विज्ञापन
This Article is From Jan 13, 2017

लगातार तीन मुस्लिम किरदार निभाकर शाहरुख खान ने बहादुरी से दिया बड़ा संदेश...

Rana Ayyub
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 13, 2017 20:08 pm IST
    • Published On जनवरी 13, 2017 14:29 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 13, 2017 20:08 pm IST
वर्ष 2010 में मैंने एक कवर स्टोरी की थी, जिसमें महाराष्ट्र के अंदरूनी इलाकों में बसे मासूम दलितों और आदिवासियों पर नक्सली होने का झूठा आरोप लगाकर उन पर किए जाने वाले अत्याचार का ज़िक्र था. मेरी उस स्टोरी में एक दलित कवि का भी ज़िक्र था, जिसका मज़ाक किसी और ने नहीं, पुलिस वालों ने ही इस बात को लेकर उड़ाया था कि वह जीन्स इसलिए पहनता है, क्योंकि वह सवर्ण कवियों जैसा दिखना चाहता है. यह दुःखी करने वाला था, और अजीब था. जाति को लेकर भारत में जो कुछ होता है, यह उसकी कड़वी सच्चाई थी, और यह ऐसी कहानी थी, जिसे अक्सर सुनाया ही नहीं जाता.

पिछले साल जुलाई में जब तमिल सुपरस्टार रजनीकांत की फिल्म 'कबाली' ज़ोरशोर से रिलीज़ हुई थी, आलोचकों और मेरे जैसे बहुत-से लोगों के दिलों को फिल्म के जिस पहलू ने छुआ था, वह था फिल्म में बिल्कुल साफ-साफ तरीके से दलितों की बात किया जाना. यह भारतीय सिनेमा जगत के एक लिहाज़ से सबसे बड़े सुपरस्टार की फिल्म थी. वह इतने बड़े सुपरस्टार हैं, जिनकी फिल्म की रिलीज़ के मौके पर दक्षिण भारतीय राज्य छुट्टी घोषित कर दिया करते हैं. वह इतने बड़े सुपरस्टार हैं कि चाहे फिल्म में हो, या असल ज़िन्दगी में, उनका हर संवाद, हर शब्द, हर हरकत देखने वालों को सटीक लगती है, मानने लायक दिखती है. सो, जब रजनीकांत एक ऐसा किरदार अदा करते हैं, जो विभिन्न वर्गों के बीच समानता की बात करता है, तो जनसामान्य के बीच बिल्कुल स्पष्ट संदेश पहुंचता है, और उसके पीछे किसी को कोई राजनैतिक निहितार्थ भी नज़र नहीं आते.

'कबाली' के शुरुआती दृश्य में रजनीकांत का किरदार 'माई फादर बलिया' नामक पुस्तक पढ़ता दिखाई देता है, जो भारत में दलितों के जीवन तथा उनके संघर्षों के बारे में दलित विचारक सत्यनारायण द्वारा लिखित संस्मरण है. आमतौर पर द्रविड़ प्रतीकों से भरी रहने वाले तमिलभाषी सिनेमा के लिए यह फिल्म बेहद क्रांतिकारी परिवर्तन रही. फिल्म की समीक्षा में वेबसाइट 'द वायर' ने लिखा, "रजनीकांत ने 'कबाली' में एक ऐसे जागरूक दलित व्यक्ति का किरदार निभाया, जो (बाबासाहेब भीमराव) अम्बेडकर के सूट-बूट पहनने जैसी बारीकियों के अर्थ समझता था... फिल्म की यह प्रतीकात्मकता, तमिल फिल्म इंडस्ट्री के लिए एक बहुत बड़ी क्रांति लेकर आई है."

हिन्दुस्तान के सबसे बड़े फिल्मी सितारों में शुमार किए जाने वाले शाहरुख खान ने पिछले चार महीनों में लगातार तीन फिल्मों में काम किया है, और उन्होंने हर बार एक मुस्लिम किरदार निभाया. 'ऐ दिल है मुश्किल' में अहम कैमियो करते हुए वह ताहिर खान के रूप में दिखे, जो ऐश्वर्या राय बच्चन के सबा के साथ जुड़ता है. 'डियर ज़िन्दगी' में वह जहांगीर खान बने हैं, और अब वह बहुप्रतीक्षित फिल्म 'रईस' में दिखाई देंगे. फिल्म के ट्रेलर में शाहरुख खान के बोले गए संवाद, जो अब काफी लोकप्रिय भी हो चुका है - 'बनिये का दिमाग और मियां भाई की डेयरिंग...' से भी साफ पता चलता है कि उनका किरदार इसमें भी मुस्लिम ही है.

