12 जुलाई को दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में समारोह था। मौका था रियो ओलिंपिक के लिए भारतीय हॉकी टीम की घोषणा का। आजकल का ट्रेंड है कि सोशल मीडिया में हम हर बात की जानकारी देते हैं। समारोह के बाद तमाम लोग फोटो या अपनी प्रतिक्रिया सोशल मीडिया के जरिए दे रहे थे। उसी दौरान हॉकी इंडिया के अध्यक्ष नरिंदर बत्रा ने भी कुछ तस्वीरें डालीं। इन पर आने वाली टिप्पणियों में एक ऐसी थी, जो ध्यान खींचने वाली थी। शूटर अभिनव बिंद्रा ने टिप्पणी की थी। बिंद्रा ने उन्हें तमाम अन्य लोगों की तरह शानदार फंक्शन के लिए शुक्रिया कहते हुए शुभकामनाएं दी थीं। इसमें शायद किसी को कुछ अजीब न लगे। लेकिन जितने लोग खेल से जुड़े हैं, उनके लिए कुछ अजीब है। अभिनव बिंद्रा... ओलिंपिक से महज 23-24 दिन पहले सोशल मीडिया पर! ये वो अभिनव तो नहीं, जिन्हें हम खेल पत्रकार पिछले करीब दो दशक से जानते हैं।
कैसा रहा है अभिनव का अंदाज
सोशल शब्द ही अभिनव बिंद्रा के शब्दकोश में नहीं रहा है। बीजिंग ओलिंपिक में स्वर्ण जीतने के बाद उनके चेहरे पर बर्फीला ठंडापन हर किसी को याद होगा। राष्ट्रगान बज रहा था, तो वह लम्हा देख रहे हर भारतीय की आंखें नम थीं, लेकिन अभिनव की नहीं। उनके चेहरे और आंखों में सिर्फ खामोशी थी, बर्फीली ठंड थी। इतने साल से उनके करीबियों और दूर से उनके खेल पर नजर रखने वालों ने उन्हें ऐसा ही पाया है। गोल्ड जीतने के बाद उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। उन्होंने खुद कहा कि एक खालीपन था। अब तक की जिंदगी जिस लम्हे के लिए जी थी, वो मिल गया। अब क्या? खेल पत्रकार दिग्विजय सिंह देव की किताब 'माइ ओलिंपिक जर्नी' में शूटर मनशेर सिंह ने कहा है कि ओलिंपिक गोल्ड के बाद अभिनव जल्दी से जल्दी उस हॉल से निकल जाना चाहते थे। उन्होंने टैक्सी की और पीछे के दरवाजे से अभिनव और मनशेर ओलिंपिक विलेज के लिए रवाना हो गए। पीछे के दरवाजे से इसलिए, ताकि किसी को पता न चले। लंदन में उनका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा था। वहां भी उनके चेहरे पर वही भाव थे, जो गोल्ड जीतने के बाद बीजिंग में थे। जैसा मैंने पहले कहा, हम इसी अभिनव को जानते हैं।
इस बार तैयारियों का तरीका अलग
हम खेल पत्रकारों को अभिनव बिंद्रा के जीतने पर एक डर हमेशा रहता था। यही कि जीतने के बाद इंटरव्यू के लिए उन्हें तैयार करना पड़ेगा.. और फिर एक-एक लाइन में जवाब खत्म हो जाएंगे। अभिनव की शख्सियत ऐसी ही रही है और उनकी तैयारी का तरीका भी ऐसा रहा है, जहां वो खुद को दुनिया से अलग कर लेते हैं। शूटिंग रेंज, कोच और खुद अभिनव। यही दुनिया है। बेहद कम लोग हैं, जो तैयारियों के बीच अभिनव से बात कर सकें। ऐसे में ओलिंपिक से चंद रोज पहले वह लगातार सोशल मीडिया पर हैं। उन्होंने ओलिंपिक में कई खेलों के अपने साथियों को चिट्ठियां लिखी हैं। उन्हें प्रोत्साहित किया है। उन्हें जब लगा कि किसी को मदद की जरूरत है, तो खुद आगे बढ़कर बात की। उन्होंने जितने इंटरव्यू कुछ दिनों में दिए हैं, उतने शायद पूरे करियर में नहीं दिए होंगे। लोगों को अपने घर में बने शूटिंग रेंज में जाने की इजाजत दी। इस रेंज को वह मंदिर की तरह मानते हैं। यहां लोगों को जाने की इजाजत नहीं है। इन सब बातों से किसी को यह अंदेशा हो सकता है कि शायद फोकस्ड नहीं हैं, लेकिन जितने लोग अभिनव को जानते हैं, उन्हें पता है कि वह मेडल के दावेदार हैं। वह भी गोल्ड मेडल के। शूटिंग ऐसा खेल है, जिसमें किसी भी तरह की भविष्यवाणी नहीं हो सकती, लेकिन अभिनव का प्रैक्टिस में स्कोर उनकी गंभीर दावेदारी साबित करता है।
क्या कामयाबी का सिर्फ एक तरीका है
