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This Article is From Jul 13, 2016

घूरते रहते हैं पत्र, आम लोगों की उम्मीदें तोड़ रही व्यवस्था

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 13, 2016 18:15 pm IST
    • Published On जुलाई 13, 2016 18:11 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 13, 2016 18:15 pm IST
मुझे हर दिन कहीं न कहीं से हस्तलिखित पत्र आते रहते हैं। बहुत सुंदर लिखावट होती है। इन पत्रों को पढ़ते हुए कोई शोध कर सकता है कि एक आदमी पत्रकारिता से क्या उम्मीद करता है, पत्रकारिता को लेकर उसकी क्या समझ है और वह दूरदराज़ के इलाकों में अपने लोकतांत्रिक दायित्वों को कैसे निभा रहा है। हाथ से लिखे लंबे-लंबे पत्रों को देखकर ही लगता है कि पसीना बहा होगा। विचार प्रक्रिया दौड़ने लगी होगी। हर पत्र का मकसद अलग होता है। कोई लोकतंत्र और भारत को लेकर लेक्चर दे रहा होता है, कोई बदले की भावना से दस्तावेजों का पुलिंदा भेजता है तो कोई विभागीय राजनीति के बारे में भी चाहता है कि मैं कवर करूं। कोई व्यवस्था की खामियों को उजागर करता है तो कोई जान जोखिम में डालकर जमीन पर चल रहे घोटालों को उजागर करता है। ये सारे पत्रलेखक मेरी जान हैं मगर यही मेरे लिए जानलेवा हो जाते हैं। मैं कई पत्रों के आधार पर स्टोरी कर भी लेता हूं और कई बार सहयोगी उदार हो जाते हैं तो कर भी देते हैं। बहुत बार नहीं भी कर पाता हूं। पत्र बहुत दिनों तक घूरते रहते हैं। इन्हीं पत्रों को छांटकर मैं यहां तक आया हूं इसलिए मुझे बहुत घूरते हैं।

कई पत्र मुझे लिखने से पहले तमाम महापुरुषों को लिखे जा चुके होते हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय को लिखे जाने वाले पत्रों के साथ क्या होता है मुझे उसका अंदाजा होने लगा है। ज्यादातर पत्र संबंधित विभाग में भेज दिए जाते हैं और भेजने वाले को पावती की एक कापी, जिसे लेकर वह घूमता रहता है कि हमने प्रधानमंत्री से भी शिकायत कर दी है, मगर कुछ नहीं हुआ है। यह सही है कि मैं हर पत्र को आवाज नहीं दे पाता। उसके अलग-अलग कारण और पैमाने हैं। वक्त, दूरी और संसाधन भी सामान्य कारणों में से हैं। कई बार विषय मेरी रुचि और समझ के बाहर भी होता है। एक एंकर जब अकेला मीडिया का प्रतिनिधि बनेगा तो लोग उसी को संबोधित करेंगे। इस लिहाज से मैं भी व्यवस्था की खामी का उदाहरण बनता जा रहा हूं। अगर मीडिया में रिपोर्टिंग जिंदा होती, कारगर होती तो किसी को किसी एंकर में उम्मीद नहीं ढूंढनी पड़ती। इसीलिए कहता हूं कि अखबार और टीवी के लिए पैसा देते समय विचार कीजिए। एक ही अखबार को जिंदगी भर मत लीजिए। कभी-कभी बंद भी कीजिए ताकि जनता का दबाव उन्हें महसूस हो।

कई बार ऐसे पत्र भी होते हैं जिनमें स्थानीय मीडिया के कवरेज की नत्थी भी होती है। उन मामलों का नतीजा भी जीरो होता है। हम जिन पत्रों के आधार पर स्टोरी भी कर देते हैं उनका भी कुछ नहीं होता है। इतनी निराशाओं के बोझ को उतारकर अगले दिन फिर से मैदान में आना पड़ता है। इन सब पत्र लेखकों के प्रति अगाध श्रद्धा होती है। कुछ आलसी जमात के लोग भी होते हैं जो सीधा फोन कर देते हैं कि मेरे डिपार्टमेंट का बॉस प्रमोशन नहीं होने दे रहा है। आप आवाज उठाइये। ठीक ठाक लोग तंग कर देते हैं। आखिर में यह बोलकर दिल भारी कर देते हैं कि आपसे उम्मीद है। एक किस्म का इमोशन ब्लैकमेल शुरू हो जाता है। शनिवार हो या रविवार, दिन या रात कभी भी फोन कर उम्मीद की याद दिलाने लगते हैं। मैं उम्मीद की इस बात को नहीं मानता। अगर वाकई मैं ही एकमात्र उम्मीद बचा हूं तो लोगों को इस दुनिया से उम्मीद छोड़ देनी चाहिए। एक आदमी हर किसी की उम्मीद नहीं हो सकता।

सवाल है कि व्यवस्था किस तरह से लोगों की उम्मीद तोड़ रही है। आदमी हताश होकर किसी व्यक्ति से उम्मीद लगा लेता है। गलती उनकी नहीं मगर अपनी कमी पर झुंझलाहट होने लगती है और कई बार सीधे-सीधे मना भी कर देता हूं। लोग अब दूरदराज़ से मीडिया से मांग कर रहे हैं। यह एक सकारात्मक संकेत भी है मगर एक आदमी अगर उस संकेत का प्रतीक बन जाए तो यह अच्छी बात नहीं है। उसके साथ नाइंसाफी है।

