी के अंदर लोगों की सोच बदलेगी और तभी जाकर राज्य में सत्ता में आने का भारतीय जनता पार्टी का सपना सच हो पाएगा, लेकिन नागपुर का संघ मुख्यालय मोदी को ऐसा करने की इजाजत नहीं देगा।

निश्चित रूप से, यह फैसला कश्मीर की जनता को लेना है कि वे किसे वोट देते हैं, लेकिन उन्हें इस बार अपने मत का इस्तेमाल सबसे ज्यादा सावधानी से करना होगा, क्योंकि अगर नतीजे से चेनाब के इधर-उधर राजनीतिक-धार्मिक विभाजन हुआ तो इससे केवल उसी हुर्रियत को संतुष्टि मिलेगी, जिसके नेताओं को मोदी ने पाकिस्तान के उच्चायुक्त से मिलने से रोक दिया था।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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