सवाल यही है कि क्या कामयाब होने के लिए उसी तरह का अभिनव बिंद्रा होना जरूरी है, जैसे वह बीजिंग से पहले थे? दुनिया से अलग, सिर्फ और सिर्फ अभ्यास पर ध्यान। किसी को अपने ‘जोन’ में आने की इजाजत नहीं। इस बार, जब वह अलग तरीके से अभ्यास कर रहे हैं, तो क्या उसका फर्क दिखाई देगा? फोकस्ड खिलाड़ियों की बात करने के लिए सचिन तेंदुलकर से बेहतर उदाहरण क्या हो सकता है। 2011 का वर्ल्ड कप याद है। भारत में हुआ था और भारत ने जीता था। हर मैच से पहले जितने भी प्रैक्टिस सेशन होते थे, उसमें सचिन तेंदुलकर को बाहर निकालना असंभव जैसा होता था। मुझे याद है नागपुर और चेन्नई की घटनाएं, जब टीम बस में सभी खिलाड़ी बैठकर सचिन का इंतजार कर रहे थे, लेकिन सचिन नेट्स से बाहर आने को तैयार नहीं थे। नेट्स में अलग-अलग तरह की पिच होती हैं। सचिन फास्ट से लेकर स्पिनर्स की मददगार और वापस फास्ट पिच पर अभ्यास कर रहे थे। कप्तान महेंद्र सिंह धोनी चेन्नई में बस के दरवाजे पर खड़े होकर चुपचाप मुस्कुरा रहे थे। उन्हें पता था कि कुछ नहीं कर सकते। सचिन को अभ्यास के दौरान टोकना या रोकना संभव ही नहीं था।
अलग-अलग तरीकों से मिली है कामयाबी
2011 से आठ साल पहले 2003 में वर्ल्ड कप दक्षिण अफ्रीका में हुआ था। उस पूरे वर्ल्ड कप में सचिन ने बमुश्किल नेट्स में अभ्यास किया था। वह नेट्स से दूर रहने की कोशिश करते थे, लेकिन ड्रेसिंग रूम में एक बार टॉस होने के बाद सचिन किसी और ‘जोन’ में चले जाते थे, जहां उनसे बात नहीं की जा सकती थी। अपने दोनों ही तरीके में वह कामयाब रहे। आपको याद होगा बल्लेबाजी में एक तरह से अकेले दम पर उन्होंने टीम को फाइनल में पहुंचाया था। दोनों ही वर्ल्ड कप में उनका बल्लेबाजी औसत पचास से ज्यादा था। 2003 में तो 60 से भी ज्यादा। वीवीएस लक्ष्मण ने भी तैयारी के लिए अलग-अलग तरीके आजमाए। कभी रिलैक्स दिखने वाले और कभी बेहद गहन दिखने वाले। क्रिकेट में ही उदाहरण देखे जाएं, तो वीरेंद्र सहवाग का भी है, जिनके रवैये से नहीं लगता कि वह बहुत कोशिश कर रहे हैं। वो मस्त रहते हैं, गाने गाते हैं। लेकिन तैयारियों में कोई कमी नहीं होती। उन्होंने दिखाया है सिर्फ गंभीरता से ही तैयारी नहीं की जा सकती। कामयाबी के लिए मस्त रहना किसी भी तरह की बाधा नहीं है।
जिन चार शूटरों ने अभी तक ओलिंपिक में पदक जीता है, उन सभी की तैयारी का अंदाज अलग रहा है। राज्यवर्धन राठौड़, गगन नारंग और विजय कुमार का तरीका अभिनव बिंद्रा जैसा नहीं रहा है, लेकिन वह भी सफल रहे हैं। अब तो अभिनव बिंद्रा का ही तरीका पुराने समय के अभिनव जैसा नहीं है। वह बता चुके हैं कि रियो उनका आखिरी ओलिंपिक है। शायद वह अब जिंदगी को शूटिंग रेंज से अलग देखने लगे हैं, जिसे वह पहले नहीं देखते थे, लेकिन उनके बदले नजरिए में अभ्यास को लेकर तरीका भी बदला है। उनका नया रूप दिखाई दिया है। रियो में गेम ऑफिशियल के लिए इस ‘नए’ बिंद्रा से बात करना आसान होगा। पत्रकारों के लिए उनसे बात करना आसान होगा। ...और इस बार शायद पदक जीतने के बाद उन्हें ढूंढने की जरूरत न पड़े, जैसा बीजिंग में हुआ। टैक्सी लेकर वह पीछे के दरवाजे से नहीं जाएंगे, बल्कि मुस्कराते हुए पदक गले में लटकाए दिखाई देंगे।
(शैलेश चतुर्वेदी वरिष्ठ खेल पत्रकार और स्तंभकार है)
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This Article is From Jul 14, 2016
क्या कहता है बिंद्रा के अभ्यास का ‘अभिनव’ तरीका...
Shailesh Chaturvedi
- ब्लॉग,
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Updated:जुलाई 14, 2016 18:33 pm IST
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Published On जुलाई 14, 2016 18:33 pm IST
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Last Updated On जुलाई 14, 2016 18:33 pm IST
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