हरिद्वार में चल रहे महाकुंभ का स्नान दरअसल कोरोना के समंदर में अहंकारग्रस्त हिंदुत्व का भी स्नान है. इस हिंदुत्व को भरोसा हो चुका है कि कोरोना भले उसका कुछ बिगाड़ ले, कोरोना को रोकने की कोशिश में लगा सरकारी तंत्र उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता. उसके पीछे शासन की ताक़त है, उस गृह मंत्री और प्रधानमंत्री की ताकत है जो इन दिनों में बंगाल में ऐसी ही भीड़ के बीच रैलियां और रोड शो करते पाए जाते हैं.
कुंभ का महास्नान कितना खतरनाक है? इसको एक मोटे आंकड़े से समझने की कोशिश करते हैं. बताया जा रहा है कि दूसरे शाही स्नान के दिन 30 लाख से ज़्यादा लोगों ने हरिद्वार में गंगा में डुबकी लगाई. तीसरे शाही स्नान की संख्या भी शायद इसी आसपास रहनी है. जबकि कोरोना की सकारात्मकता दर 11 अप्रैल को 10 फ़ीसदी से ऊपर थी. यानी जिन 100 लोगों की जांच हो रही थी, उनमें से दस से ज़्यादा लोगों को कोरोना संक्रमित पाया जा रहा था. इस आंकड़े को हरिद्वार में लागू करके देखें तो डरावने नतीजे मिलते हैं. तीस लाख की उस भीड़ में कम से कम तीन लाख कोरोना संक्रमित रहे होंगे. प्रशासन दावा कर रहा है कि वहां जो भी जा रहा है, वह आरटी-पीसीआर टेस्ट कराकर जा रहा है, लेकिन अपने अनुभव से हम जानते हैं कि यह बात पूरी तरह सच नहीं है. यानी इस कुंभ में लाखों लोग ऐसे हो सकते हैं जिनको कोरोना रहा हो. वे अपने-अपने घरों में न जाने कितनों को संक्रमित करेंगे.
यह आपराधिक है. जब देश के कई राज्यों में लॉकडाउन जैसी सख़्ती की बात हो रही है, जब बार-बार यह दुहराया जा रहा है कि कहीं भीड़ न लगाएं, मास्क पहन कर रहें, तब कुंभ में सारी सावधानियों को अंगूठा दिखाकर लोग एक-दूसरे से चिपके हुए स्नान करने में जुटे हैं. अपने धार्मिक अधिकार के नाम पर यह आस्था का नहीं, अहंकार का प्रदर्शन है. यही अहंकार चुनावी रैलियों में वे राजनीतिक दल प्रदर्शित करते हैं जो अपने-आप को हर क़ानून से ऊपर मानते हैं. यह बात भी स्पष्ट है कि इन लोगों को आमजन की जान की परवाह नहीं है वरना ये अपने प्रचार को भी मर्यादित रखते और अपनी आस्था को भी.
लेकिन यह मर्यादा शायद धर्म से पूरी तरह ग़ायब हो चुकी है. धार्मिक पहचान एक आक्रामक पहचान है जिसमें दूसरों को भी नीचा दिखाने का अहंकार है. जिन लोगों को यह एहसास है कि हरिद्वार में कुंभ के नाम पर हुआ जमावड़ा कोविड के लिहाज से बहुत ख़तरनाक है, वे भी इसकी खुल कर आलोचना नहीं कर रहे हैं. उनके लिए यह 'अपने' लोगों का मामला है जो अपनी धार्मिक आस्था की वजह से यह कर रहे हैं. यह चुपचाप इस बात की स्वीकृति है कि धार्मिक आस्था के नाम पर चाहे जितने ख़तरनाक कृत्य किए जाएं, वे क़ानूनी कार्रवाई के दायरे में नहीं पड़ते.
इसकी तुलना बीते साल तबलीगी जमात के मामले से करके देखें. दिल्ली में तबलीगी जमात के मरकज में जब देश-विदेश से करीब पांच हज़ार लोग जुटे थे तब तक न लॉकडाउन हुआ था और न ही विमानों से आने-जाने पर पाबंदी लगी थी. यह सच है कि जमात वालों ने लापरवाही की थी और बिना सावधानी बरते देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रचार के लिए चले गए थे. लेकिन उनको बिल्कुल देशद्रोही, आतंकी, साज़िशकर्ता, कोरोना एजेंट, कोरोना बम और न जाने क्या-क्या कहा गया. उनको मस्जिदों से खोज-खोज कर निकाला गया. कुछ महीनों के लिए वे बिल्कुल खलनायक बना दिए गए.
