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This Article is From Apr 21, 2016

स्टूडियो में खाली कुर्सियों के पीछे की खतरनाक कहानी...

Sushil Kumar Mohapatra
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 21, 2016 15:50 pm IST
    • Published On अप्रैल 21, 2016 10:28 am IST
    • Last Updated On अप्रैल 21, 2016 15:50 pm IST

कल रात को एक बड़े चैनल पर बहस के दौरान एक खाली कुर्सी देखी और इस खाली कुर्सी को देखते ही इसके पीछे की कहानी समझ आई। सिर्फ मैं नहीं जो लोग न्यूज़ चैनलों पर बहस देखते रहते हैं वह भी खाली कुर्सियों की कहानी के बारे मे जानते हैं।  क्योंकि इंट्रो के बाद एंकर इस खाली कुर्सी की कहानी को खोल देता है। यह खाली कुर्सी  सिर्फ एक चैनल नहीं बल्कि समय के साथ-साथ अलग-अलग चैनलों में दिखाई देती है, ऐसा लगता है की म्यूजिकल चेयर का खेल चल रहा है।  

अगर आप को इन खाली कुर्सियों की कहानी के बारे मे नहीं पता है तो चलिए बता देते हैं। बहस के दौरान किसी भी चैनल पर अगर कुर्सी  खाली रखी गई है तो इसका मतलब  यह है कि किसी न किसी राजनीतिक दल का प्रवक्ता उस बहस में हिस्सा नहीं ले रहा है। हो सकता है वह राजनीतिक दल उस चैनल को बहिष्कार कर रहा है या जिस विषय पर बहस हो रही है उस पर बात करने के लिए तैयार नहीं है।

आजकल न्यूज़ चैनलों का बहिष्कार करना एक ट्रेंड हो गया है। अगर आप के मन-मुताबिक विषय पर बहस नहीं हो रही है तो प्रवक्ता चैनलों में नहीं आते हैं। बहस शुरू होने से पहले कुछ प्रवक्ताओं की यह भी शर्त रहती है कि बहस के दौरान उन्हें ज्यादा से ज्यादा बोलने का मौका दिया जाए। एक पार्टी के प्रवक्ताओं ने  एनडीटीवी इंडिया के बहस में इसीलिए हिस्सा लेना बंद कर दिया है क्योंकि उन्हें लगता है कि शो के दौरान उनके प्रवक्ताओं को ज्यादा बोलने के लिए मौका नहीं दिया जाता।  

ऐसा लगता है कि आजकल एंकरों को चुपचाप बैठना चाहिए सिर्फ प्रवक्ताओं को ही बोलने का मौका दे देना चाहिए और तब-तक बोलने देना चाहिए जब तक वह एक दूसरे से बहस कर थक न जाए। एक बड़े चैनल में यह शुरू भी हो चुका है। आजकल एक शो चल रहा है जिसमें कोई एंकर नहीं होता है बल्कि सिर्फ पार्टियों के प्रवक्ता और एक्सपर्ट बैठे हुए नज़र आते हैं , एक दूसरे से बहस करते है, चिल्लाते हुए, चीखते  हुए नज़र आते हैं लेकिन रोकने के लिए एंकर नहीं होता है क्योंकि ऊपर वाला सब देख रहा होता है। कभी-कभी यह भी डर लगता है कि कहीं इन प्रवक्ताओं के बीच मार-पीट न हो जाए।  

एक और तरीका है, शो की एंकरिंग ही किसी न किसी पार्टी प्रवक्ता से करवा लेनी चाहिए। यह रोस्टर में भी लगा देना चाहिए की कौन सा प्रवक्ता कौन से दिन एंकरिंग करेगा। जिस दिन विषय बीजेपी के मुताबिक हो तो बीजेपी के प्रवक्ता एंकरिंग करेंगे, कांग्रेस के मुताबिक़ हो तो कांग्रेस के प्रवक्ता, फिर आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता। सभी पार्टियों को मौका देना चाहिए।

कुछ दिन पहले हमारे साथी रवीश रंजन शुक्ल के नंबर को एक पार्टी ने व्हाट्स ऐप ग्रुप से इसीलिए हटा दिया क्योंकि प्रेस वार्ता के दौरान उन्होंने उस पार्टी के मंत्री से कुछ कठिन सवाल पूछ लिए थे। अब पार्टियों को यह भी तय कर लेना चाहिए की कौन सा सवाल उनसे  पूछा जाना चाहिए, प्रेस कांफ्रेंस से पहले अलग से एक प्रेस कांफ्रेंस होनी चाहिए जिसमें पत्रकारों को बता दिया जाए की किस-किस सवाल पर नेता जी ज्यादा सहज हैं।

किसी भी चैनलों को बहिष्कार करना समस्या का समाधान नहीं है। कई समय ऐसा भी देखा गया है कुछ प्रवक्ता अनाप-शनाप बक जाते हैं, ज्यादा से ज्यादा प्रवक्ता तैयारी करके नहीं आते हैं, मुद्दे को घुमाने की कोशिश करते हैं, जरूरत पड़ने पर झूठ भी बोल देते है तो क्या तब प्रवक्ताओं  के ऊपर न्यूज़ चैनलों को प्रतिबंध लगा देना चाहिए। मैं मानता हूँ नहीं लगाना चाहिए  लेकिन अगर प्रवक्ता लोग इस तरह न्यूज़ चैनलों पर छोटी-छोटी बातों को लेकर आना बंद कर देंगे तो एक समय ऐसा भी आएगा जब न्यूज़ चैनलों को भी प्रवक्ताओं की जरूरत पड़ना बंद हो जाएगी।

सुशील कुमार महापात्रा एनडीटीवी इंडिया के चीफ गेस्ट कॉर्डिनेटर हैं...


डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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