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This Article is From Jul 12, 2018

प्राइम टाइम का असर, हाइवे पर बने गड्ढों को भरने का काम शुरू

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 13, 2018 00:14 am IST
    • Published On जुलाई 12, 2018 23:58 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 13, 2018 00:14 am IST
अब अगर नेशनल हाईवे की मरम्मत भी प्राइम टाइम देखने के बाद होने लगे तो आप सभी को अपने-अपने इलाके की सड़क की रिपोर्ट कहां भेजनी चाहिए, बताने की ज़रूरत नहीं है. हमें कई जगहों से सड़क निर्माण संघर्ष समिति के ईमेल मिले हैं. लोग अपने-अपने इलाके में नई सड़क और टूटी सड़क की मरम्मत के लिए समिति बनाकर संघर्ष कर रहे हैं. उन्हें लगा कि अगर सहरसा-मधेपुरा नेशनल हाईवे 107 की तरह उनके इलाके की सड़क का हाल दिखाया जाए तो सरकार और अधिकारी टीवी का डिबेट छोड़कर कुछ काम भी करने लग जाएंगे. 11 जुलाई की रात को ही एक सज्जन बताने लगे कि छत्तीसगढ़ ते अंबिकापुर से जशपुर के बीच एनएच-43 की हालत भी बहुत खराब है. यहां भी 3 साल से कंपनी काम नहीं कर रही है. अभी हम इस हाईवे के बारे में सारे तथ्य और तस्वीरें जुटाने की सोच ही रहे थे कि शाम को खबर आई कि सहरसा पूर्णिया नेशनल हाईवे 107 के गड्ढों को भरा जाने लगा है.

आपको याद होगा कि बुधवार के प्राइम टाइम में हमने सहरसा से पूर्णिया के बीच नेशनल हाइवे 107 की ये हालत दिखाई थी. तीन साल से वहां के लोग इस सड़क के बनने का इंतज़ार कर रहे थे मगर गड्ढों का विस्तार होता जा रहा था और आम नागरिकों को काफी दिक्कतें आ रही थीं. हमारे सहयोगी कन्हैया ने इस सड़क पर 20 किलोमीटर बाइक चलाकर रिकार्डिंग की ताकि दर्शकों को अंदाज़ा हो सके कि इस हाईवे की किस कदर उपेक्षा की गई है. यहां तक कि पिछले साल अक्टूबर में प्रधानमंत्री ने इसके डबल लेन किए जाने का ऐलान भी किया था मगर उनके ऐलान के आठ महीने बाद भी गड्ढे बनते रहे और होते रहे. प्राइम टाइम में दिखाए जाने के 24 घंटे के भीतर असर हो गया है. कन्हैया ने बताया कि 11 जुलाई की खबर दिखाने के बाद 12 जुलाई की शाम से गड्ढों का भरा जाना शुरू हो गया है. तेरी ये बिंदिया दिल ले गई वाला गाना जेसीबी मशीन के भीतर बज रहा है. आखिर गड्ढा भरने का काम इतना भी नीरस नहीं होना चाहिए. कन्हैया ने बताया कि नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया के निर्देश पर गैमन इंडिया ने इस सड़क को मोटरेबल यानी सुगम्य बनाने के लिए जेसीबी मशीन उतार दी है. गड्ढों को भर कर समतल बनाया जाने लगा है. इन्हें भरने के लिए सड़क निर्माण सामग्री गिराई जाने लगी है. सड़क के किनारे पानी जमा न हो इसके लिए कच्चे नाले भी बनाए जाएंगे. यह काम अभी मधेपुरा के मुरलीगंज से शुरू हुआ है. लगता है परिवहन मंत्री भी प्राइम टाइम देख रहे हैं या कहीं वे न देख लें इसलिए ठेकेदारों ने कम से कम गड्ढे भर कर अपनी जान ही बचाएगी होगी. जो भी है आप सभी दर्शकों को बधाई। इस तरह की ज़रूरी खबरों का दर्शक बने रहना भी पहाड़ जैसा काम है. primetimewithravish@gmail.com पर भेजें. खूब सारी तस्वीरें हों और तस्वीरें खीचने समय आप मोबाइल के कैमरे को कैसे पकड़ें वो भी जान लें.

आप विधायक या सांसद चुनते हैं ताकि वे सदन में आपकी समस्या से संबंधित सवाल उठा सकें और सरकार को जवाब देने के लिए मजबूर कर सकें. हर प्रश्न का जवाब सिस्टम के भीतर जवाबदेही की नई हरकत पैदा करता है, ये वो जवाब होता है जो ज़्यादा विश्वसनीय माना जाता है. हम मानकर चलते रहे कि जो भी प्रश्न पूछे जाते होंगे उनका जवाब विधायकों को मिल जाता है लेकिन राजस्थान पत्रिका की एक खबर से पता चला कि सारे प्रश्नों के जवाब नहीं मिलते हैं. यही नहीं विधायकों के पूछे गए प्रश्नों के जवाब पिछली चार चार विधानसभाओं से लटके पड़े हैं और अब इन प्रश्नों को समाप्त घोषित कर दिया गया है.

