
अगले 24 घंटों में झारखंड में किसकी सरकार बनेगी यह सबको मालूम चल जाएगा और कौन मुख्यमंत्री होगा वह भी मंगलवार की शाम तक पता चल जाएगा। लेकिन, सरकार किसी भी दल की बने, नेता जिसके सिर भी सीएम का ताज पहनाया जाए वह इस बात से संतुष्ट होगा कि उसे किसी शहीद पुलिसकर्मियों के मुद्दे से रू-ब-रू नहीं होना होगा।
झारखंड के चुनावी इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि चुनावी प्रक्रिया में न तो कोई पुलिस कर्मी घायल हुआ और न ही किसी बारूदी सुरंग के विस्फोट या फिर नक्सलियों के हमले में किसी पुलिसकर्मी की मौत हुई है। ऐसे चुनाव के लिए झारखंड पुलिस, सीआरपीएफ और चुनाव आयोग सभी बधाई की पात्र हैं। और इसलिए कहा जा सकता है कि बैलट ने बुलेट पर जीत हासिल की है।
लेकिन, सवाल है कि ऐसा कैसे संभव हुआ जबकि कुछ महीने पहले लोकसभा चुनाव में नक्सलियों के हमले में आठ लोग, जिसमें सुरक्षाकर्मी सहित चुनाव आधिकारी शामिल थे, की मौत हो गई थी।
झारखंड जैसे राज्य जहां 24 में से 22 जिले नक्सल प्रभावित हों वहां नक्सलियों को मात देने निश्चित रूप से शोध का विषय बनेगा।
चुनाव अधिकारियों का कहना है कि सबसे पहले इस बार तालमेल का कोई अभाव नहीं दिखाई दिया। दूसरी अहम बात यह है कि मतदान केंद्रों और मतदान कर्मियों के लिए अलग सुरक्षा बल के जवान थे और उनपर हमले की स्थिति में नक्सलियों से निबटने के लिए अलग से अर्द्धसैनिक बल के जवान तैनात किए गए थे।
हर जिले में खुफिया तंत्र पर ज्यादा जोर दिया गया और हर खतरे के मुताबिक कदम उठाए गए। साथ ही नक्सलियों पर दबाव बनाने की रणनीति के तहत छापेमारी की कार्रवाई लगातार जारी रही।
इस चुनाव से पहले पुलिस मुख्यालय में बैठे अधिकारी रणनीति बनाया करते थे, लेकिन इस बार जिले के एसपी से रणनीति और योजना बनाने के लिए कहा गया था। इस बार करीब 1500 पोलिंग पार्टी को 60 क्लस्टर बिंदुओं पर उतारा गया जिससे नक्सलियों के बारूदी सुरंग लगाने के मनसूबों पर पानी फिर गया।
अर्द्धसैनिक बलों के अधिकारियों की मानें तो हर जिले के ऊपर से लेकर नीचे तक के अधिकारियों की तैयारी देखने लायक थी। इसी का नतीजा था कि चुनाव में बैलट ने बुलेट को परास्त किया और वोटिंग प्रतिशत भी बढ़ गया। इसलिए कहा जा सकता है कि 1996 के बाद यह पहला चुनाव है कि जब नक्सलियों की नहीं, प्रशासन की चली है।
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