कुछ पत्रों की लिखावट इतनी सुंदर होती है कि फेंका नहीं जाता है। उन्हें संभालकर रख लेता हूं। अब सोचता हूं कि वक्त मिलेगा तो इन पत्रों को आपके लिए टाइप करूंगा। आप पढ़ते हुए अंदाजा करें कि व्यवस्था से अपने हक के लिए लोगों को किन मानसिक यातनाओं से गुजरना पड़ता है। मीडिया व्यक्ति के साथ नहीं है, व्यवस्था के साथ है। लोगों के अलग-अलग समूह हैं, जो समय-समय पर व्यवस्था के साथ होते हैं। लोग ही लोग के दुश्मन होते हैं। तरह तरह के ‘वाद’ के आधार पर लोगों की गोलबंदी है। समस्या के आधार पर नहीं है।

सोचता हूं कि जिन चैनलों के एंकर नंबर वन टाइप हैं, क्या उन्हें भी लोग सैंकड़ों की संख्या में पत्र लिखते हैं, उनसे कहते हैं कि आपसे ही आखिरी उम्मीद है। क्या वे लोग उन पत्रों के आधार पर स्टोरी करते होंगे। क्या पता करते भी होंगे मगर मैं किसी को ठीक से जानता नहीं इसलिए अटकलें लगाना उचित नहीं होगा। तो आज एक पत्र को हू ब हू लिख रहा हूं। एक युवक ने लिखा है। मध्यप्रदेश के बैतूल से। मैंने पत्र की सूचना की कोई पुष्टि नहीं की है। बस उसने मुझे लिखा तो मैं आपको भी पढ़ा रहा हूं। बिना उसकी इजाजत के।

आदरणीय रवीश कुमार जी,
नमस्कार,

सबसे पहले आपको बधाई, प्राइम टाइम प्रोग्राम के लिए आपको अवार्ड मिला है, उसके लिए , मेरा पूरा परिवार ही आपका फैन है। आम जनता से जुड़ी हुई समस्याओं को उजागर करना है, प्रशासन का ध्यान उस ओर खींचना मीडिया का प्रमुख कार्य होना चाहिए और उस कार्य को आप बखूबी कर रहे हैं। मैं आपका ध्यान इसी प्रकार की एक जनमानस से जुड़ी समस्या की ओर खींचना चाह रहा हूं और चाहता हूं कि इस समस्या का कोई न कोई समाधान जरूर निकले।

भोपाल और नागपुर रेलवे ट्रैक पर महाराष्ट्र से सटा हुआ जिला है बैतूल। बैतूल एक आदिवासी बाहुल्य जिला है, जहां पर शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए अच्छे शिक्षण संस्थाओं की शुरू से कमी रही है। बड़े प्रयासों के बाद सन 2000 में बैतूल में केंद्रीय विद्यालय की शुरुआत हुई। शुरुआत एक टेम्पररी बिल्डिंग में हुई, परमानेंट बिल्डिंग के लिए काफी मशक्कत के बाद बैतूल गंज एरिया में जमीन आवंटित हुई। लेकिन आज तक उस जमीन पर कार्य प्रारंभ नहीं हो सकता। कारण राजनीतिक व्यावसायिक हित और प्रशासनिक तीनों ही हैं। बैतूल में भूतपूर्व सांसद अब विधायक (बीजेपी) और भूतपूर्व कांग्रेस विधायक दोनों के अपने स्कूल हैं। यदि केंद्रीय विद्यालय पूरी तरह से खुल जाए तो इन्हें लगता है कि इनके स्कूल में प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या कम हो जाएगी। ये जनता के प्रतिनिधि हैं जिन्हें हमेशा जनता के हित की बात करनी चाहिए, वो तो छोड़िये ये लोग विद्यालय के निर्माण में रोज़ नई-नई समस्या खड़ी करवाकर निर्माण कार्य शुरू नहीं होने दे रहे हैं। केंद्रीय विद्यालय ऐसी शिक्षण संस्था जो काफी कम फीस में उच्च गुणवत्ता की शिक्षा प्रदान करता है, केंद्रीय विद्यालय में इस साल 11 वीं और अगले साल 12 वीं खुलना है जिसके लिए लैब्स की आवश्यकता होगी जिस बिल्डिंग में स्कूल चल रहा है वहां यह पासिबल नहीं है।

मैं चाहता हूं आप इस समस्या को जो कि जनसाधारण से जुड़ी है जिसको जनप्रतिनिधियों के द्वारा सुलझाना चाहिए, लेकिन उनके ही द्वारा उलझाया जा रहा है, कवर कर इसके एक-एक पहलू को उजागर करें और प्रशासन को जगाएं। आशा है आप अपने व्यवस्त समय से समय निकालकर इस छोटी लेकिन ज्वलंत समस्या को उजागर कर समस्या के निवारण का एक कारक बनेंगे।

एक बैतूल निवासी।


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