राजस्थान पत्रिका के सुनील सिंह सिसोदिया की यह ख़बर मौजूदा और पूर्व विधायकों के लिए सबक है. इस ख़बर के मुताबिक 3000 प्रश्नों को समाप्त घोषित कर दिया गया है जो दसवीं विधानसभा से लेकर 13वीं विधानसभा के दौरान पूछे गए मगर लंबित रहे यानी जिनका जवाब नहीं मिला. प्रश्नों की संख्या सूत्रों के हवाले से लिखी गई है मगर इस खबर में राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष राव राजे सिंह का भी बयान छपा है कि लंबित सवालों का अब औचित्य नहीं है. जिनका जवाब अब कोई नहीं चाहता है. अब उनकी प्रासंगिकता भी भी नहीं है क्योंकि अभी चौदहवीं विधानसभा अस्तित्व में है. क्या यह हैरानी की बात नहीं है कि जिन विभागों या मंत्रालयों से संबंधित प्रश्न पूछे गए उन्होंने विधानसभा को जवाब देना ही उचित नहीं समझा. नियमों के मुताबिक विधायक जब प्रश्न पूछते हैं तो 21 दिनों के भीतर जवाब देना पड़ता है लेकिन यहां तो कई-कई साल तक जवाब देने की ज़रूरत महसूस नहीं की गई. इस दौरन कांग्रेस और बीजेपी की सरकार बारी-बारी से रही है. राज्य में विधानसभा ही सर्वोच्च होती है अगर सरकारी अफसर सदन में पूछे गए सवाल का जवाब दस-दस साल तक नहीं दे रहे हैं तो फिर हमें नौकरशाही से लेकर विधायिका के भीतरी सिस्टम को लेकर नए सिरे से सोचना चाहिए. साथ ही प्रश्नों के प्रकार और जवाब न देने की परिस्थिति का ब्यौरा भी सामने हो तो इसकी समझ और बेहतर हो सकेगी.

चार विधानसभा का कार्यकाल पूरा हो गया और 3000 प्रश्नों के जवाब ही नहीं मिले, यह सामान्य ख़बर तो नहीं है. हो सकता है कि अब इन प्रश्नों की प्रासंगिकता न रही हो मगर यह भी तो हो सकता है कि उनमें से कई प्रश्न आज भी जवाब का इंतज़ार कर रहे हों, कोई सुधार नहीं आया हो.

राजस्थान में तो सदस्य ऑनलाइन प्रश्न पूछते हैं, ऑनलाइन जवाब भी मिल सकता है. हमें नहीं मालूम कि मौजूदा विधानसभा में अभी तक कितने प्रश्न पूछे गए हैं और कितनों के जवाब नहीं मिले हैं. इसका उत्तर होता तो हमारी समझ और बेहतर होती. सदन में प्रश्न पूछने की बकायदा नियमावली बनी होती है. कितने प्रश्न पूछ सकते हैं, कितने दिनों में उन प्रश्नों का जवाब देना ही है.

एक विधायक बजट सत्र में 40 तारांकित और 60 से अधिक अतारांकित प्रश्न पूछ सकता है. यानी एक विधायक एक बजट सत्र में 100 प्रश्न पूछ सकता है. सामान्य सत्र में 10 तारांकित और 20 अतारांकित प्रश्न पूछ सकता है. प्रश्न के लिए कम से कम 14 दिन पहले सचिव को सूचना देनी होती है. तारांकित प्रश्न के जवाब सदन में मौखिक रूप से दिए जाते हैं. अतारांकित प्रश्न के जवाब सदस्य को लिखित रूप से दिए जाते हैं. यदि किसी दिन किसी प्रश्न का उत्तर किसी कारण नहीं दिया जाता है तो इस प्रश्न का उत्तर लिखित रूप से उस दिन की कार्यवाही में प्रकाशित किया जाता है.

