दलितों ने भारत बंद की अपील की थी. सरकार को लग रहा होगा कि एक प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शन के बाद आंदोलन खत्म हो जाएगा. लेकिन ये तो पूरे देश में सनसनीखेज ढंग से उठ पड़ा. पहली बार हुआ है कि सरकार इसकी गंभीरता का पहले से अनुमान करने में नाकाम रही. मीडिया भी आंदोलन की पूर्वसंध्या तक कोई खबर निकाल कर नहीं ला पाया कि यह आंदोलन कितने बड़े पैमाने पर होने जा रहा है. सुबह से ही देशभर में जगह जगह दलितों की भारी भीड़ जमा होने लगी. बहरहाल सोमवार को दोपहर होते होते देश के आधे से ज्यादा प्रदेशों में पुलिस को प्रदर्शनकारियों पर लाठियां बरसानी पड़ीं. प्रदेश सरकारों ने कोशिश की कि डरा धमका कर प्रदर्शनकारियों को वापस घर भेज दिया जाए. लेकिन उप्र, राजस्थान, मप्र, हरियाणा, पंजाब, बिहार, झारखंड जैसे कई प्रदेशों में ये प्रदर्शनकारी भयभीत होने के बजाए उत्तेजित हो गए. इन प्रदर्शनकारियों से निपटने के लिए सरकारों की पुलिस के अलावा दूसरे सत्ता समर्थक समूहों की तरफ से जोर लगाने की भी कोशिश जरूर हुई होगी. आमतौर पर वैसी हालत में ही ऐसी विस्फोटक स्थिति बनती है. बहरहाल विरोध के प्रतिरोध की ये बातें इतनी जल्दी बाहर निकल कर नहीं आ पातीं. बहरहाल इसका पता बाद में ही चलेगा. लेकिन केंद्र की सरकार में जो दलित नेता हिस्सेदार हैं उनके चेहरे की हवाइयां उड़ी हुई हैं. उनकी बेचारगी देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजनीतिक तौर पर इस आंदोलन ने सरकार के लिए कितना बड़ा संकट खड़ा कर दिया है.
अंदेशे का अंदाजा नहीं लगा पाई सरकार
दलितों का यह प्रदर्शन अपनी तरह का पहला आंदोलन है. यह वही तबका है जिसे आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तौर पर सबसे कमजोर समझा जाता है. राष्ट्रीय स्तर पर अपनी रहनुमाई के लिए यह तबका अपना कोई एक नेता नहीं बना पाया. चुनावी राजनीति में दलित जनाधार की भागीदारी के लिए स्थानीय स्तर पर ही इन्हें संगठित करने की कोशिशें हो पाई हैं. इसीलिए दलितों का नेतृत्व भी छितरा हुआ पाया जाता है. किसी भी सरकार के निश्चिंत रहने रहने के लिए इतना काफी है कि सामुदायिक स्तर पर देश के सबसे बड़े तबके यानी दलितों के पास अपना कोई एक नेता नहीं है. शायद इसीलिए अनुमान नहीं लग पाया कि इनका विरोध प्रदर्शन देश के स्तर पर इतना बड़ा रूप ले लेगा. और जब अंदाजा ही नहीं था तो आंदोलन से निपटने की तैयारियों की बात तो किसी के दिमाग में आने का सवाल ही नहीं था.
क्या सिर्फ एससी एसटी एक्ट ही था कारण
बेशक एससी एसटी एक्ट में बदलाव ही इस आंदोलन का फौरी तौर पर सबसे बड़ा कारण दिख रहा है. लेकिन क्या इतने बड़े आंदोलन के पीछे यह एक अकेला कारण हो सकता है? दलितों पर अत्याचार रोकने के लिए कानून में नरमी की बात अभी शुरू ही हुई थी. और वह भी सिर्फ कानूनी उपाय से. फौरन ही इसका प्रतिकार राजनीतिक तौर पर हो सकता था. इससे दलित थोड़ी देर के लिए निशि्ंचत हो जाते। लेकिन मौजूदा सरकार की तरफ से यह तत्परता दिखाने में देर हो गई. इस देरी ने दलितों की दुविधा बिल्कुल ही खत्म कर दी होगी और वे सड़कों पर उतर पड़े. लेकिन बात इतनी ही नहीं है. कुछ समय से हिंदू पर्वों और तीज त्योहारों पर राजनीतिक मिजाज के हिंदू कार्यकर्ता जिस तरह से अपनी दबंगई बढ़ाते जा रहे थे उससे भी दलित समाज का भयभीत होना स्वाभाविक ही था. मसलन देश में इस बार रामनवमी को कुछ ज्यादा ही जोशीले अंदाज में मनाया जाना अल्पसंख्यकों के अलावा दलितों के भय का भी सबब बना होगा. दलितों में हीनता का बोध बनाए रखने के लिए उन पर अत्याचार की वारदात होते रहना दलितों को विरोध जताने के लिए मजबूर करती ही रहती होंगी. इसी बीच दलित एक्ट में बदलाव की बात उठ गई. सरकार की तरफ से पुनर्विचार की याचिका में देरी लगाऐ जाने ने पिछले तमाम कारणों के साथ मिलकर इतने प्रचंड आंदोलन का बानक बना दिया.
