हम एक ऐसे दौर में हैं, जब यह कहा जा रहा है कि भारत की सरकार अर्थव्यवस्था में कुछ ऐसे बुनियादी बदलाव लाने जा रही है, जिनसे व्यवस्था चुस्त दुरुस्त हो जाएगी. इसी के तहत हाल ही में 15,347 अरब की मुद्रा (जो 500 और 1000 रुपये के भुगतान के वायदे के रूप में थी) को निष्प्रभावी बना दिया गया. यह निर्णय लिए जाने के बाद एक झटके में बाजार में केवल 2395 अरब रुपये की मुद्रा बची रह गई, यानी केवल 13.5 प्रतिशत मुद्रा ही बची रही. 8 नवंबर 2016 को जब यह निर्णय सुनाया गया, तबके बाद से हम सब इसे बारे में देख-सुन-बहस कर रहे हैं. जरा इससे जुड़े कुछ अन्य पहलुओं को समझने की कोशिश करते हैं. अपन सब जानते हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था में बैंक कुछ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. हम सब उन पर इतना विश्वास रखते हैं कि अपनी सब जमापूंजी उनके सुपुर्द कर देते हैं. बैंकों के पास दो तरह से पूंजी आती है – आम लोग अपनी पूंजी और आय को वहां जमा करते हैं और दूसरी तरह होती है सरकार एक व्यवस्थागत प्रक्रिया के तहत रिज़र्व बैंक के जरिए उन्हें मुद्रा छापकर देती है.
पिछले 10 सालों से भारत में “काला धन” एक महत्वपूर्ण राजनीतिक शब्द के तौर पर उभरा है. हालांकि यह इसे अर्थशास्त्र के संदर्भ में देखे जाने की जरूरत होती है, पर राजनीति ने इस शब्द के महत्व को बहुत कमजोर कर दिया. शायद इसलिए क्योंकि आर्थिक राजनीति की सत्ता चलाने वालों ने हाल ही में देश के हर व्यक्ति को काले धन का ग्राहता के तौर पर सामने पेश कर दिया. अब सब अपराध बोध से ग्रस्त हैं, क्योंकि उनके पास 500 या 1000 के 2 या 5 या 10 या 20 नोट के रूप में काला धन मौजूद है. अब लोग किससे जवाबदेहिता की मांग करेंगे? बहरहाल सरकार का आकलन था कि 15347 अरब रुपये में से लगभग 20 फीसदी हिस्सा यानी 3069 अरब रुपये काले धन के रूप में है. यह ऐसा धन है, जो कुछ लोगों ने या शायद कई लोगों ने हासिल किया है और छिपाकर रखा है. इस धन के स्रोतों (यानी आय के स्रोत) पर भी सवाल है और इसके उपयोग पर भी. इस राशि का कर सरकार को नहीं दिया गया है, जिससे भारत सरकार को राजस्व की हानि हुई. इतना ही नहीं, यह सोच भी बहुत पुख्ता रही है कि इस काले धन का उपयोग भारत विरोधी और आतंकी गतिविधियों में भी किया जाता है.
इस आधार पर सरकार की धारणा थी कि लगभग 12000 अरब रुपये ही बैंकों में आएंगे. इसमें से भी लगभग 20 प्रतिशत यानी 2400 अरब रुपये बैंकों में ही रुक जाएंगे. यानी लगभग 5400 अरब रुपये अलग-अलग तिजोरियों में बाहर आएंगे या निष्प्रभावी हो जाएंगे. इसका सबसे सीधा प्रभाव यह पड़ेगा कि भारत के बैंकों के पास 2400 अरब रुपये की राशि की उपलब्धता हो जाएगी. इस राशि से वे सरकार को विकास के लिए और ज्यादा धन दे सकेंगे. उम्मीदों से भरी भारत सरकार ने “काले धन से होने वाली आय के उपयोग से “प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना” लागू करने की घोषणा कर दी.