एक सदस्य अपने कार्यकाल में कितने प्रश्न करते हैं, क्या विधायक बजट सत्र में 100 के 100 प्रश्न पूछते होंगे, काश इन सबकी जानकारी भी राजनीति के सार्वजनिक बहस का हिस्सा होती तो हम सिस्टम की जवाबदेही को और बेहतर तरीके से समझ पाते. जब तक सारे तथ्य न हों तब तक नहीं कह सकते कि सभी राज्यों में ऐसा है या नहीं. अनुराग द्वारी ने मध्यप्रदेश विधानसभा के प्रमुख सचिव ए पी सिंह से बात की। उन्होंने बताया कि एक घंटे के प्रश्न काल में 25 सवाल रहते हैं. मौखिक रूप से जवाब देने की कोशिश की जाती है, जिसका जवाब नहीं दिया जाता है उसका लिखित जवाब दिया जाता है. अनुराग द्वारी ने हाल ही में एक रिपोर्ट की थी कि मध्य प्रदेश विधानसभा का आखिरी सत्र मात्र पांच दिनों के लिए बुलाया गया मगर सदन दो दिन ही चला वो भी 5 घंटे. क्या आखिरी सत्र लंबा नहीं होना चाहिए जहां सदन के भीतर सरकार के काम और विपक्ष के आरोपों पर जमकर हिसाब किताब होता. यही नहीं मिनटों में 11 हज़ार करोड़ का अनुपूरक बजट पास हो गया. अनुराग का कहना है कि मध्य प्रदेश के संसदीय इतिहास में 14वीं विधानसभा के दौरान सदन की कार्यवाही सबसे कम चली है.

दिल्ली में कूड़ा उठाने को लेकर अगर सुप्रीम कोर्ट को फटकार लगानी पड़े तो इसका मतलब है कि जिसे जो काम करना चाहिए वो अपना काम नहीं कर रहा है. गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर को जमकर फटकार लगाई. अदालत ने कहा कि क्या एलजी ये कह रहे हैं कि वे ही हर मामले के प्रभारी हैं, सुपरमैन हैं लेकिन वे कुछ भी नहीं करेंगे और उन्हें कोई छू भी नहीं सकता है.

सितंबर 2015 की इस घटना और खबर को सब भूल गए होंगे, मगर सुप्रीम कोर्ट की गंभीरता देखिए आज तक इस घटना के संदर्भ में शुरू हुई सुनवाई का दौर चल रहा है. उस वक्त मुकेश सिंह सेंगर की यह खबर थी कि सात साल के अविनाश राउत की डेंगू से मौत हो गई थी. दो-दो अस्पतालों ने अविनाश को भर्ती करने से इनकार कर दिया. अविनाश के मां बाप इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाए. पिता लक्ष्मीचंद और मां बबीता ने दुपट्टे से अपना हाथ बांधा और एक साथ घर की चौथी मंज़िल से कूद कर आत्महत्या कर ली. इस घटना के बाद सुप्रीम कोर्ट ने खुद से संज्ञान लिया और दिल्ली में साफ सफाई और कूड़े के प्रबंधन को लेकर सवाल करना शुरू कर दिया. इस रिपोर्ट का यह भी हिस्सा है कि केंद्र सरकार ने कार्यवाही की बात कही है. दिल्ली सरकार ने प्राइवेट अस्पतालों को नोटिस भेजा है. सरकारें भूल गई होंगी मगर अदालत को आज भी याद है बल्कि अब यह मामला कई सवालों को छूते हुए व्यापक सवालों से जुड़ गया है.

सुप्रीम कोर्ट अपनी सुनवाई के दौरान दिल्ली सरकार और लेफ्टिनेंट गवर्नर से पूछने लगा कि दिल्ली में स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर क्या तैयारी है. इसी बीच सितंबर 2017 में दिल्ली के पास गाज़ीपुर के कूड़े के पहाड़ का एक हिस्सा टूट कर नीचे आ गिरा और दो लोगों को मौत हो गई. इस घटना के बाद सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई में नए सवाल जुड़ गए. अदालत की तरफ से सवाल आया कि केंद्र सरकार सभी राज्यों से पूछ कर हलफनामा फाइल करे कि देश भर में सॉलिड वेस्ट के प्रंबधन की क्या तैयारी है और इसका ज़िम्मेदार कौन है. और यह भी बताए कि गाज़ीपुर के कूड़े के इस ढेर का मालिक कौन है.

सेंटर ने राज्यों से बात कर 850 पन्नों का हलफनामा फाइल किया जिस पर अदालत ने कहा कि यह हलफनामा ही अपने आप में सॉलिड वेस्ट है. सरकार से कहा कि बेहतर तैयारी के साथ दोबारा रिपोर्ट फाइल की जाए. मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि 24 घंटे के भीतर दिल्ली सरकार और एलजी बताएं कि दिल्ली के कूड़े का मालिक कौन है. इसी का जवाब लेकर दोनों हाजिर हुए थे और उस पर बहस चल रही थी. दिल्ली सरकार ने कहा कि इसका प्रबंधन एमसीडी करती है और इसके प्रमुख एलजी हैं क्योंकि अगर एमसीडी काम न करे तो केंद्र एलजी के ज़रिए निर्देश दे सकता है. बहस के दौरान अमिसक क्यूरी ने कहा कि कूड़े के ढेर के प्रबंधन को लेकर कई बैठकें हुईं. जिनमें दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री आए थे और एलजी न तो आए न ही किसी प्रतिनिधि को भेजा. इस पर अदालत की प्रतिक्रिया सख्त हो गई. तब अदालत ने कहा कि एलजी खुद को सुपरमैन समझते हैं. क्या वो यह समझते हैं कि संवैधानिक पद पर होने के बाद कुछ भी नहीं करेंगे. उनके अफसर मीटिंग में नहीं जाते हैं. अदालत ने कहा कि सिंपल अंग्रेजी में बताना है कि कूड़े का पहाड़ कब हटेगा. 16 जुलाई को जस्टिस लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता की बेंच में फिर से सुनवाई होनी है. कोर्ट ने यह भी पूछा है कि दिल्ली के लैंड फिल यानी गाज़ीपुर की तरह जितने भी कूड़े के ढेर हैं वहां कचरा बीनने वालों को पहचान पत्र और यूनिफार्म कब तक दी जाएगी.