आंदोलन हिंसक हाने का प्रचार कब शुरू हुआ
भारत बंद के दिन दोपहर तक मीडिया में कई प्रदेशों के बीसियों शहरों कस्बों में दलितों की अपूर्व भीड़ के दृश्य दिखाए जा रहे थे. इतनी भीड़ की कल्पना उन प्रदेशों की पुलिस ने की नहीं थी. इस समय ज्यादातर प्रदेशों में केंद्र में सत्तारूढ दल भाजपा का ही शासन है. यह समझने में किसी को अड़चन नहीं आनी चाहिए कि उन राज्यों के प्रशासन के सामने पहला लक्ष्य यही बना कि भीड़ को तितर बितर कैसे किया जाए और सरकार विरोधी इस भारत बंद किसी तरह बंद कराया जाए. सो एक घंटे के भीतर ही पुलिस की लाठियों के दृश्य आने लगे. कई जगह पुलिस ने फायरिंग की. बीच में एक दो जगह रिवाल्वर के लहराने की घटनाएं दिखाई जाने लगीं. उसके बाद तो जगह जगह बसों कारों को फूंकने और रेल की पटरियों पर टायर जलाने की घटनाएं होने लगीं. और फिर मीडिया में ये खबरें चलने लगी कि आंदोलनकारी हिंसक हो उठे हैं. कौन नहीं जानता कि किसी प्रदर्शन या आंदोलन को दबाने के लिए उसके हिंसक हो जाने या हिंसक होने के अंदेशे का तर्क जरूरी होता है. वही हुआ. मप्र के कई शहरों से पांच मौतों और देश भर में प्रदर्शन के दौरान नौ लोगों के मारे जाने की सूचना आई. कौन लोग मारे गए? ये अभी साफ नहीं. जब साफ होगा तब आंदोलन से निपटने के और पहलू सामने आएंगे. लेकिन कुलमिलाकर आंदोलन को हिंसक बताने के लिए इतना काफी था. शाम के बाद मीडिया चैनलों पर बहसें चालू हुईं. ज्यादातर सत्ता समर्थक चैनलों की बहसों में आंदोलन के हिंसक होने की आलोचनाएं होने लगीं. यह बात गायब ही हो गई कि इस दलित आंदोलन का अपना मकसद क्या था और कितनी तादाद में दलित सड़कों पर निकल कर आए.
सरकार पर कितना भारी पड़ा यह भारत बंद
यह पहला मौका है कि सरकार के खिलाफ यह आंदोलन सामुदायिक रूप से आयोजित हुआ. उससे भी बड़ी बात ये कि किसी सर्वस्वीकृत नेतृत्व के बगैर आयोजित हुआ. ऐसा कभी नहीं होता कि जब कोई आंदोलन या प्रदर्शन हो रहा हो तो उस दौरन उनके नेताओं से मीडिया बात न करे. लेकिन किसी आंदोलन में यह पहली नज़र आया कि सैकड़ों जगहों पर सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे जनसमूह में उनके अगुआ कार्यकर्ताओं से मीडिया ने ज्यादा बात नहीं की. हां टीवी चैनल के स्टूडियों में सरकार और विपक्ष के नेताओं से बहसें जरूर करवाई गईं. लेकिन ये बहसें तो रोज ही होती रहती हैं और जिनमें आरोप प्रत्यारोप के कर्कश शोर के अलावा कुछ नहीं सुनाई देता.
दलितों को कितना हासिल हुआ इस बंद से
अलग अलग प्रदेशों में कोई दो सौ से ज्यादा शहरों कस्बों में दलितों के भारी भरकम हुजूम ने यह साबित कर दिया है कि दलित समाज में भीतर तक आक्रोश है. इस आंदोलन के जरिए देश के इस सबसे बड़े तबके में यह संदेश पहली बार गया है कि वे सामाजिक स्तर पर संगठित हो सकते हैं. भले ही भारतबंद के दिन दलित नेता नेतृत्व करते हुए न दिखाई दिए हों लेकिन इन नेताओं को पता चल गया होगा कि बेकाबू हुए बगैर दलितों में अपने आप भी सड़क पर निकल आने का हौसला है. यानी इस आंदोलन के हासिल का अंदाजा लगाएं तो यह कहा जा सकता है कि अब आगे कभी भी धरना, प्रदर्शन या एकजुटता दिखाने की कोई अपील होगी तो उसके असरदार होने में कोई संशय नहीं बचा. यानी अपने छितरे छितरे नेतृत्व को एक साथ लाने के लिए दलित समुदाय ने अपने स्तर पर पहल करके दिखा दी है.
This Article is From Apr 03, 2018
देशभर में दलितों का उठ पड़ना
Sudhir Jain
- ब्लॉग,
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Updated:अप्रैल 03, 2018 12:32 pm IST
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Published On अप्रैल 03, 2018 12:31 pm IST
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Last Updated On अप्रैल 03, 2018 12:32 pm IST
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