वैसे तो शाहरुख खान ने असल ज़िन्दगी में भी अपनी धार्मिक पहचान को कभी छिपने नहीं दिया. 9/11 के बाद लिखे एक कॉलम में इस्लाम को लेकर गलतफहमियां दूर करने की कोशिश करने से लेकर अलग-अलग अवसरों पर अपनी आस्था के बारे में खुलकर बात करने तक कई बार ऐसे मौके आए, जब उन्हें अपने विचारों को लेकर राजनैतिक गुस्से का सामना करना पड़ा. धर्म के आधार पर की जाने वाली नाइंसाफी के खिलाफ शाहरुख खान की मजबूत सोच ही वह वजह थी, जिसके चलते करण जौहर ने उन्हें 'माई नेम इज़ खान' में रिज़वान खान बना डाला, जो अपने मज़हब के माथे पर लगा दिए गए 'आतंकवादी' के ठप्पे को मिटा देना चाहता है. वर्ष 2007 की हिट फिल्म 'चक दे इंडिया' में भी वह 'बदनाम' हॉकी कप्तान कबीर खान बने हैं, जो देश के लिए सम्मान जीतकर लाने की उसकी कोशिशों के बावजूद न सिर्फ अपनी देशभक्ति को साबित करने के लिए मजबूर किया जाता है, बल्कि जो लगातार धार्मिक आधार पर भेदभाव भी झेल रहा है. फिल्म में मीडिया कबीर खान को ऐसे कप्तान के रूप में दिखाती है, जो पाकिस्तान के खिलाफ एक मैच में हार जाता है, और उसके पड़ोसी उसे 'गद्दार' कहकर पुकारते हैं.

बेहद हैरान करने वाली सच्चाई यह है कि असल ज़िन्दगी में भी शाहरुख खान की देशभक्ति को लेकर उस समय दक्षिणपंथियों ने सवाल खड़े किए, जब उन्होंने वर्ष 2014 में एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा कि उन्हें देश में असहिष्णुता से तकलीफ महसूस होती है. शाहरुख खान के पोस्टरों को जलाया गया, और पांच बार सांसद रह चुके योगी आदित्यनाथ ने उन्हें पाकिस्तान चले जाने के लिए कहा. कहते हैं, असल ज़िन्दगी में भी फिल्मों का असर आता ही है, लेकिन शाहरुख खान के मामले में वह चाहते थे कि फिल्मों में असल ज़िन्दगी की झलक दिखे, ताकि अल्पसंख्यकों के बारे में फैली भ्रांतियां दूर हों और देश में मौजूद भेदभाव से हमारा आमना-सामना हो. मार्च, 2010 में बरखा दत्त के साथ NDTV पर मुस्लिम विद्वानों तथा फिल्मकारों एलेक पदमसी व कबीर खान, अभिनेत्री सोहा अली खान के साथ उदार मुस्लिमों के मुद्दे पर बहस के दौरान शाहरुख खान ने हिन्दी फिल्मों में स्टीरियोटाइप (स्थापित ढर्रे) को तोड़ने की ज़रूरत बताई थी, और उनका कहना है कि 'माई नेम इज़ खान' में काम करके उन्होंने वही कर दिखाया है.

ऐसे मुल्क में, जहां किसी फिल्म का नायक मुसलमान या ईसाई होना दुर्लभ हो, क्योंकि आमतौर पर अल्पसंख्यक किरदार छोटी-मोटी भूमिकाओं में सिमटकर या स्थापित ढर्रे से चिपके रह जाते हैं, वहां का सबसे बड़ा सितारा तीन लगातार फिल्मों में मुस्लिम किरदार निभाए, यह सच्चाई देश को एक मजबूत संदेश देती है. यह एक ऐसी क्रांति है, जिस पर ध्यान दिया जाना और इसकी अहमियत को समझकर इसकी तारीफ किया जाना ज़रूरी है.