यह सब बहस के दौरान की जाने वाली टिप्पणी का हिस्सा है. हमारे सहयोगी आशीष भार्गव ने इसके बारे में जानकारी दी है. आशीष ने बताया कि अमिकस क्यूरी कोलिन गोज़ाल्विस ने गुड़गांव के म्यूनिसिपल कमिश्नर के बारे में ज़िक्र करते हुए कोर्ट को बताया कि गुड़गांव में सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट को लेकर अच्छा काम हो रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने गुड़गांव के निगम आयुक्त को भी 16 जुलाई के दिन पेश होने को कहा है.

हम अक्सर शिकायत करते हैं कि पुलिस काम नहीं करती है लेकिन क्या हम इसकी चिन्ता करते हैं कि हमारे पुलिसकर्मी कितने घंटे काम करते हैं, उन्हें क्यों ज़रूरत से ज्यादा काम करना पड़ता है. बंगलुरू से हमारे सहयोगी निहाल किदवई ने रिपोर्ट फाइल की है कि कर्नाटक में एक साल के भीतर 150 से अधिक पुलिसकमियों की ड्यूटी के दौरान मौत हुई है. जिनमें से ज़्यादातर की मौत हार्ट अटैक, लिवर किडनी फेलियर की वजह से हुई है.

अब कर्नाटक पुलिस मुख्यालय की तरफ से एक सर्कुलर जारी हुआ है कि पुलिसकर्मी अपनी फिटनेस को बेहतर करें, तोंद कम हो और चुस्त दुरुस्त हों. 15 दिनों के भीतर इस तरह के दो सर्कुलर जारी हुए हैं. इसका विश्लेषण करने पर पता चला है कि बसों में काफी देर तक खाने और नाश्ते के साथ बैठे होने के कारण ज़रूरत से अधिक खा लेते हैं, ड्यूटी पर काफी देर तक खड़े रहने से तनाव बढ़ जाता है, कम छुट्टी के कारण खुद को फिट रखने का वक्त नहीं मिलता है. हमारे पुलिस वाले काम के अत्यधिक दबाव में काम करते हैं. अब इनकी फिज़ियोथेरेपी कराने का फैसला किया गया है. समय-समय पर इनकी बॉडी मास इंडेक्स यानी मोटापे की जांच होगी. शराब और गुटखा खाने की आदत छुड़वाई जाएगी. पुलिस क्वार्टस में दाल की दुकान खुलेगी और दाल खाने के लिए जागरूक किया जाएगा. अगर दाल खाने के लिए जागरूक करने की नौबत आ जाए तो समझिए कि वाकई पुलिस वालों के पास दाल के लिए भी वक्त नहीं है. दाल के बारे में पता तो होगा ही मगर दो वक्त खाना और खाने का समय तो मिले.

2013 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर हुई थी जिसमें दावा किया गया था कि देश में कानून व्यवस्था की हालत इसलिए खराब हो रही है क्योंकि पुलिस सेवा में बड़ी संख्या में वैकेंसी है. इस याचिका में दावा किया गया था कि देश भर में करीब साढ़े पांच लाख सिपाहियों की जगह ख़ाली है. भारत के बेरोज़गार इस पर ध्यान दें. इसी की सुनवाई के दौरान 24 अप्रैल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक सरकार ने निर्देश दिया था कि वह रोड मैप बताए कि 24,889 पदों पर सिपाही कब बहाल होंगे. नेहाल किदवई ने बताया कि कर्नाटक में करीब 23 हज़ार पुलिसकर्मियों के पद अब भी खाली हैं. काम का तनाव इतना है कि पिछले एक साल में 9 पुलिसकर्मियों ने आत्महत्या कर ली और छुट्टी न देने पर एक सिपाही ने अपने सब इंसपेक्टर को गोली मार दी. इसलिए तोंद का कारण कुछ और भी है.

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