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This Article is From Feb 18, 2020

पुरुष-प्रधान, पिछड़ी सोच का परिचायक है अरविंद केजरीवाल का बासी कैबिनेट

Ashutosh
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 18, 2020 14:52 pm IST
    • Published On फ़रवरी 18, 2020 14:52 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 18, 2020 14:52 pm IST

अरविंद केजरीवाल को अपनी आलोचना किया जाना पसंद नहीं है. उन्हें सामना करने वालों से चिढ़ है. वह जाने-पहचाने दोस्तों के बीच सहज माहौल में ही खुश रहते हैं. वह ऐसे नेता हैं, तो निजी ज़िन्दगी में ज़मीन से बेहद जुड़ा हुआ है, लेकिन विरोधी विचार सामने आने पर बेहद ज़िद्दी भी हो सकता है. कभी-कभी वह ऐसा कोई विकल्प चुनने या फैसला करने में आगे नहीं आते, जिससे पार्टी का आंतरिक सत्ता संतुलन प्रभावित होता हो. उनके नए कैबिनेट का चुना जाना या 'नहीं चुना जाना' उनकी शख्सियत का खासियतें बताने के लिए पर्याप्त है. यह बासी मंत्रिमंडल है, जिसमें नया टैलेन्ट नहीं है, दूरदृष्टि का अभाव है, और यह काम नहीं करने को आगे बढ़ाता है.

भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने दिल्ली में प्रचार में जान लगा दी थी. वह अपनी वोट हिस्सेदारी छह फीसदी बढ़ाने में कामयाब रही. बेशक उनका प्रचार अभियान बेहद अनैतिक और नकारात्मक था, लेकिन वोट शेयर में बढ़ोतरी इस तथ्य का संकेत है कि अभियान का असर पड़ा. आम आदमी पार्टी (AAP) के लिए राह बेहद मुश्किल हो गई होती, अगर सवर्ण जातियों के 18 से 25 वर्ष आयुवर्ग वाले युवाओं तथा महिलाओं ने बड़ी तादाद में AAP को वोट नहीं दिया होता. CSDS द्वारा किए गए चुनाव-बाद सर्वेक्षण के अनुसार, इस आयुवर्ग के 59 प्रतिशत युवाओं ने AAP को वोट दिया, जबकि सिर्फ 33 फीसदी ने BJP को चुना.

यह बार-बार कहा जाता रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वर्ष 2014 से ही नए मतदाताओं की पसंद रहे हैं, और युवाओं के लिए सबसे बड़े आदर्श (यूथ आइकॉन) हैं. मोदी ने लोकसभा चुनाव 2014 में युवाओं को प्रभावित किया था, और 2019 में भी. उन्होंने विशेष रूप से पहली बार मतदाता बनने वालों पर ध्यान दिया. नई पीढ़ी के मतदाताओं में अरविंद केजरीवाल भी लोकप्रिय हैं. लेकिन इस बार के चुनाव में अगर 59 फीसदी मतदाताओं ने AAP को चुना, या मोदी के मुकाबले केजरीवाल को तरजीह दी, तो इससे दो संदेश स्पष्ट हैं - 1. मोदी का जादू अपना चुम्बकत्व खो रहा है... 2. बेरोज़गारी बहुत बड़ा मुद्दा है, और युवा, विशेषकर सवर्ण युवा, मई, 2019 से लागू किए जा रहे हिन्दू एजेंडे से खास प्रभावित नहीं है.

यह रिक्त स्थान बहुत बड़ा है. केजरीवाल के पास पार्टी में पर्याप्त काबिल युवा हैं. उन्हें अपने कैबिनेट में इन्हीं में से किसी युवा नेता को स्थान देना चाहिए था, और यकीन कीजिए, पार्टी में कई हैं. राघव चड्ढा बढ़िया पसंद हो सकते थे. वह युवा हैं, भद्र हैं, सधी हुई बात करते हैं और तेज़ दिमाग भी हैं. वह काफी कम उम्र में पार्टी प्रवक्ता बन गए थे, और उन्हें पार्टी के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी भी सौंपी गई थी. अतीत में वह दिल्ली सरकार का बजट तैयार करने में भी मदद कर चुके हैं, सो, मुझे इस बात का कोई कारण नज़र नहीं आता कि वह मंत्री के रूप में बढ़िया काम नहीं कर सकते. उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल किए जाने से युवा मतदाता निश्चित रूप से उत्साहित महसूस करते.