तीन में से दो फिल्मों में - शाहरुख खान के अहम कैमियो रोल वाली 'ऐ दिल है मुश्किल' और आलिया भट्ट के किरदार 'कायरा' के साइकोलॉजिस्ट अथवा लाइफ कोच जहांगीर खान की भूमिका वाली 'डियर ज़िन्दगी' - उनके किरदारों में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो इस्लाम के तत्वों को किसी भी तरह नकारता हो. और शायद नए युग में पहचान को बताने के तरीके की खूबसूरती भी यही है कि मुस्लिम किरदार भी सामान्य है. वह सिर्फ एक हाई-प्रोफाइल कलाकार है, या गोवा में बसा एक डॉक्टर है, जो बिल्कुल उतनी ही सहजता से राज मल्होत्रा या रोहन फर्नांडिस भी हो सकता था. ऐसे वक्त में, जब लेखिका कमला दास (जिन्होंने धर्मांतरण कर इस्लाम अपना लिया था) पर बनने वाली एक फिल्म को दक्षिणपंथियों के कथित दबाव के कारण विद्या बालन द्वारा छोड़ दिए जाने की ख़बरें आ रही हों, एक कलाकार द्वारा पहचान को बरकरार रखने की ज़िद पकड़े रहना बहादुरी ही कहलाएगा.

'80 के दशक में हिन्दी फिल्मोद्योग ने ऐसी फिल्में बनाई थीं, जिनमें मुस्लिम किरदार बेहद अहम और शीर्षक भूमिका में थे. क्या आपको सईद मिर्ज़ा द्वारा निर्देशित 'नसीम' और 'सलीम लंगड़े पे मत रो' याद हैं...? लेकिन ये फिल्में कथित रूप से कला फिल्मों के दर्शकों के लिए बनाई गई थीं. वे क्रिटिक्स अवार्ड वर्ग के तहत रखी गईं. लोकप्रिय सिनेमा में इनमें से बेहद कम फिल्में ही जगह बना पाईं.

बॉलीवुड में लगभग हमेशा ही रोमांटिक हीरो की भूमिका के लिए जाने-पहचाने जाते रहे शाहरुख खान ने पिछले कुछ महीनों में यह साबित करने की कोशिश की है कि ताहिर होना भी राहुल या राज होने जितना ही सहज है, और ज़रूरी नहीं है कि फिल्मों में मुस्लिम किरदार होने पर तभी पहचाने जाएंगे, जब वे खास टोपी पहने दिखेंगे. सो, यह बेहद अहम है कि हम इस नए ढर्रे को सामान्य समझने लगें, क्योंकि अब तक हर दूसरी बड़ी फिल्म में हर आतंकवादी गतिविधि से जुड़ा शख्स मुसलमान ही दिखाया जाता रहा है, भले ही वे '90 के दशक की नव-देशभक्ति से ओतप्रोत फिल्में रही हों, या हालिया वक्त में बनी राष्ट्रवादी फिल्में.

ऐसे वक्त में, जब सक्षम लोग, ताकतवर जगहों पर बैठे लोग इस तरह की बहस में शिरकत से इंकार कर रहे हों, अज्ञानियों को लैंगिक भेद, धर्म, संस्कृति और सामाजिक नियमों पर बोल-बोलकर सुर्खियों में आ जाने का मौका मिल रहा हो. ऐसे वक्त में, जब ताकतवर जगहों पर बैठे लोग विचारों को वही पुराने स्थापित ढर्रों की ओर ले जाना चाह रहे हों, इस तरह ज़ोर देकर कुछ भी कहना वक्त पर दी गई चेतावनी जैसा है.

बेहद बहादुरी के साथ इस नए 'सामान्य' को पेश करने के लिए शाहरुख खान और उनके इस प्रयास को शुक्रिया कहा ही जाना चाहिए...

राणा अय्यूब पुरस्कृत इन्वेस्टिगेटिव पत्रकार तथा राजनैतिक लेखिका हैं... उन्होंने गुजरात में नरेंद्र मोदी तथा अमित शाह की राजनीति पर 'गुजरात फाइल्स' शीर्षक से एक पुस्तक भी लिखी है...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
शाहरुख खान, रजनीकांत, दलित विमर्श, मुस्लिम किरदार, रईस, हिन्दी फिल्म, Shah Rukh Khan, Rajinikanth, Raees, बॉलीवुड फिल्में, Bollywood Films
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com