कई साल पहले दिल्ली में अनेक शॉपिंग मॉल तो बन गए, पर उनमें दुकानदारों और ग्राहकों की भारी कमी थी. मॉल के बिल्डरों की शक्तिशाली लॉबी ने राजनेताओं और जजों के बच्चों को अपना पार्टनर बना लिया. उसके बाद अदालती फैसले के नाम पर दिल्ली में सीलिंग का सिलसिला शुरू हो गया. तीर निशाने पर लगा और मॉल्स में दुकानदार और ग्राहक दोनों आ गए. अब वक्त बदल गया है. देश के असंगठित क्षेत्र और छोटे उद्योगों के सामने डिजिटल कंपनियों की पावरफुल लॉबी है. डिजिटल कंपनियों को नोटबंदी और जीएसटी के बाद अभूतपूर्व व्यापारिक विस्तार मिला है. अमेरिका-चीन का व्यापार युद्ध, यूरोप में ब्रेक्जिट संकट, मंदी की सायकिल के साथ क्या डिजिटल अर्थव्यवस्था का अराजक विस्तार भी, आर्थिक मंदी का प्रमुख कारण है? बैंकिंग, व्यापार और उद्योगों में तकनीकी विस्तार को कोई नहीं रोक सकता. लेकिन ऑनलाइन कंपनियों और परम्परागत व्यापार पर नियमों पर समान तौर पर लागू करने की व्यवस्था तो बननी ही चाहिए, जिसके लिए संविधान के अनुच्छेद 14 में प्रावधान भी है.
डिजिटल अर्थव्यवस्था का अराजक विस्तार
मैंने अपनी पुस्तक 'Taxing Internet Giants' में विस्तार से इस पर चर्चा की है. यहां हम अर्थव्यवस्था के बैंकिंग क्षेत्र की चर्चा करते हैं. भारत में परम्परागत और सरकारी बैंकों के लिए अनेक कायदे कानून हैं. जन-धन योजना के बाद बैंकों के ऊपर अनुत्पादक कामों का बोझ और बढ़ा है. कांग्रेस शासनकाल के दौरान राजनीतिक हस्तक्षेप से दिये गये लोनों की वजह से बैंकों में NPA का संकट भी बढ़ा. दूसरी तरफ पेटीएम जैसी डिजिटल पेमेंट कंपनियां नोटबंदी के बाद बैंकिंग सेक्टर की मलाई खाकर रातों-रात बुलंदी पर पहुंच गईं. ऐसी अनेक कंपनियों ने विशाल वित्तीय डाटा को हासिल करके भारतीय अर्थव्यवस्था को अपने कब्जे में ले लिया है. बैंकों के विलय के नये निर्णय से अब कन्फ्यूजन और अराजकता बढ़ेगी, जिसका अंतिम लाभ डिजिटल पेमेंट कंपनियों को ही मिलेगा.
नोटबंदी और कैशलेस से परम्परागत अर्थव्यवस्था ध्वस्त
नोटबंदी के घोषित लक्ष्य जब हासिल नहीं हुए तो कैशलेस अर्थव्यवस्था के एजेंडे को आगे बढ़ा दिया गया. आम चुनावों में चुनाव आयोग द्वारा नकदी की रिकॉर्ड जब्ती और रिजर्व बैंक के आंकड़ों से साफ है कि नोटबंदी के तीन साल बाद देश में नकदी की मात्रा बढ़ गई है. नोटबंदी ने नकदी और बचत पर आधारित भारत की परम्परागत अर्थव्यवस्था या असंगठित क्षेत्र को तबाह कर दिया. कैशलेस की थोपी हुई आयातित अर्थव्यवस्था से संसाधन और रोजगार दोनों नहीं बढ़ पा रहे हैं, जो वर्तमान संकट का प्रमुख कारण है.
जीएसटी से असंगठित क्षेत्र को भारी नुकसान
नोटबंदी के बाद GST ने असंगठित क्षेत्र को भारी नुकसान पहुंचाया. जीएसटी की व्यवस्था लागू होने के बाद डिजिटल और इंटरनेट कंपनियों का तेजी से विस्तार हुआ. राज्यों के साथ रस्साकशी के बीच जीएसटी के अधूरे और जटिल तंत्र की वजह से वित्तीय अराजकता बढ़ गई है. इसकी वजह से छोटे और मध्यम उद्योगों की कमर टूट गई, जहां से सबसे ज्यादा मात्रा में रोजगारों में सृजन होता था.