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महिलाओं ने भी बड़ी तादाद में AAP के लिए नोट किया. CSDS चुनाव-बाद सर्वेक्षण के मुताबिक, 60 प्रतिशत महिलाओं ने AAP को वोट दिया, जबकि BJP को सिर्फ 35 फीसदी महिलाओं ने चुना. इसके विपरीत, पुरुष मतदाता AAP और BJP के बीच लगभग बराबर बंटे हुए दिखे. एक्सिस माई इंडिया एक्ज़िट पोल से भी इस ट्रेंड की पुष्टि होती है. इसके मुताबिक, यदि 53 फीसदी पुरुषों ने AAP को चुना, तो 59 फीसदी महिलाओं ने AAP को तरजीह दी. इस आंकड़े से स्पष्ट है कि महिला मतदाताओं पर केजरीवाल और AAP का विशेष प्रभाव है.

इस सच्चाई से कोई इंकार नहीं कर सकता कि अरविंद केजरीवाल ने सार्वजनिक परिवहन की बसों में मुफ्त सफर देकर महिला मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की. कामकाजी, निम्न-मध्यम वर्गीय महिलाओं के लिए यह काफी राहत देने वाला फैसला था. अब वे अधिक बचत कर सकती हैं. यह एक तरह से गरीब और निम्न-मध्यम वर्गीय महिलाओं को आज़ादी देने वाला फैसला रहा, जो इससे पहले पैसे की किल्लत के चलते घरों से बाहर नहीं जा पाती थीं. ये महिलाएं अपने परिवारों के पुरुष सदस्यों पर निर्भर करती थीं, लेकिन अब वे बस पकड़कर जहां चाहें, जा सकती हैं. उनके लिए अपने रिश्तेदारों और मित्रों से बार-बार जाकर मिलना अब आसान हो गया है. इस फैसले की बदौलत महिलाओं ने आज़ाद महसूस किया.

लेकिन मुझे बेहद हैरानी हुई, अरविंज केजरीवाल के कैबिनेट में कोई महिला चेहरा नहीं है. सभी मंत्री पुरुष हैं. यह दिल्ली की आधी आबादी के साथ कतई नाइंसाफी है, जिन्होंने AAP की जीत में महती योगदान दिया. मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं हूं कि AAP के पास कोई काबिल महिला नहीं थी, जिसे कैबिनेट में शामिल किया जा सके. आतिशी मार्लेना बेहतरीन पसंद हो सकती थीं. वह रोड्स स्कॉलर हैं और मनीष सिसोदिया के साथ मिलकर दिल्ली के स्कूलों की तस्वीरे बदलने में शामिल रही हैं. उन्हें किसी भी मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार देकर पुरस्कृत किया जाना चाहिए था.

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मंत्रिमंडल में सभी पुरुषों को रखना न सिर्फ अनैतिक है, बल्कि लोकतंत्र के भी खिलाफ है. महिलाओं के लिए फैसले पुरुषों को क्यों लेने चाहिए...? सरकार के फैसले लेने की प्रक्रिया पर पुरुषों का विचार क्यों हावी रहना चाहिए...? कम से कम, महिलाओं और बच्चों से जुड़े मुद्दों में तो महिलाओं की सोच की ज़रूरत होती ही है. AAP द्वारा कैबिनेट में महिलाओं को शामिल नहीं करने से गलत संदेश जाता है - कि वे काबिल नहीं हैं, कि वे टैलेन्टेड नहीं हैं, कि वे वोट कर सकती हैं, लेकिन शासन नहीं कर सकतीं. इससे कुछ ही साल पहले बनी पार्टी के पुरुष-प्रधान चरित्र का भी पता चलता है. याद रखने लायक बात है कि अपने दूसरे कार्यकाल (2015-2019) में भी AAP के कैबिनेट में कोई महिला चेहरा नहीं था. पहला कार्यकाल अपवाद रहा था, जिसमें राखी बिड़लान को मंत्रिपद दिया गया था.

AAP को भले ही केंद्र की 'नई सरकार' की साम्प्रदायिक राजनीति के मुकाबले 'धर्मनिरपेक्ष प्राचीर' माना जा रहा हो, लेकिन AAP का मूल अब उतना प्रगतिशील नहीं रहा, जितना होने की आशा उससे की जा रही थी. पिछले कुछ सालों में उसके मू्ल्यों का ह्रास हुआ है. अस्तित्व बचाए रखने के लिए AAP अतीत में लौट गई है.

आशुतोष दिल्ली में बसे लेखक व पत्रकार हैं...

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