जनलोकपाल बिल से पानी बिजली बिल पर आने और फिर कांग्रेस से बिना मांगे मिले समर्थन से दिल्ली में सरकार बनाने वाले अरविंद केजरीवाल ने बेशक जनलोकपाल बिल को मुद्दा बना कर दिल्ली का तख़्त छोड़ दिया हो, लेकिन बहुत सारी उम्मीदों को उन्होंने नहीं छोड़ा है। उन्हीं उम्मीदों में साम्प्रदायिकता के खिलाफ़ ग़ैर-सम्प्रदायिक ताक़तों और दलों की एकजुटता करना भी है। इसमें कांग्रेस एक धुरी साबित हो सकती है।
ख़ासतौर पर तब जब एंटी इंकमबेंसी फैक्टर से पार्टी जूझ रही हो और अगला चुनाव जीतना मुश्किल लग रहा हो। मोदी को रोकने के लिए पार्टी एंड़ी चोटी का ज़ोर लगा रही हो। लेकिन कांग्रेस ने जैसे ही ऐलान किया कि वाराणसी से पार्टी ‘अपने झंडे तले एक मज़बूत उम्मीदवार उतारेगी’, केजरीवाल कैंप को झटका सा लगा।
कोई भी राजनीतिक पार्टी अपनी रणनीति का खुलासा नहीं करती, लेकिन कई बार मौन रह कर अपने अनुकूल स्थिति का इंतज़ार करती है।
ये केजरीवाल की राजनीतिक चालाकी ही है कि जिस भ्रष्टाचार के मुद्दे को हवा देकर वे पहले मीडिया और फिर राजनीति में छाए उसी भ्रष्टाचार के मुद्दे को पीछे छोड़ वे साम्प्रदायिकता के खिलाफ ख़ुद को खड़ा करते नज़र आ रहे हैं। तभी उन्होंने अपने एक बयान में कह दिया कि भ्रष्टाचार से ज़्यादा बड़ा मुद्दा सांप्रदायिकता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि सांप्रदायिक राजनीति बहुत ख़तरनाक प्रवृति है, लेकिन केजरीवाल के इस शिफ्ट के पीछे वजह कुछ और है। दिल्ली में कांग्रेस ने केजरीवाल सरकार को समर्थन देकर एक तीर से दो शिकार करना चाहा। बीजेपी को सत्ता से दूर रखना और केजरीवाल के उनके किए अव्यावहारिक वादों को लेकर जनता के सामने एक्सपोज़ करना।
कांग्रेस अपने लक्ष्य में कहां तक क़ामयाब रही ये बहस का अलग मुद्दा है, लेकिन कांग्रेस के इस समर्थन ने केजरीवाल की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को एक नया आयाम दे दिया। वे ये मानने लगे कि कांग्रेस के दुश्मन नंबर वन मोदी के खिलाफ़ खड़े होकर वे न सिर्फ कांग्रेस बल्कि उन तमाम राजनीतिक दलों का मौन समर्थन हासिल कर लेंगे जो मोदी को पानी पी पी कर कोसते रहते हैं।
राजनीति में कहते हैं न कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। इसी फार्मूले के तहत केजरीवाल ने वाटर टेस्टिंग के लिए पहले अपनी पार्टी के नेताओं से बयान दिलवाया कि मोदी अगर वाराणसी से लड़ेंगे तो केजरीवाल को उनके खिलाफ़ लड़ना चाहिए। जब मोदी की वाराणसी की उम्मीदवारी तय हो गई तब भी केजरीवाल ने सीधे तौर पर अपनी उम्मीदवारी का ऐलान नहीं किया। कहा वे बनारस की जनता से पूछेंगे।
भारतीय लोकतंत्र में ऐसा कभी नहीं होता कि जनता चुनाव के पहले किसी का चुनाव करे। लेकिन जैसा कि केजरीवाल का तरीक़ा है, वो हर काम आम आदमी के कंधे पर रख कर करते दिखना चाहते हैं। तो यहां जनता से पूछने वाले बयान का सीधा मतलब ये था कि उन्हें थोड़ा टाइम चाहिए। टाइम इसलिए कि इस बीच वो अपनी उम्मीदवारी को लेकर ख़ासतौर पर कांग्रेस का रुख़ जान ले।
उनकी उम्मीद को तब और हवा तब मिली जब कांग्रेस के बड़े नेता और 10 जनपथ के क़रीबी माने जाने वाले अनिल शास्त्री ने ट्वीट कर कहा कि अगर बीएसपी और एसपी मोदी के खिलाफ गंभीर हैं तो उन्हें कांग्रेस के साथ मिल कर साझा उम्मीदवार तय करना चाहिए। इसी ट्वीट के क्रम में जब उनसे पूछा गया कि क्या वे चाहेंगे कि 'सांप्रदायिक ताक़तों से देश को बचाने के लिए कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को हाथ मिलाना चाहिए’ तो उन्होंने जवाब दिया ‘हां मैं सहमत हूं।'
इस बाबत जब कांग्रेस पार्टी से पूछा गया तो पार्टी ने कहा कि अनिल शास्त्री एक व्यापक परिदृश्य की बात कर रहे हैं, वाराणसी की एक सीट के लिए नहीं।
मोदी को हराने के लिए कांग्रेस केजरीवाल के सहारे दांव खेल सकती थी जिसका इशारा अनिल शास्त्री ने दिल्ली में और रीता बहुगुणा जोशी ने लखनऊ में किया था। लेकिन, पार्टी को अंदेशा हुआ कि ऐसा करने पर सेकुलर नेता के तौर पर वे केजरीवाल को ऐसा उभार मिल जाएगा जिसके चलते कांग्रेस सेकुलरिज़्म की अपनी ज़मीन खो देगी।
केजरीवाल को दिल्ली में सरकार बनाने के लिए समर्थन देने के फैसले पर पार्टी नेताओं के जिस खेमे नाख़ुशी जतायी थी उनके एक बार फिर नाराज़ होने का ख़तरा भी पार्टी ने महसूस किया। बीजेपी को भी ताल ठोकने का मौक़ा मिल जाता कि जो वो कहती रही है वो सच साबित हुआ, केजरीवाल कांग्रेस की ही बी टीम है। यही वजह है कि कांग्रेस ने वाराणसी के नतीजे पर ज़्यादा न सोचते हुए एक मज़बूत उम्मीदवार देने को कमर कस ली है। केजरीवाल की उम्मीदों पर ये किसी झटके से कम नहीं।
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