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This Article is From Feb 19, 2016

बात पते की : ये जेएनयू से जनेऊ का झगड़ा है

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 20, 2016 16:41 pm IST
    • Published On फ़रवरी 19, 2016 20:19 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 20, 2016 16:41 pm IST
जो लोग यह मान रहे हैं कि महज दस लड़कों के कुछ नासमझी भरे नारों के लिए जेएनयू को बदनाम किया जा रहा है, वे दरअसल एक भारी भूल कर रहे हैं। यह जेएनयू से ज्यादा जेएनयू की अवधारणा है जो बीजेपी, संघ परिवार और दक्षिणपंथी विचारधारा को स्वीकार्य नहीं है।

जेएनयू के बहाने देशभक्ति और देशद्रोह पर छिड़ी इस पूरी बहस के अलग-अलग पक्षों को देखें तो यह बात साफ़ तौर पर समझ में आ जाएगी। मसलन जो लोग जेएनयू के नारों का विरोध कर रहे हैं, वे हैदराबाद यूनिवर्सिटी में रोहित वेमुला की ख़ुदकुशी से भी आंख मिलाने को तैयार नहीं हैं। जो लोग जेएनयू को देशद्रोहियों का अड्डा बता रहे हैं, वे मूलतः आरक्षण विरोधी और उदारीकरण के समर्थक तत्व हैं। जो लोग मानते हैं कि जेएनयू आज़ादी के नाम पर अराजकता फैला रहा है, वे स्त्री की बराबरी और आज़ादी के भी ख़िलाफ़ खड़े लोग हैं।

ये वही लोग हैं जो कश्मीर समस्या और माओवाद के संकट को किसी आंतरिक परिस्थिति की तरह देखने को तैयार नहीं हैं, बल्कि यह चाहते हैं कि इनका उस तरह दमन कर दिया जाए जैसे आक्रांता सेनाएं किसी दूसरे देश के नागरिकों का करती हैं। यही वे लोग हैं जो जातिवाद को गलत बताते हैं लेकिन अपनी जाति के बाहर जाकर शादी करने को तैयार नहीं होते और अख़बारों में बिल्कुल जातिगत पहचानों वाले विज्ञापन देते हैं। ये वही लोग हैं जिन्हें दलितों का, पिछड़ों का, अल्पसंख्यकों का और स्त्रियों का आगे बढ़ना नहीं सुहाता। ये वही लोग हैं जो सरकारी या केंद्रीय विश्वविद्यालयों के सामाजिक माहौल में नहीं जाते और निजी तकनीकी संस्थानों की मूलतः कारोबारी शिक्षा वाली व्यवस्था को सबसे आदर्श मानते हैं।

यही वे लोग हैं जो मानते हैं कि विश्वविद्यालयों में बस कोर्स पूरा करना चाहिए और डिग्री लेकर एक अच्छी नौकरी करनी चाहिए, बहस नहीं करनी चाहिए और राजनीति तो बिल्कुल नहीं। यही लोग हुसैन की कलाकृतियां जलाते हैं, हबीब तनवीर के नाटकों में बाधा डालते हैं और लेखकों के विरोध को राजनीतिक साज़िश की तरह देखते हैं। फिर यही वे लोग हैं जो अयोध्या में एक भव्य राम मंदिर चाहते हैं, जैश-लश्कर से लेकर आईएस-अल क़ायदा तक की मिसालें देते हुए साबित करते हैं कि मुसलमान आतंकवादी हैं और शिकायत करते हैं कि इसी मुल्क में बोलने की इतनी आज़ादी है कि लोग देश और धर्म की भी आलोचना कर बैठते हैं।

