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This Article is From Feb 22, 2019

पुलवामा हमला : शास्त्रों में शस्त्र की भूमिका देखने का वक्त

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 22, 2019 16:01 pm IST
    • Published On फ़रवरी 22, 2019 15:53 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 22, 2019 16:01 pm IST

पुलवामा हमला हुए आठ दिन हो गए. अब तक नहीं सोच पाए कि क्या करें. हमले के बाद फौरन ही कुछ नया कहना भी जरूरी था. सो राजनीतिक तौर पर सेना को कुछ भी करने की छूट देने का बयान जारी किया गया. सरकार ने कहा कि सेना जो करना चाहे उसे वह करने की अनुमति है. इसके अलावा एक और काम हुआ. सरकार ने पाकिस्तान का सर्वाधिक तरजीही देश का दर्जा खत्म कर दिया. कुलमिलाकर अब ये देखा जाना है कि सेना क्या बड़ा काम करने का सोचती है. रही बात तरजीही दर्जे की तो उसके असर का पता चलने में लंबा वक्त लगेगा.

फिलहाल असर यह है कि पाकिस्तान में टमाटर महंगे हो गए हैं. इसके अलावा देखने को कुछ है तो वह है अपने देश की जनता का बनता या वक्त की मांग के मुताबिक जनता का बनाया जाता रुख. मीडिया के जरिए जनता की तरफ से बुलवाकर माहौल दिखाने या बनाने की कोशिश हमारे सामने है. मीडिया के जरिए जनता का एक ही स्वर गुंजाया गया कि पड़ोसी पर हमला बोल दो, यानी युद्ध. वैसे यह कोई नया सुझाव नहीं है. पिछले एक दशक में जब कभी भी सीमा पर या सीमा के अंदर छद्मयुद्ध में अपने फौजियों की जानें गईं तब कुछ दिनों तक यही यानी युद्ध छेड़ने की आवाज सुनाई देती हैं. हाल के कुछ  अनुभव हैं कि  वक्त गुजरने के साथ ये आवाज  भी गायब हो जाती है. लेकिन इस बात को कौन नकार सकता है कि हाल के दिनों में देश पर आतंकवादी हमलों में कमी नहीं आई और न ही अपने जवानों की जान जाने का सिलसिला थमा. हमारे लिए यही आतंकवाद है और यही ऐसी जटिल समस्या है जो स्थायी बनती जा रही है. और यह ऐसी समस्या है जो सिर्फ हमारी ही नहीं बल्कि दुनिया के बड़े-बड़े दबंग देशों की भी है. उन्हें भी नहीं सूझ रहा है कि क्या करें. विश्वसनीय उपाय नदारद हैं. करने को सिर्फ क्षणिक क्रोध है. और क्रुद्ध होकर युद्ध का तात्कालिक जुनून है.

आतंक के अपराधशास्त्र को देखने का मौका
आतंकवाद को अपराध का सबसे भयावह रूप मान लिया गया है. लेकिन दुनिया में अब तक आतंकवाद पर ही सबसे कम वैज्ञानिक शोध अध्ययन हुए हैं. इसीलिए इससे निपटने के तरीके भी कमोबेश वही हैं जो सामान्य अपराधों से निपटने के लिए पहले से उपलब्ध हैं. अब तक के जो अपराध शास्त्रीय पाठ हमारे सामने हैं उसके मुताबिक अपराध का मुख्य समाधान हम सिर्फ कड़े दंड को ही समझ पाए हैं. इसी दंड को हर  राजनीतिक शासन आजमाता है और नाकाम होकर बार-बार आजमाता है. एक-दूसरे के नफे नुकसान के लिहाज से भी दंड का उपाय सदियों से अपनाया जा रहा है. मसलन पड़ोसी से निपटने के लिए पिछले 70 साल में इसी दंड को वक्त वक्त पर अजमाया गया. बाकायदा युद्ध भी लड़े गए. युद्ध जीतकर भी देखे गए. सबक सिखाने का काम हम दशकों पहले कर चुके हैं. लेकिन समस्या का स्थायी समाधान आज तक नही हो पाया. बल्कि हाल के दिनों में यह समस्या और विकट और ज्यादा बड़ी होती दिखी है. इसीलिए समस्या के समाधान के एक प्रचलित उपाय यानी दंड के अपराधशास्त्र पर नजर डाल लेने में हर्ज नहीं है. क्या पता कुछ समाधान निकल आए.

दंड के पांच मकसद
पहला है प्रतिशोध, यानी अपराधियों से बदला यानी इंतकाम. हो सकता है कि इसी मकसद से जनता क्रुद्ध होकर युद्ध की बात कर रही हो या यह बात जनता से करवाई जा रही हो.

दंड का दूसरा मकसद प्रतिरोध है. यानी ऐसा दंड देना कि अपराधी दोबारा अपराध न करे. साथ ही किसी अपराधी को दंड देकर दूसरों को भी डराना कि वे अपराध करने की ज़ुर्रत न करें. लेकिन आतंकवाद की मौजूदा शक्ल में उग्रवादी अपनी जान को हथेली पर रखकर अपना काम करने लगे हैं. ऐसे में प्रतिरोध के लिए मौत की सजा पहली नजर में ही नाकाफी साबित हो जाती है.

