सार्क की बैठक में भारत की तरफ से गृहमंत्री राजनाथ सिंह का पाकिस्तान जाना एक तरह से मजबूरी ही था. मजबूरी की हालत में क्या-क्या नहीं करना या सहना पड़ता है, इसे बताने की ज़्यादा ज़रूरत नहीं है, लेकिन राजनाथ सिंह के इस एक दिन के दौरे में एक साथ इतनी मजबूरियां उजागर हो गईं कि आगे से और भी ज़्यादा फूंक-फूंककर कदम रखने की ज़रूरत पड़ेगी. खैर, यह तो बाद की बात है, लेकिन यही दौरा देखें तो राजनाथ सिंह की इस पाकिस्तान यात्रा से एक साथ कई मजबूरियों का उजागर हो जाना सोच-विचार की मांग कर रहा है.
मजबूरी मीडिया की...
गृहमंत्री सार्क की बैठक में जा रहे थे, यह बात ज़्यादा बड़ी नहीं थी. खास बात यह थी कि बैठक का मेज़बान पाकिस्तान था. ज़ाहिर है, शिष्टाचार और न्यूनतम नयाचार, यानी प्रोटोकॉल के तहत कुछ बिन्दु पहले से सोचकर रखे जा सकते थे. उसके बाद ही कम से कम अपने देश के मीडिया को बताकर रखा जा सकता था कि इस बार सार्क सम्मेलन में भारत क्या कहने जाएगा, लेकिन यह नहीं हो पाया. मीडिया को भनक तक नहीं लगी, अटकल तक नहीं लगाई जा सकी. लगभग शून्य सूचना के माहौल में मीडिया के पास एक ही विकल्प था, वह पाकिस्तान के साथ अपने दोतरफा संबंधों की औपचारिक बातों को ही दोहराता रहे.
कहने को कुछ भी न बचने की मजबूरी...
सभी मानेंगे कि पिछले दो साल में पाकिस्तान से अपने संबंधों को लेकर अनिश्चय और संदेह का माहौल बना है. पाकिस्तान से संबंध सुधारने की नई-नई कोशिशें बुरी तरह फेल हुई हैं. इस चक्कर में हमने नयाचार की भाषा में जो कहा और दिखाने के लिए जो किया, वह सब कुछ कहा और करके देख लिया गया है. पिछले लोकसभा चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान जितने कड़े कदमों का आश्वासन या वादे दोहराए जा सकते थे, वे भी खूब प्रचारित हो चुके हैं. यानी इस समय स्थिति यह है कि हमारे पास सीधे पाकिस्तान को संबोधित करने के लिए एक-दो कारगर वाक्यों को बनाने का भी टोटा पड़ गया है.
अंतरराष्ट्रीय जगत को नया क्या बताते...?
पिछले दो साल से अपने अंतर्विरोधी हावभावों के बीच हम अंतरराष्ट्रीय जगत को लगभग हर बात दोहरा चुके हैं. दो साल क्या, 69 साल में भी कितनी ही बार वही कह और कर चुके हैं. कहने और करने की अपनी सीमाओं को भी जान चुके हैं. कोई भी कह सकता है हमें कोई नया उपाय चाहिए, जो फिलहाल हमें पता नहीं है. ऐसी हालत में या तो परिस्थितियां बनने का इंतज़ार किया जाता है या विद्वानों को नया सोचने के लिए बिठाया जाता है, लेकिन मसला इस किस्म का बन चुका है कि यह काम हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नहीं कर सकते. इस तरह यह मामला फिलहाल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ भी कहने या करने के दायरे के बाहर ही समझा जाना चाहिए.
सार्क में क्या नया कहते...?
पहली बात तो यह है कि सार्क की अपनी हैसियत ही क्या बची है. हां, अपनी व्यथा कहने का मंच यह ज़रूर रह गया है. ऐसे मंचों और उससे भी बड़े मंचों की इस समय भरमार है. यानी ऐसी जगहों को औपचारिकता से ज़्यादा नहीं माना जा सकता. राजनाथ सिंह ने वहां जो कुछ कहा, उससे ज़्यादा की उम्मीद करना भी ठीक नहीं होगा. और यह बात हम ऊपर कह ही आए हैं कि अब तक जो कहा और किया गया है, वह अधिकतम रौद्र और अधिकतम अपनापे के उपायों से भरपूर रहा है. यानी कहने और करने की स्थिति तो दूर की बात है, फिलहाल हालत यह है कि नया सोचना कहां से शुरू करें.
अपने देश में क्या करते नई बात...?
इस बात पर गौर करने के लिए पहली बात तो वही है कि पिछले दो साल में इस मुद्दे पर मौके-बेमौके लगभग सब कुछ कहा जा चुका है. मौके पर भले ही कम कहा गया हो, पर बेमौके तो इतना ज़्यादा कहा जा चुका है कि सार्क जैसे मौकों पर पाकिस्तान जाकर कहने की कोई धार ही नहीं बची है. हां, कुछ देर के लिए कौतूहल बनाए रखने की कवायद की जा जकती थी. अगर राजनाथ सिंह के औपचारिक बयान को ही सुनने के लिए 18 घंटे का इंतज़ार करना पड़ा हो, तो इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है. रही बात राजनाथ सिंह के वहां भोजन करने या नहीं करने की या राजनाथ सिंह का भाषण पाकिस्तान के मीडिया में फौरन जारी करने या नहीं करने की, तो इन बातों का क्या इतना महत्व हो सकता है कि इसे लेकर इतना रहस्य या रोमांच बनाया जाए. कुल मिलाकर पूरी बात एक वाक्य में इस तरह भी कही जा सकती है कि पाकिस्तान से संबंधों को लेकर हम एक नए वाक्य की रचना करने की स्थिति में भी नहीं हैं.
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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This Article is From Aug 05, 2016
पाकिस्तान को लेकर हिन्दुस्तान 'अबूझ' की हालत में आ गया क्या...?
Sudhir Jain
- ब्लॉग,
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Updated:अगस्त 05, 2016 14:32 pm IST
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Published On अगस्त 05, 2016 13:18 pm IST
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Last Updated On अगस्त 05, 2016 14:32 pm IST
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