दूसरी तरफ जो लोग रोहित वेमुला के अकेलेपन और उसकी बिल्कुल प्राणांतक उदासी में साझा करते हैं, वही कन्हैया और उसके साथ खड़े होने का दम दिखाते हैं। जो लोग इस पूरी व्यवस्था में हाशिए पर हैं, जो चंपू पूंजीवाद और अलग-अलग सत्ताओं के गठजोड़ से बनी एक बेईमान और अन्यायपूर्ण राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था के शिकार हैं, वे देश के नाम पर ठगे जाने को तैयार नहीं हैं। इत्तिफाक से यही वे लोग हैं जो नई बहसों, नए चलनों, नए राजनीतिक प्रयोगों और नई क्रांतियों के वाहक हैं और अपने-अपने संस्थानों और विश्वविद्यालयों में अति तक जा सकने वाली बहसें करते रह सकते हैं।

यही वे लोग हैं जो कलबुर्गी, पंसारे और दाभोलकर के मारे जाने का विरोध करते हैं, इसके लिए प्रदर्शन करते हैं और अपने पुरस्कार लौटाते हैं। अगर ध्यान से देखें तो बंगाल से महाराष्ट्र तक, छत्तीसगढ़ से तेलंगाना तक और गुजरात से कर्नाटक तक जो लोग कहीं मेधा पाटकर की बांध विरोधी लड़ाई में शामिल हैं, कहीं उदयकुमार के साथ ऐटमी कारख़ानों का विरोध कर रहे हैं, कहीं सोनी सोरी के साथ हुए अत्याचार को उजागर कर रहे हैं, कहीं अख़लाक के मारे जाने का मातम मना रहे हैं, कहीं गैंगरेप की शिकार किसी लड़की के हक़ में आंदोलन कर रहे हैं और कहीं मानवाधिकार की किसी दूसरी लड़ाई के सिपाही बने हुए हैं, वही हैदराबाद से जेएनयू तक पसरे हुए हैं। ये एक अलग सा भारत है- बहुत सारे रंगों से भरा हुआ, बहुत सारे विश्वासों से लैस, बहुत सारी बहसें करता है, बहुत सारे अभावों के बीच गुज़रता हुआ, कहीं पिटता हुआ, कहीं जेल जाता हुआ- जो इस देश पर शासन कर रही सरकारों को समझ में नहीं आता है। वे इस भारत को कुचलना चाहती हैं, क्योंकि वह असहमति जताता है, सवाल पूछता है, नारे लगाता है और कभी-कभार अपनी हताशा या अपने गुस्से में अपने अलग होने की बात भी कह डालता है।

दरअसल यह दो समाजों का झगड़ा है- दो विश्वासों का, जिनका वास्ता हिंदू-मुसलमान-ईसाई जैसी धार्मिक या ब्राह्मण-राजपूत-भूमिहार या यादव जैसी जातिगत पहचानों से नहीं है, बल्कि बराबरी और इंसाफ़ की अवधारणा से है, आर्थिक विकास और सामाजिक खुशहाली के द्वंद्व से है, उग्र राष्ट्रवाद और सामाजिक समरसता की मनोरचनाओं के फ़र्क से है। ये एक बहुत बड़ी लड़ाई है जिसके मोर्चे ढेर सारे हैं। जेएनयू इसका एक नया मोर्चा है। इस ऐतिहासिक लड़ाई में संघ परिवार को मुंह की खानी है क्योंकि वह इतिहास की गति के विरुद्ध खड़ा है। हालांकि इस अंतिम पराजय से पहले वह तमाम तरह की चाल चल रहा है, कुछ तात्कालित जीतें भी हासिल कर रहा है। राष्ट्रवाद एक ऐसी ही चाल है जिसके ज़रिए वह जेएनयू को बदलने में लगा है।

यह नए और पुराने हिंदुस्तान की लड़ाई है जिसे पहचानने की ज़रूरत है और लड़ने की भी। एनडीटीवी इंडिया के संपादक ऑनिंद्यो चक्रवर्ती के मुताबिक यह जेएनयू बनाम जनेऊ है। यह एक सटीक मुहावरा है जिसे समझना इस टकराव को समझने के लिए ज़रूरी है।

(प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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