इसके साथ ही यह माना गया कि बैंकों के पास 2400 अरब रुपये आने से बाजार में ज्यादा कर्ज दे सकेंगे, जब बैंकों के पास बहुत सारी राशि होगी, तो उसे इसका उपयोग करने के लिए ब्याज दरों को कम करना पड़ेगा. इससे लोगों को सस्ती ब्याज दर पर कर्ज मिलेगा. तब लोग अपना मकान बनवा सकेंगे, टेलिविज़न, मोबाइल, वातानुकूलित यंत्र के लिए भी क़र्ज़ ले सकेंगे.
अपन जानते हैं कि जब रिजर्व बैंक आफ इंडिया नई मुद्रा छापता है, तब उसके एवज में कुछ सपत्ति रखी जाती है. यह भारत सरकार की गारंटी के रूप में या स्वर्ण मुद्रा के रूप में हो सकती है. अभी की स्थिति यह है कि हमारे यहां मुद्रा ज्यादा छपी है, और उसके बराबर की सम्पत्ति सुरक्षित नहीं रखी गई है. यह भी सरकार की मान्यता रही होगी कि जब 3000 अरब रुपये का काला धन बैंकों में वापस नहीं आएगा, तो प्रचलित मुद्रा और एक आदर्श और सुरक्षित अर्थव्यवस्था की तरह उसके एवज में रखी गई सम्पत्ति का मूल्य बराबर हो जाएगा. बहरहाल रिजर्व बैंक आफ इंडिया के पूर्व गवर्नर सी रंगराजन कहते हैं कि इससे रिजर्व बैंक को न तो पूंजीगत लाभ होगा, न पूंजीगत हानि होगी. अतः इससे यह तय है कि बैंक सरकार को कोई सीधे लाभ नहीं दे पाएगा. सब कुछ अच्छा हो जाएगा. दसों दिशाओं में हरियाली होगी और गरीबी मिट जाएगी. बहरहाल कभी भी यह संदेश नहीं दिया गया कि सरकार आर्थिक गैर बराबरी को खत्म करने में कोई रुचि रखती है!
इस पूरी पहल में सरकार के साथ दूसरा समूह है बैंकों का. समझ नहीं आ रहा है कि इस पहल से बैंक मजबूत होंगे या बैंक कमजोर हो रहे हैं. हम इसकी व्यवस्था को थोड़ा समझने की कोशिश करते हैं. बैंकों के पास जब पूंजी जमा होती है, तब वे उसका उपयोग दो तरह से करते हैं – लोगों को उनकी जमा पर ब्याज देते हैं और लोगों के जमा को अन्य लोगों/संस्थाओं/कंपनियों को क़र्ज़ देते हैं. इस पर बैंक को ब्याज मिलता है. बैंक हमेशा जमा पर ब्याज कम देते हैं और क़र्ज़ देकर ब्याज ज्यादा वसूलते हैं. यही उनके आय का सबसे अहम स्रोत होता है. वैसे तो यह व्यवस्था बहुत सहज दिखाई देती है, किन्तु इसमें यदि “मंशा और प्राथमिकताओं” के पहलू पर नज़र डालेंगे, तो हमें पता चलता है कि यह महज़ मुद्रा और पूंजी के लेन-देन की व्यवस्था नहीं है, इससे राजनीति और आर्थिक व्यवस्था की प्राथमिकताएं जुड़ी हुई होती हैं. यह समझना महत्वपूर्ण हो जाता है कि आखिर मुद्रा और पूंजी के लेन देन की प्रक्रिया में नीति बनाने वालों यानी सरकार का संरक्षण किसे मिलता है? जो पूंजी के साथ विलास करते हैं उन्हें या फिर वास्तविक पूंजी धारी, जो आम नागरिक हैं उन्हें!