लेकिन यह पवित्र क्रोध अभी बिल्कुल स्वाहा हो चुका है. हिंदुत्व कुंभ में डुबकी लगा रहा है. उसके पास करने को और भी बड़े काम हैं. अभी ज्ञानवापी मस्जिद छुड़ानी है जिसे कट्टर औरंगजेब ने बनवाया था. कुंभ के मामले में सरकारी क़ानूनों और बंदिशों को धत्ता बताने वाला हिंदुत्व ज्ञानवापी मस्जिद में दाख़िल होने के लिए फिलहाल क़ानून की गली खोज रहा है. निचली अदालत ने ज्ञानवापी मस्जिद के पुरातात्विक सर्वेक्षण का आदेश भी दे दिया है. लेकिन मान लें कि ज्ञानवापी मस्जिद के नीचे किसी मंदिर के अवशेष मिल ही गए तो आप क्या करेंगे? क्या फिर से इस मस्जिद को तोड़ कर मंदिर बनाने का आदेश देंगे? 400 साल पहले एक निरंकुश-कट्टर बादशाह ने जो कुछ किया, क्या ठीक वैसी ही हरकत भारतीय राष्ट्र राज्य करेगा? 1991 में बना धार्मिक स्थल क़ानून कहता है कि 15 अगस्त, 1947 की तारीख़ को किन्हीं मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारों की जो स्थिति थी, उन्हें बनाए रखा जाए. उनका धार्मिक स्वरूप परिवर्तित न किया जाए. इस क़ानून का मक़सद यह बताना था कि 1947 के दिन से एक नया भारत बनता है जो उसके पहले के ब्रिटिश भारत, मुगल भारत या रजवाड़ों के भारत से बुनियादी तौर पर भिन्न है और यहां सबको बराबरी के साथ रहने का अधिकार है. यह 1947 के पहले के औपनिवेशिक और विभाजनकारी अतीत को बुहार कर समानता की एक साफ-सुथरी ज़मीन पर साथ-साथ आगे बढ़ने का संकल्प था.
लेकिन ज्ञानवापी के सर्वेक्षण के आदेश से यह ख़तरा और सवाल खड़ा हो गया है कि इसके बाद क्या होगा. कल्पना करें कि ऊंची अदालतों में यह आदेश नहीं टिकेगा, लेकिन तब हिंदूवादी ताक़तें राजनीति के कुंभ में स्नान करेंगी. तब अदालतों की सर्वोच्चता का खयाल उनके दिमाग से निकल चुका होगा और सारे फ़ैसले उनकी अदालतों में हुआ करेंगे. क्योंकि अभी तक यह दिखता रहा है कि अदालतें उनकी निगाह में तभी सर्वोच्च हैं जब तक वे उनके हक़ में फ़ैसले करती हैं, अगर वे उनके विरोध में फ़ैसला करती हैं तो आस्था उनके लिए अदालत से बड़ी हो जाती है. सबरीमाला इसका ताज़ा उदाहरण है.
दरअसल यह एक ख़तरनाक समय है. कोरोना से कहीं ज़्यादा ख़तरनाक एक वायरस हमारे राष्ट्र की प्राणवायु को अवरुद्ध कर रहा है. इसमे आगे बढ़ने का संकल्प नहीं है, बस पीछे देखते रहने की ज़िद है. बस मंदिर-मस्जिद के झगड़ों में उलझे रहने की एक मनोवैज्ञानिक बीमारी जैसे उसके दिमाग में घर बना चुकी है. राष्ट्र को संविधान से नहीं, धार्मिक आस्था से चलाने का अवचेतन का एक स्वप्न जैसे सतह पर आ रहा है- बिना यह देखे कि धार्मिक आस्थाओं से चलने वाले मुल्कों का क्या हाल हो जाता है.
ऐसी स्थिति में न हम इस सांप्रदायिक वायरस से लड़ सकेंगे और न ही कोरोना से. बंगाल की चुनावी रैलियों और हरिद्वार के कुंभ में लगाई जा रही डुबकी और इनके प्रति हमारे मंत्रियों-संतरियों की उदासीनता बताती है कि किसी भी रोग को ख़त्म करने में हमारी दिलचस्पी नहीं है. बल्कि जो इसकी ओर ध्यान खींचे, वह उनकी नज़र में खलनायक है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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