एससी/एसटी कानून पर विवाद- सरकार और सुप्रीम कोर्ट गलत क्यों?

एससी/एसटी एक्ट के तहत सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी दिशा-निर्देशों से पल्ला झाड़ने की कोशिश में कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने अजब बयान दिया, कि केन्द्र सरकार इस मामले में औपचारिक पक्षकार ही नहीं थी.

एससी/एसटी कानून पर विवाद- सरकार और सुप्रीम कोर्ट गलत क्यों?

एससी/एसटी एक्ट के तहत सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी दिशा-निर्देशों से पल्ला झाड़ने की कोशिश में कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने अजब बयान दिया, कि केन्द्र सरकार इस मामले में औपचारिक पक्षकार ही नहीं थी. सच यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने अटार्नी जनरल को इस मामले पर नोटिस जारी किया, जिसके बाद एडिशनल सोलिसिटर जनरल (एएसजी) ने मामले पर केन्द्र सरकार की ओर से पक्ष रखा. केन्द्र सरकार की तरफ से मामले में बहस की वजह से ही सुप्रीम कोर्ट के 20 मार्च के फैसले में एएसजी का नाम शामिल है, फिर तकनीकी पेंच से केन्द्र सरकार इस मामले से क्यों बचना चाह रही है. फैसले में अनेक कानूनी विसंगतियों पर केन्द्र सरकार द्वारा यदि मुख्य मुक़दमे में सुप्रीम कोर्ट का ध्यान दिलाया जाता तो इस रिव्यू की नौबत क्यों आती?

क्रिमिनल मैटर में पीआईएल जैसा फैसला क्यों- सुप्रीम कोर्ट के सम्मुख महाराष्ट्र में एससी/एसटी कानून के दुरुपयोग का मामला था. इस मामले में गुण-दोष के आधार पर दोषी आरोपियों को मुक्त करने के साथ सुप्रीम कोर्ट ने कानून में बदलाव की सिफारिश किया और आदेश की अवहेलना पर अवमानना कानून के तहत कारवाई की बात भी कही. संविधान के अनुच्छेद-142 के तहत सुप्रीम कोर्ट को ऐसे आदेश जारी करने के लिए विशेष शक्तियाँ मिली हैं और इसीलिये सुप्रीम कोर्ट का फैसला देश का कानून माना जाता है. यह पीआईएल का मामला नहीं था और व्यक्तिगत क्रिमिनल मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी दिशा-निर्देश न्यायिक अनुशासन के अनुरुप भी नहीं है. व्यवहारिक स्थिति यह है कि जब तक कि संसद द्वारा कानून नहीं बनाया जाये तब तक दिशा-निर्देशों की कानूनी अहमियत नहीं है तो फिर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का सवाल क्यों?

दहेज उत्पीड़न के दिशा- निर्देशों पर सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बेंच द्वारा विचार- देश में अनेक कानूनों के दुरुपयोग की वजह से हो रही बेवजह गिरफ्तारियों पर सभी की चिंता जायज़ है. एससी/एसटी कानून पर फैसला देने वाली बेंच ने ही दहेज उत्पीड़न के मामलों पर बेवजह गिरफ्तारियाँ रोकने के लिए जुलाई 2017 में दिशा-निर्देश जारी किये थे. उस फैसले पर महिला संगठनों के विरोध के बाद चीफ जस्टिस ने पूरे मामले पर विचार के लिए तीन सदस्यों की बेंच का गठन कर दिया. पुराने दिशा-निर्देशों पर जब तीन जजों की बड़ी बेंच द्वारा पुर्नविचार किया जा रहा हो, तब नये दिशा-निर्देशों को दो जजों की बेंच द्वारा जारी करना कैसे न्यायोचित हो सकता है ?

संसदीय कार्यक्षेत्र में अदालती दखल क्यों- संसद में कोई कामकाज नहीं हो रहा, इसके बावजूद संविधान के अनुसार संसद की सर्वोच्चता बरकरार है. दहेज मामलों में जारी दिशा-निर्देशों को चीफ जस्टिस की बेंच ने अक्टूबर 2017 में पुर्नविचार के लिए स्वीकार करते हुए यह कहा कि ऐसे मामलों पर नियम और कानून बनाने का अधिकार संसद को है. अक्टूबर में जारी इस आदेश को यदि केन्द्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट के सम्मुख मुख्य मुक़दमे पर सुनवाई के दौरान यदि प्रस्तुत किया जाता तो शायद एसएसटी कानून पर देशव्यापी हिंसा और नुकसान की नौबत ही नहीं आती.

सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों का पक्ष क्यों नहीं सुना- केन्द्र सरकार द्वारा दायर रिव्यू पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उन्होंने एससी/एसटी कानून में कोई बदलाव नहीं किया. सुप्रीम कोर्ट के अनुसार गिरफ्तारी के बारे में सीआरपीसी की धारा-41 में व्यवस्था है जिसे कोर्ट ने अपने दिशा-निर्देशों में दोहराया है. सुप्रीम कोर्ट ने अटार्नी जनरल से पूछा कि यदि कोई उनके खिलाफ झूठी शिकायत करे तो क्या होगा और फिर वे कैसे काम कर पायेंगे ? सुप्रीम कोर्ट की मंशा और सारे तर्क सही हैं. संविधान की व्यवस्था के अनुसार सीआरपीसी कानून में सभी राज्यों ने अपने अनुसार प्रावधान और संशोधन भी किये हैं. सभी राज्यों को प्रभावित करने वाले फैसले को देने से पहले क्या सुप्रीम कोर्ट को राज्यों का पक्ष नहीं सुनना चाहिए था ?

सभी गिरफ्तारियों के दुरुपयोग पर रोक क्यों नहीं- एफआईआर दर्ज करने के बाद पुलिस द्वारा गिरफ्तारी का ब्रिटिश कालीन रिवाज आजाद भारत में बदस्तूर जारी है. रिव्यू पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने अटार्नी जनरल से पूछा कि किस कानून के तहत मामला दर्ज होते ही तत्काल गिरफ्तारी का प्रावधान है ? गिरफ्तारी के बाद अदालतों द्वारा बेल नहीं मिलने से लाखों बेगुनाह लोग जेलों में बन्द हैं, जिनमें अधिकांश एससी/एसटी, गरीब और कमजोर वर्ग के लोग हैं. सुप्रीम कोर्ट ने रिव्यू पर सुनवाई के दौरान यह सही कहा कि झूठी शिकायत पर कोई बेगुनाह जेल नहीं जाना चाहिए. एससी/एसटी कानून के साथ सभी मामलों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा यदि ये दिशा-निर्देश जारी किये जाते तो सामाजिक विद्वेष से उपजी देशव्यापी हिंसा को शायद रोका जा सकता था.


विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं...

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