बैंकों द्वारा दिया जाने वाला क़र्ज़ या अग्रिम “सम्पत्ति” कहलाता है. इसे सम्पत्ति इसलिए माना जाता है क्योंकि इससे ही बैंकों को क़र्ज़ पर मिलने वाले ब्याज और भुगतान की जाने वाली किश्तों से “आय” होती है. अपन सब जानते हैं कि जब क़र्ज़ लिया जाता है, तब एक तय तारीख या समय पर उसकी किश्तों का भुगतान किया जाना होता है. जब निश्चित तारीख या समय पर बैंक के क़र्ज़ लेने वाले ग्राहक से किश्त हासिल नहीं होती है तो उसे “खराब क़र्ज़” कहा जाता है. आम तौर पर तय तारीख से 90 दिन तक बैंक को न मिलने वाली किश्त की स्थिति में यह खराब क़र्ज़ रहता है. जब 90 दिन के बाद भी किश्त नहीं आती है तब इसे ‘अनर्जक ऋण या नान-परफार्मिंग असेट” कहा जाता है. सीधी सी बात है कि जब कोई बैंक से क़र्ज़ लेकर उसे वापस नहीं करता है, तो उसे अनर्जक ऋण कहा जाता है. आमतौर पर नियम यह है कि कुल बकाया (अग्रिम या ऋण का) 15 प्रतिशत तक अवमानक आस्तियां मानी जाती हैं. जब एक साल तक ऋण वापस नहीं आता है तो 25 प्रतिशत आस्तियां संदिग्ध मान ली जाती हैं. एक से तीन साल तक ऋण वापस नहीं आने पर 40 प्रतिशत और तीन साल से ज्यादा समय तक वापस न आने पर 100 प्रतिशत संदिग्ध हो जाती है. अब 500 और 1000 की मुद्रा की वापसी की नीति को अनर्जक सम्पत्ति (ऋण) से जोड़कर देखने की जरूरत है.
भारत के 49 बैंकों ने वर्तमान स्थिति में कुल 68.02 लाख करोड़ रुपये का अग्रिम या क़र्ज़ दिया हुआ है. स्वाभाविक है कि बाज़ार में उपभोग और खपत को बढ़ाने में हमारे बैंक बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं. हालिया आंकड़े बताते हैं कि इसमें से कुल 6.012 लाख करोड़ रुपये की राशि का क़र्ज़/अग्रिम अनर्जक सम्पत्ति का रूप ले चुका है. यानी कर्ज़दार अपने क़र्ज़ को समय से नहीं चुका रहे हैं. जून 2014 की स्थिति में भारत में नान परफार्मिंग असेट्स की राशि 2.35 लाख करोड़ रुपये थी, दो सालों में अनर्जक ऋण में 255 प्रतिशत की वृद्धि हुई. यानी आजकल ऋण बहुत डूब रहा है.
यह उल्लेख करना जरूरी है कि 20 सबसे बड़े क़र्ज़धारक (जिनके नाम सार्वजनिक नहीं किए जा रहे हैं) 1.54 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ वापस नहीं कर रहे हैं. स्वाभाविक है कि भारत सरकार के कुल बजट, बैंकिंग लेन देन और बाज़ार में तरलता बनाए रखने के लिए इस तरह के ऋणों की वसूली बेहद अनिवार्य होती है. यदि ऐसा नहीं होता है कि सरकार और बैंकों के पार अपने-अपने काम करने के लिए पूंजी कम हो जाती है और हम अपने विकास लक्ष्यों से पिछड़ने लगते हैं. जब अनर्जक ऋण ऋण वापस नहीं आता है तो भारत सरकार बैंकों से यह नहीं कह सकती है कि वह गरीबों के लिए आवास योजनाओं में सस्ते ऋण दे या शिक्षा के लिए सस्ता ऋण दे. अब जबकि भारत में अनर्जक ऋण की राशि छह लाख करोड़ रुपये पार कर चुकी है, तब सरकार की प्राथमिकता इस राशि उगाही की होनी चाहिए थी, न कि आम लोगों के द्वारा अपनी सुरक्षा के लिए जमा की गई पूंजी को जबरिया निकलवाकर बैंकों में लाने की. 500 और 1000 रुपये की मुद्रा के बारे में तो सरकार खुद भी स्पष्ट नहीं थी कि वास्तव में वापस कितना आएगा? अनर्जक ऋण के बारे में आंकड़े, स्थितियां और व्यक्ति (जो कर्जा दबाए हैं) बिलकुल सामने बैठे हैं.