किताबों में दंड का तीसरा मकसद प्रायश्चित है.अपराधी को समाज से दूर रखकर, जेल में, एकांत में रखकर यह उम्मीद लगाई जाती है कि अपराधी प्रायश्चित का मौका पाएगा. खैर यह आध्यात्मिक प्रकार का मकसद है और अभी पता नहीं किया जा सका कि आतंकवाद जैसे मामले में कितना कारगर हो सकता है. चौथा उपाय है सुधार. भारतीय दंड प्रणाली ऐलानिया तौर पर दंडोपचारात्मक है. दंड को ऐसी प्रणाली मानती है कि अपराधी रोगी होता है. उसका उपचार संभव है. लेकिन देखने की बात यह है कि जब हम साधारण प्रकार के अपराधियों के सुधार के काम में ही कोई खास कामयाबी हासिल नहीं कर पा रहे हैं तो आतंकवाद के मामले में तो दूर की बात है.

पांचवा मकसद सुधरे हुए अपराधी के पुनर्वास का होता है. यानी अपराधी को सुधारकर समाज में फिर से आवासित कराना. लेकिन कई कारणों से जहां सुधार ही लगभग नाकाम है वहां पुनर्वास की बात फिजूल ही है.

एक अकेला दंड ही क्यों?
चाहे सत्ता पाने की समस्या हो या सत्ता में आकर शासन करने में आने वाली समस्याएं हों या फिर आपराधिक न्याय प्रणाली का सुशासन हो उनके लिए हमारे पास अपना पारंपरिक भारतीय ज्ञान उपलब्ध है. इस ज्ञान को साम, दाम, दंड और भेद के नाम से जाना जाता है. क्या यह ज्ञान आतंकवाद से निपटने में काम आ सकता है? इस भारतीय ज्ञान के मुताबिक दंड या युद्ध सिर्फ एक तरीका है. समस्या के समाधान के बाकी बचे तीन तरीके यानी साम, दाम और भेद नाम के तरीके भी हैं. हो सकता है कि दाम और भेद के तरीके चुपके-चुपके इस्तेमाल होते हों. लेकिन आतंकवाद के मामले में इन तरीकों के इस्तेमाल होने के लक्षण  दिखाई बिल्कुल नहीं देते. खास तौर पर भेद लेना यानी जासूसी करना और प्रतिद्वंद्वियों या दुश्मनों में भेद पैदा करना. मसलन  पुलवामा  मामले में खुफियागिरी के काम पर सवाल उठे हैं. और सेना की गतिविधि में गोपनीयता बरतने में भी आजकल चूक होने लगी है. हो सकता है सबक लेकर इस मामले में आगे से कुछ मुस्तैदी बढ़ जाए. लेकिन एक तरीका जरूर बचा रह गया है. वह है साम का. साम यानी साम्य का तरीका. अपने हित में सामने वाले को पुटयाने-मनाने का तरीका. लेकिन अपने देश का ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया का राजनीतिक मिजाज इस समय द्वंद्व और खूनखच्चर के पक्ष में बनता या बनाया जाता दिख रहा है. यह कोई बहुत बड़ी बात भी नहीं है. किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में ऐसा होना स्वाभाविक सी बात है. लेकिन जहां कई कारणों से क्रोध और संताप चरम पर पहुंचाया जा रहा हो वहां साम का उपाय सुझाने का खतरा कोई भी मोल नहीं ले सकता. इसीलिए साम का उपाय हाल फिलहाल बिल्कुल ही फिजूल का माना जाना चाहिए.

तो फिर और क्या तरीका
हम ज्ञान विज्ञान के युग में हैं. इतने पटु हो गए हैं कि अपनी समस्या के समाधान के लिए वैज्ञानिक ढंग से सोचकर नया तरीका खोज लाते हैं. जटिल समस्या का समाधान तलाशने के मकसद से ऐसे सोच-विचार के लिए आधुनिक प्रबंधन प्रौद्योगिकी के पास ब्रेन स्टॉर्मिंग यानी बुद्धि उत्तेजक विमर्श का उपाय आ गया है. उद्योग व्यापार, आपराधिक न्याय प्रणाली और जटिलतम सामाजिक समस्याओं के समाधान के उपाय तलाशने में ऐसे विशेषज्ञ आयोजन बहुत कारगर साबित हो रहे हैं. लेकिन यह हैरत की ही बात कही जाएगी कि आतंकवाद जैसी जटिल समस्या के समाधान के लिए खुलकर ऐसे आयोजन किसी देश में होते नहीं दिखते. बीसवीं सदी में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद तो सभ्य विश्व ने संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना भी कर ली थी. जटिल समस्या के उपाय सोचने के लिए उससे बेहतर और कौन सा मंच होगा. एनडीटीवी के इसी स्तंभ में एक विशेषज्ञ आलेख प्रासंगिक है जो 25 सितंबर 2016  का है. यह उड़ी हमले के बाद लिखा गया था.

युद्ध के विरूद्ध, जंग के कुछ ढके छुपे चेहरे

 

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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