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This Article is From Oct 10, 2018

अब जागना होगा ऊंघते अमेरिका को...

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 10, 2018 16:33 pm IST
    • Published On अक्टूबर 10, 2018 16:33 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 10, 2018 16:33 pm IST
निर्णय लेना आसान नहीं होता, और जो निर्णय लिए गए, वे तो और भी ज़्यादा कठिन थे. इसके लिए बहुत अधिक साहस की ज़रूरत थी, किन्तु भारत ने यह साहस कर दिखाया, वह भी एक ही दिन में, तथा एक ही देश की इच्छा के विरुद्ध नहीं, उसकी आदेशनुमा धमकियों को भी दरकिनार करते हुए...

ये दो निर्णय थे -
·         भारत ईरान से पेट्रोलियम पदार्थ खरीदता रहेगा...
·         भारत ने रूस से एस-400 मिसाइल प्रतिरक्षा प्रणाली खरीदने के सौदे पर हस्ताक्षर किए...

आपको शायद याद हो कि डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका ने ईरान से हुए परमाणु समझौते को एकतरफा तोड़ते हुए उससे तेल खरीदने पर पाबंदी लगा दी थी. भारत को इसके लिए 4 सितंबर तक का समय दिया गया था, और भारत ने 5 सितंबर को ईरान से तेल का सौदा कर लिया.

अमेरिका ने पिछले साल 2 अगस्त को CAATSA नामक दादागीरी से भरा कानून बनाया था, जिसमें आर्थिक प्रतिबंधों द्वारा अमेरिका के प्रतिद्वन्द्वियों का प्रतिरोध करने का प्रावधान है. दरअसल, यह कानून रूस के रक्षा व्यापार पर लगाम लगाने के लिए बनाया गया था. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन की भारत यात्रा से पहले अमेरिका ने भारत को इस कानून का स्मरण कराया था, जिसे विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने खुले रूप से खारिज कर दिया था.

ऐसा नहीं है कि अमेरिका ने ऐसा पहली बार किया है, और भारत के साथ ही किया है. भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान वर्ष 1998 में भी अमेरिका ने तब भारत पर कुछ आर्थिक एवं बौद्धिक प्रतिबंध लगाए थे, जब भारत ने पोखरण में अपना द्वितीय और दो परमाणु परीक्षण किए थे. यदि तब भारत ने उसकी परवाह नहीं की, तो इन 20 वर्षों में तो यमुना और हडसन में बहुत-सा पानी बह चुका है.

दरअसल, वैसे तो अमेरिका के साथ ही, लेकिन डोनाल्ड ट्रंप के साथ विशेषकर, परेशानी यह है कि उनके दिमाग में अब भी वर्ष 1945 की दुनिया बसी हुई है. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ध्वस्त यूरोप के पुनर्निर्माण के लिए अमेरिका ने जिस मार्शल योजना की शुरुआत की थी, उससे यूरोपीय देशों को अपने पैरों पर खड़ा होने में बहुत मदद मिली थी. इनमें वह जर्मनी भी शामिल था, जिसे द्वितीय विश्वयुद्ध के लिए ज़िम्मेदार माना गया था, और वह जापान भी था, जिसके दो नगरों पर परमाणु बम गिराकर अमेरिका ने नष्ट कर दिया था. ज़ाहिर है, ऐसे में ये सभी देश अमेरिका के प्रति कृतज्ञता से भरे हुए थे.

यहां तक कि रूसी गुट के अतिरिक्त अन्य अविकसित एवं विकासशील देशों के प्रति भी उसका रवैया काफी कुछ सहयोगात्मक ही था. भले ही इस सहयोग के पीछे उसके राजनयिक हित और काफी कुछ दंभ भी झलकता था.

संयुक्त राष्ट्र संघ का वह सबसे बड़ा दानदाता था ही. इस नई बन रही दुनिया के आर्थिक नक्शे पर वह टॉप पर था. विज्ञान तथा तकनीकी के क्षेत्र में उसका कोई सानी नहीं था. युद्धक हथियारों का वह सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक था.

इसलिए अन्य राष्ट्रों की कहीं न कहीं यह मजबूरी थी कि वे अमेरिका को मन ही मन नापसंद तो कर सकते थे, लेकिन उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते थे. इसका इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध में पराजय के बाद जापान जब अपना संविधान बना रहा था, तो अमेरिका ने उस पर दबाव डालकर उसमें यह शामिल कराया कि जापान एक शांतिप्रिय राष्ट्र होगा, और वह अपनी सेना नहीं रखेगा. न ही वह युद्ध-सामग्री आदि का निर्माण करेगा.

यदि हमें आज की बदली हुई दुनिया का नमूना देखना हो, तो भारत को ही क्यों, खुद जापान को देख सकते हैं. जापान में अभी-अभी शिंजो आबे तीसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं, वह लंबे समय से कहते आ रहे हैं कि अब समय आ गया है, जब हमें अमरीकी दबाव में बनाए गए अपने इस युद्ध-विरोधी संविधान को बदलना चाहिए. अब उनके पास दोनों सदनों में पर्याप्त बहुमत है. जैसे ही शिंजो अपना यह वादा पूरा करेंगे, यह अमेरिका की पीठ पर एक जबर्दस्त घूंसा होगा.

लेकिन अपने ही राग और अपनी ही धुन में मस्त अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को यह सब दिखाई नहीं दे रहा है, लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं है कि दुनिया को भी दिखना बंद हो गया है. ट्रंप के कार्यकाल के बचे लगभग सवा दो साल में शायद अमेरिका अपनी आंखें खोलने को मजबूर हो जाए, और यही ट्रंप की अमेरिका तथा विश्व को सबसे बड़ी देन होगी.


डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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