एफडीआई में मिनिमम गवर्नमेंट और निचले स्तर पर इंस्पेक्टर राज
कांग्रेस हो या भाजपा, सभी के राज में FDI और FPI को सिर माथे बैठाए जाने की परम्परा बन गई है. देश में एफडीआई और विदेशी निवेशकों के लिए मिनिमम गवर्नमेंट और ईज ऑफ डूइंग बिजनेस है, लेकिन निचले स्तर पर अभी भी जटिल कानूनों का तंत्र और इंस्पेक्टर राज है. केन्द्र द्वारा किये गए वित्तीय सुधारों का लाभ अधिकांशतह विदेशी निवेशकों को मिलता है. छोटे व्यापारी और छोटे उद्योग अभी भी राज्यों के जटिल कानून और भ्रष्ट नौकरशाही की गिरफ्त में हैं. इस बेमेल मुकाबले में डिजिटल कंपनियों ने भारत में निर्णायक बढ़त हासिल करके अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठा दिया है.
सरकार के राहत कदमों से रोजगार कैसे पैदा होंगे
देश में 75 फीसदी रोजगार देने वाले चार सेक्टर निर्माण, कृषि, कंसट्रक्शन और रियल एस्टेट में भारी गिरावट के बीच मौजूदा वित्त वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल से जून) में विकासदर घटकर 5 फीसदी रह गई है. बजट के अनेक प्रस्तावों में बदलाव के साथ अब सरकारी बैंकों के विलय की घोषणा की गई है. घाटे को कम करने और बैंकों के माध्यम से अर्थव्यवस्था में पैसा डालने के लिये रिजर्व बैंक से 1.76 लाख करोड़ रुपये की ऐतिहासिक मदद भी ली गई है. इन कदमों से अर्थव्यवस्था को निश्चित तौर पर राहत मिलेगी, लेकिन इससे जरूरी संख्या में रोजगार कैसे पैदा होंगे?
डिजिटल कंपनियों से टैक्स वसूली क्यों नहीं
सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों की बेंच ने डिजिटल कंपनियों के कारोबारी मॉडल पर रोचक टिप्पणी की थी. जस्टिस कौल ने जजमेंट के पैरा 17 में कहा था कि उबर के पास टैक्सी नहीं है, फेसबुक के पास कोई कंटेंट नहीं हैं, अलीबाबा के पास माल नहीं है, इसके बावजूद ये विश्व की सबसे धनी और बड़ी कंपनियां हैं. इनकम टैक्स आदि के टैक्स कानून 20वीं शताब्दी में बने थे, जिन्हें भारत समेत विश्व के सभी देशों में इंटरनेट कंपनियों पर लागू कर पाना मुश्किल हो रहा है. अमेरिका और यूरोप में इन कंपनियों का लाभ पहुंचता है और चीन ने टेक कंपनियों के लिए अपना बाजार बंद कर रखा है. पर 130 करोड़ लोगों की जनसंख्या के साथ भारत टेक कंपनियों के लिए सबसे बड़ा औपनिवैशिक बाजार बन गया है. बहुत सारी कंपनियां जो भारतीय दिखती हैं, उनका स्वामित्व भी चीनी और अमेरिकी कंपनियों के हाथ में है. भारत में इन कंपनियों के मार्केटिंग ऑफिस हैं. परंतु व्यापार कर रही मुख्य कंपनियों पर भारतीय कानून लागू नहीं होते और उनकी 99 फीसदी आमदनी पर कोई टैक्स भी नहीं लगता. डिजिटल कंपनियों के इस अराजक विस्तार से परम्परागत और असंगठित क्षेत्र ध्वस्त हो गया है, जिससे रोजगार का संकट बढ़ा है. डिजिटल कंपनियों की नई आर्थिक व्यवस्था में आमदनी भारत से बाहर जा रही है, जिस वजह से नकदी या तरलता का संकट बढ़ा है. अभूतपूर्व मंदी के इस संकटकाल में डिजिटल कंपनियों पर भारत के कानून और टैक्स व्यवस्था लागू होगी या नहीं? इस सवाल के जवाब और प्रभावी कार्रवाई से ही मंदी की अंधी सुरंग से बाहर निकलने का रास्ता निकलेगा.
विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं...
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