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This Article is From Jul 27, 2018

बिहार सरकार का एक साल पूरा होने पर सत्ता पक्ष सुस्त और विपक्ष सोया क्यों रह गया

Manish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 27, 2018 23:15 pm IST
    • Published On जुलाई 27, 2018 23:15 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 27, 2018 23:15 pm IST
शनिवार को बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए सरकार के एक साल पूरे हो गए. अपनी सरकार का सालाना लेखा जोखा देने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कोई आयोजन नहीं किया और न विपक्ष ने उनके इस कार्यकाल के बारे में कोई आरोप पत्र जारी किया या संवाददाता सम्मेलन ही किया. इसके बाद एक से एक राजनीतिक क़यास लगाए जा रहे हैं.

हालांकि 2015 में सत्ता में तीसरी बार आने के बाद नीतीश ने एक ट्रेन दुर्घटना के बहाने अगले साल महागठबंधन सरकार के पहले साल पूरे होने पर भी सरकारी आयोजन को स्थगित कर दिया था. लेकिन उस वर्ष इस आयोजन की तैयारी हुई थी और बाद में रिपोर्ट कार्ड मीडिया वालों के दफ़्तर में भिजवाया गया था. इसके अगले वर्ष दूसरे साल पूरा होने के पहले नीतीश कुमार ने इस्तीफ़ा दे दिया और उसी दिन एनडीए विधायक दल के नेता चुने गए. अगले दिन उन्होंने सुशील मोदी के साथ शपथ ग्रहण किया. नीतीश कुमार ने उस समय सरकार बनाने के तुरंत बाद विश्वास मत लिया और कहा था कि 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए कोई चुनौती नहीं है.

लेकिन जहां तक शुरू के दिनो में ये निश्चित रूप से लगा कि दिल्ली और पटना में एक पार्टी की सरकार होने से डबल एंजिन की सरकार आ गई है.भाजपा के नेताओं ने नीतीश कुमार के कामकाज या तबादला में कभी हस्तक्षेप नहीं किया. और भाजपा के अधिकांश नेता कामकाज में काफी गंभीर दिखे. राजद के साथ गठबंधन में जो काम लटका रहता था वो सब कुछ धड़ाधड़ होने लगा. और शहर से गांवों तक लोगों को लगा कि काम करने वाली सरकार वापस आ गई है.

लेकिन नीतीश कुमार को ये भ्रम टूटने में ज़्यादा समय नहीं लगा. जब बाढ़ की स्थिति का जायज़ा लेने के लिए प्रधानमंत्री आए तो उन्होंने तत्काल राहत के लिए मात्र पांच करोड़ की घोषणा की जबकि 2008 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उसी इलाक़े का एरियल सर्वे कर तत्काल राहत मद में एक हज़ार करोड़ रुपये बिहार सरकार को दिया था. लेकिन नीतीश को इस बात का भ्रम था कि केंद्र उन्हें ख़र्च करने पर राशि की भरपाई करने में हिचकेगी नहीं. लेकिन हुआ ठीक इसका उल्टा जब 7600 करोड़ के पैकेज के बदले बिहार को 1700 करोड़ दिया गया. इसमें भी शुरू में दिए गए 500 करोड़ की कटौती कर दी गई. लेकिन जब ये बात प्रधानमंत्री के सामने नीतीश कुमार ने रखी तो उन्होंने इसके बारे में कोई जानकारी होने से इनकार कर दिया जिसे आज तक नीतीश कुमार पचा नहीं पा रहे. इसके अलावा प्रधानमंत्री जब पटना विश्वविद्यालय के शताब्दी कार्यक्रम में आए नीतीश कुमार के तमाम आरजू मिन्नत को प्रधानमंत्री ने ख़ारिज कर दिया.