हमें यह समझ लेना चाहिए कि आम लोगों की जमा और सुरक्षा निधि पर सरकार नजरें जमा रही है. यह बात इसलिए मायने रखती है क्योंकि वर्ष 2005 से 2015 के बीच 11 सालों में हमारे बैंकों ने 2.10 लाख करोड़ रुपये के क़र्ज़ को बट्टे खाते में डाला है. वर्ष 2015-16 में भी केवल सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने ही 59.55 हज़ार करोड़ रुपये के ऋण डूबत खाते में डाले. एक अनुमान के अनुसार 12 सालों में लगभग 2.80 लाख करोड़ रुपये का ऋण डूब चुका है. इसमें से अकेले स्टेट बैंक समूह ने 77408 करोड़ रुपये का ऋण डूबत खाते में डाला है. इसे बैंकिंग की भाषा में ऋण को “राईट आफ” करना कहा जाता है. इसका मतलब यह होता है कि जब कोई ऋण वापस नहीं आता है, तब उसे लेनदारी से हटा दिया जाता है और वार्षिक अंकेक्षण की रिपोर्ट में उसका उल्लेख नहीं किया जाता है. इस 2.80 लाख करोड़ रुपये से 56 लाख स्कूल भवन बनाए जा सकते थे या फिर 2.75 करोड़ बच्चों की अच्छे विश्वविद्यालयों की पूरी शिक्षा पूरे खर्चे के साथ सुनिश्चित की जा सकती थी. विशेषज्ञ तो इसे नियमित प्रक्रिया कहते हैं. उन्हें ऋण के डूबने में कुछ खास संकट नज़र नहीं आता है, लेकिन वे इस सवाल का जवाब भी नहीं देते हैं कि आखिर यह डूबने वाली पूंजी है किसकी?
हमें यह भी जान लेना चाहिए कि वर्ष 2012 में 5554 ऐसे कर्ज़दार थे, जो अपना ऋण चुकाने में पूरी तरह से सक्षम थे. उन पर 27749 करोड़ रुपये का क़र्ज़ था. ऐसे कर्जदारों की संख्या वर्ष 2015 में बढ़कर 7686 हो गई, जो 66190 करोड़ रुपये का क़र्ज़ नहीं चुका रहे हैं.
बात केवल ऋण के डूबने तक सीमित नहीं है. इसका सबसे ज्यादा असर भारत के सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों पर पड़ रहा है. अनर्जक ऋण को हटाने के लिए अक्टूबर 2015 से सितम्बर 2016 के बीच सभी बड़े बैंकों को भारी राशि का प्रावधान करना पड़ा, इससे उनके मुनाफे में 36 हजार करोड़ रुपये की कमी आई. भारत में अब भी सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों पर ही सबसे ज्यादा दबाव है. एक बड़ी राशि डूबत में डालने के बाद भी स्टेट बैंक आफ इंडिया समूह के पास 93137 करोड़ रुपये, पंजाब नेशनल बैंक पर 55003 करोड़ रुपये, बैंक आफ इंडिया पर 43935 करोड़ रुपये, बैंक आफ बड़ौदा पर 35604 करोड़ रुपये और केनेरा बैंक पर 30480 करोड़ रुपये के अनर्जक ऋण/सम्पत्ति का दबाव है.
