पिछले-करीब दो महिनों के चुनावी कोलाहल में जहां देश-दुनिया की बड़ी-बड़ी खबरें तक महज फुसफुसाहट बनकर रह गई हों, वहां प्रशासन की खबरों की उपेक्षा की शिकायत करनी थोड़ी नाइंसाफी ही होगी. फिर भी यहां उसकी यदि बात की जा रही है, तो केवल इसलिए, क्योंकि इन बातों का संबंध काफी कुछ जनता की जरूरी मांगों से है.
इस बीच केन्द्र सरकार के नौ संयुक्त सचिव स्तर के पदों पर बाहर से नियुक्ति के आदेश जारी कर दिए गए हैं. हालांकि स्थायी अफसरों ने इसका काफी विरोध किया था, लेकिन सरकार को उसके इस निर्णय पर लोगों का जितना एकतरफा समर्थन मिला, वह चैंकाने वाला था. यह समर्थन उस तथ्य को दर्शाता है कि लोग प्रशासन में परिवर्तन को उत्सुक हैं. लेकिन क्या सच में सरकार भी इसके लिए उत्सुक है? यह प्रश्न मन में इसलिए उठ रहा है कि किसी भी राजनीतिक दल के न तो घोषणा पत्र में प्रशासन के सुधार के बारे में एक भी शब्द पढ़ने को मिलता है, और न ही किसी नेता के भाषण में एक भी शब्द सुनने को. आखिर ऐसा क्यों है?
इसका कुछ उत्तर हमें राज्यों एवं केन्द्र के चुनावी परिदृश्य में मिल जाता है. लोकसभा और विधानसभा के चुनावी दंगल में उच्च-स्तरीय प्रशासनिक अधिकारियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. यह संख्या केवल उनकी नहीं है, जो या तो रिटायर हो गए हैं, या रिटायर हुए अभी कुछ ही वक्त गुजरा है. बल्कि एक बड़ा भाग उनका है, जो अभी अपने कैरियर के मध्य में हैं, और एक ऐसा अच्छा कैरियर उनकी प्रतीक्षा कर रहा है, जो लगभग-लगभग निश्चित सा है. फिर भी वे ऐसा कर रहे हैं. यह प्रवृत्ति बढ़ती ही जाती है. यदि इस प्रवृत्ति का कोई संबंध प्रशासन की गुणवत्ता से नहीं होता, तो चिंता की कोई बात नहीं थी. लेकिन ऐसा है नहीं. प्रशासन, राजनीति एवं पूंजीपतियों का अपवित्र गठबंधन किस प्रकार लोकतंत्र को अपना बंधक बनाता जा रहा है, इस पर कई आयोग और समितियों की रिपोर्ट आ चुकी हैं. समय-समय पर उच्चतम न्यायालय ने भी काफी कड़ी टिप्पणियां की हैं. लेकिन इस दिशा में सुधार के लिए तनिक भी चिंता की झलक दिखाई नहीं देती. बल्कि राजनीतिक दलों की ओर से इसे लगातार उत्साहित ही किया जा रहा है. लोगों को इसका एक चिंताजनक साक्ष्य वर्तमान के चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली में देखने को मिल रहा है, जिसके विरूद्ध काफी जन-स्वर उठ रहे हैं. इनके द्वारा स्पष्ट रूप से मांग की जा रही है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति (व्यवहार में प्रधानमंत्री) के द्वारा न होकर केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त की तरह हो. इसमें मैं अपनी ओर से एक अन्य सुधार भी जोड़ना चाहूंगा कि चुनाव आयुक्तों द्वारा सेवामुक्ति के बाद कोई भी सार्वजनिक पद स्वीकार करने पर प्रतिबंध लगा दिया जाए. चुनाव किसी भी लोकतंत्रिक व्यवस्था की गंगोत्री होती है. इसकी शुचिता को बनाए रखना निहायत जरूरी है.
चुनाव के इसी भरे-पूरे दौर के बीच सिविल सेवा परीक्षा के नतीजों की घोषणा हुई. वैसे तो पिछले परिणामों के स्वरूप भी इस परीक्षा प्रणाली के व्यावहारिक सामर्थ्य पर लगातार प्रश्न चिह्न लगाते आ रहे थे, लेकिन इस बार कुछ ज्यादा ही हद हो गई. इस परिणाम की दो बातें चिंता पैदा करने वाली लगीं. पहली यह कि सफल होने वाले प्रतियोगियों में जिसे भी देखो, वह इंजीनियर है. इन इंजीनियरों में आईआईटी से भी हैं, और ऐसे भी हैं, जो करोड़ रुपये के वार्षिक पैकेज को छोड़कर इस दस लाख रुपये के वार्षिक पैकेज में आ रहे हैं. यानी कि यह भारतीय प्रशासनिक सेवा की जगह क्रमश: इंजीनियर प्रशासनिक सेवा बनती जा रही है.
इसकी दूसरी चिंता पहले से ही जुड़ी हुई है. चूंकि इंजीनियरों का इस पर आधिपत्य होता जा रहा है, इसलिए यह परीक्षा लगभग-लगभग अंग्रेजीमय हो गई है. हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं वाले प्रतियोगी गायब होते जा रहे हैं. निश्चित रूप से आगे चलकर इनका काफी नकारात्मक प्रभाव प्रशासन में देखने को मिलेगा. राजनेताओं को इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, लेकिन लोगों को तो पड़ेगा. इसलिए अब यह अपरिहार्य हो गया है कि राजनीति एवं चुनाव में सुधार के साथ-साथ प्रशासन में भी सुधार की बात जोर-शोर से उठाई जाए.
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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