हालांकि इस सरकार के बनने के बाद एक सकारात्मक परिवर्तन ये रहा कि बिहार में केंद्रीय मंत्री आकर नीतीश से मिलकर अपने विभाग के कामों की समीक्षा करते थे. कुछ योजना जैसे हर घर बिजली को केंद्र ने सौभाग्य योजना के रूप में शुरू भी किया लेकिन केंद्र का प्रयास ये रहा कि इसका श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनका फोटो बैनर लगाके दिया जाए. इसी तरह केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी से नीतीश कुमार के सम्बंध मधुर होने के बावजूद दोनों एक-दूसरे के आलोचना करने से अब पीछे नहीं हटते. नीतीश गंगा नदी में गाद की समस्या को उठाते रहे लेकिन केंद्र का अभी तक कोई बहुत उत्साही रिस्पांस नहीं रहा है.

लेकिन जहां ये सरकार पूरी तरह विफल रही वो है सांप्रदायिक मोर्चा. सरकार बनने के शुरुआती दिनों में गौरक्षकों ने उत्पात किया लेकिन वहां नीतीश ने उन्हें पुलिस को फ़्री हैंड देकर दिखा दिया कि केवल भाजपा के साथ सरकार बनाने के कारण वो इसका लाभ नहीं उठा सकते. लेकिन इस साल रामनवमी में जो हुआ और जैसे जगह-जगह भाजपा नेताओं के नेतृत्व में तलवार निकाली गईं उससे नीतीश परेशान हुए और सभी को धक्का लगा. और सुशासन की केंद्रित मंत्री गिरिराज सिंह ने हवा निकाल दी जब वे दंगा कराने के आरोपियों से मिलने जेल पहुंच गए. पहली बार नीतीश कुमार अपने सहयोगी के सामने बेबस दिखने लगे क्योंकि मुसलमानों के दुकान में आग लगे फ़ोटो उनकी सुशासन बाबू की इमेज को भी चौपट कर रहे थे.

इस एक साल के दौरान बिहार में एक लोकसभा और तीन विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए. इन चुनावों में तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाली राजद एक भभुआ विधानसभा सीट को छोड़कर अररिया लोकसभा और जहानाबाद और जोकिहाट विधानसभा की सीट पर जीती. लेकिन इस परिणाम का एक मज़ेदार पहलू ये रहा कि अररिया लोकसभा सीट भले राजद जीती लेकिन वो चार विधानसभा सीटों पर पीछे चली गई जो 2015 में नीतीश कुमार के साथ महागठबंधन के दौरान जीती थी. साफ़ था भाजपा को नीतीश के साथ का लाभ था और सहानुभूति लहर में  2014 की तुलना में राजद का जीत का अंतर कम हो गया था. लेकिन इस परिणाम से साफ़ था कि नीतीश के ऊपर मुस्लिम और दलित वर्ग के एक अच्छे खासे तबके का इसलिए भरोसा नहीं रहा क्योंकि वो भाजपा के साथ चले गए थे. हालांकि इसमें बालू गिट्टी की समस्या के कारण लोगों की नाराज़गी भी एक कारण रहा.

इन सभी घटनाक्रम के बाद सरकार के भविष्य के बारे में अटकलें लगना लाज़िमी था. नीतीश को अब लगने लगा कि ना खुदा मिले ना विशाले सनम ना इधर के रहे ना उधर के. मोदी और शाह ने राजनीतिक रूप से नीतीश को कभी अहमियत नहीं दी और शाह हमेशा इस प्रयास में लगे रहे कि उन्हें कैसे हाशिए पर रखा जाए. लेकिन फ़िलहाल नीतीश अब ख़ुद से इस गठबंधन को नहीं तोड़ेंगे लेकिन सरकार चलाने की मजबूरी के चलते एक सीमा से ज़्यादा झुकेंगे भी नहीं. इसलिए इस सरकार का भविष्य नीतीश से ज़्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के हाथों में है कि वे नीतीश को कब तक अपना राजनीतिक साथी रखना चाहते हैं.


मनीष कुमार NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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