जरा इस पहलू को देखिए. जिन उद्योगों को लगभग 1.70 लाख करोड़ रुपये की शुल्क/कर रियायत (जिसे रेवेन्यू फारगान कहा जाता है) दी जाती है, वे ही सबसे ज्यादा ऋण खा रहे हैं. धातु उद्योगों को कुल 4.33 लाख करोड़ रुपये का अग्रिम दिया गया है, इसमें से 1.49 लाख करोड़ अनर्जक ऋण है. वस्त्र उद्योग को 2.15 लाख करोड़ का अग्रिम दिया गया, इसमें से 37.4 हज़ार करोड़ का ऋण डूबत में है. हीरा-जवाहरात उद्योगों को 70 हज़ार करोड़ रुपये की कर रियायत मिलती है, उन्होंने भी 81.7 हज़ार करोड़ रुपये का अग्रिम लिया और 13414 करोड़ रुपये के ऋण को अनर्जक बना दिया. निर्माण क्षेत्र भी 15 हजार करोड़ रुपये का ऋण नहीं चुका रहा है.
अब भी यह राशि बढ़ रही क्योंकि उदारीकरण के पैरोकार मानते हैं कि “बाजार में मंदी के कारण उत्पादन और सेवा ग्राह्यताओं में कमी आई है, जिससे मुनाफा कम हुआ, घाटा बढ़ा और ऋण लेने वाले उसे चुका नहीं पाए.” हमारी सरकार और ऋण डुबोने की नीति के समर्थक नीतिकार आज भी अपनी आर्थिक विकास की नीतियों पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार नहीं हैं.
हमारा समाज यह समझने के लिए तैयार नहीं है कि 6 लाख करोड़ रुपये की राशि का यह अनर्जक ऋण, कोई लावारिस राशि नहीं है. यह सार्वजानिक सम्पत्ति है. किसी व्यक्ति या किसी कम्पनी के खाते में ले जाकर रूप बदलकर छिपा दिया जाना, उस व्यक्ति या कम्पनी का अपराध तो है ही, यह हमारी नीति और व्यवस्था का भी अपराध है. हमारी सरकार भारत के लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं लगती है, क्योंकि वह कहती है कि हम उन लोगों के नाम नहीं बता सकते, जिन्होंने बैंकों से कर्जा लिया और चुका नहीं रहे हैं! बहरहाल वह जनधन खाते वालों के पीछे पड़ने वाली है, उन महिलाओं को आतंकित करने वाली है, जिन्होंने अपने खाते में ढाई लाख रुपये जमा कर दिए हैं. सरकार यह नहीं जानना चाहती है कि क्यों आम लोगों, महिलाओं और युवाओं और व्यापारियों का विश्वास सरकार पर नहीं रह गया है? क्यों वह बैंक के बजाय, अनाज के डिब्बे में अपनी जमापूंजी को ज्यादा सुरक्षित करते हैं?
वह मूल मुद्दों को नहीं छूना चाहती है क्योंकि इससे बाजार व्यवस्था की साख पट बट्टा लग जाएगा. वह नादान बन रही है, मानो वह नहीं जानती है कि काले धन का महज़ 6 फीसदी हिस्सा ही नकद के रूप में होता है. ज्यादातर तो विकास की काली परियोजनाओं और उद्योगों में लगा है, सोने की चमक में है और विदेशी बैंकों में है. जरा यह भी तो पता कीजिए कि भारत के नेताओं के निवेश कहां-कहां हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार में बैठे कुछ नीति निर्माताओं के हित इसी में हों कि निवेश में कोई पारदर्शिता न हो, 6 लाख करोड़ के अनर्जक ऋण और 6 लाख करोड़ रुपये की राजस्व छूट की नीति न बदलने पाए. जीवन में वक्त मिले तो सोचिएगा!
(सचिन जैन, शोधार्थी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
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This Article is From Dec 16, 2016
किसकी पूंजी; कहां गई, किसने डुबोई और चुका कौन रहा है?
Sachin Jain
- ब्लॉग,
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Updated:दिसंबर 16, 2016 05:21 am IST
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Published On दिसंबर 16, 2016 05:21 am IST
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Last Updated On दिसंबर 16, 2016 05:21 am IST
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