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This Article is From May 18, 2015

संजय किशोर की कश्मीर डायरी-4 : आतंकवाद और आबिद की वो खामोशी

Sanjay Kishore
  • Blogs,
  • Updated:
    मई 18, 2015 16:02 pm IST
    • Published On मई 18, 2015 13:38 pm IST
    • Last Updated On मई 18, 2015 16:02 pm IST
श्रीनगर की सड़कें टूटी हुई थीं। आबिद ने बताया कि पिछली बाढ़ में सड़कें टूट गई थीं। तब से मरम्मत नहीं हुई है। पहले दिन की यात्रा के आखिर में हम पहुंचे हज़रतबल दरगाह। ये डल लेक के पश्चिम में है। डल लेक में इसका प्रतिबिंब बेहद खूबसूरत लगता है। यहां पैगंबर मोहम्मद साहब का बाल रखा गया है। खास मौक़ों पर श्रद्धालुओं के दर्शन के लिए इसे बाहर लाया जाता है।

"क्या हम अंदर जा सकते हैं?" मैंने आबिद से पूछा।
"क्यों नहीं" आबिद ने कहा।

कार से उतरते ही भिखारियों ने हमें घेर लिया। बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ा हम अंदर गए। गेट पर बताया गया कि यहां कोई टिकट नहीं लगता। हम रूमाल से सिर ढकने लगे तो वहां लोगों ने बताया कि टोपियां अंदर मिल जाएंगी। महिलाओं को सामने से जाने की मनाही थी। जूते उतार कर हम अंदर गए। वहां कुछ देर आंखें मूंद कर बैठे। दिल में अजीब-सा डर था, लेकिन वहां बैठने से सुकून मिला।

"अच्छा नहीं लगा?" हर जगह की तरह आबिद ने बाहर निकलते ही पूछा।
"क्यों नहीं। अच्छा था। शांति थी।"

मैं बच्चों को बताने लगा कि यहां कभी आतंकवादी घुस आए थे। अक्टूबर 1993 में भारतीय सेना ने हज़रतबल को घेर लिया था। यहां 65 आतंकवादी छिपे हुए थे। 32 दिनों तक हज़रतबल संकट बना रहा। बाद में पीवी नरसिंह राव की सरकार ने सेना के विरोध के बावजूद आतंकवादियों को "सेफ पैसेज" दे दिया। मुझे लगा कि "आतंकवादी" शब्द सुनकर आबिद के जेहन में कुछ चलने लगा था। शायद उसे अच्छा नहीं लगा, लेकिन वह खामोश रहा। बिल्कुल खामोश। उसकी खमोशी कुछ कह रही थी।

शाम हो चुकी थी। हम सब थक कर चूर हो चुके थे। भूख भी ज़बरदस्त लगी हुई था। आबिद ने हमें एक पकौड़े वाले के पास ड्रॉप किया जो डल के पास ही था। उसने बता दिया था कि हमारा हाउस बोट घाट नंबर 5 के सामने है।

चाय पी और पकौड़े पैक कराके हम गेट नंबर 5 पहुंचे। अपने हाउस बोट वाले मक़बूल को फोन करते उसके पहले एक शिकारे वाला आ गया। उसे मालूम था कि हम किस हाउस बोट में ठहरे हैं। पहले लगा कि वो पैसे मांगेगा, लेकिन उसने पैसे नहीं लिए।

हमारे रूम में टीवी नहीं चल रहा था तो बच्चों ने शोर मचाना शुरू कर दिया। मक़बूल ने हमें बगल वाला रूम दे दिया। वहां जतन कर उसने जर्जर टीवी चला दिया, लेकिन एक मुसीबत और थी। सोनी सिक्स पर आईपीएल का मैच आ तो रहा था लेकिन आवाज़ किसी दूसरे चैनल की। मक़बूल इसे ठीक नहीं कर पाया। आज कल के बच्चे घूमने से ज़्यादा टीवी देखना पसंद करते हैं। खैर हाउसबोट पर चाय और पकौड़े का मज़ा ही अलग था।

हाउस बोट की रात की रोशनी में डल की जगमगाहट बेहद दिलकश होती है। जी चाहता था कि हाउसबोट की बालकनी में बैठे डल की खूबसूरती के निहारते रहें, लेकिन आप यहां भी शांति से नहीं बैठ सकते। अचानक एक फेरीवाला बालकनी में दाखिल होता है और अपने चीजें फ़ैला कर हमें बेचने की कोशिश करता है। लेकिन आबिद ने हमें पहले ही ताकीद कर दी थी कि ये नाव वालों के जानने वाले ही होते हैं। कुछ खरीदना नहीं।

उसके जाने के बाद एक नाव पर नॉन वेज़ बेचने वाला आ जाता है। हाउसबोट वाले के परिवार के लोग उससे कुछ खरीद रहे थे। हाउस बोट के कर्मचारी वहीं पीछे रहते हैं। हमारा भी मन बन रहा था कि उससे कुछ खरीदें। तभी उसने झट से कटोरी डल के पानी में ही धो ली। आबिद ने हमें बताया था कि बोट का ड्रेनेज डल में ही जाता है। चाय में मक्खी देखकर निगलने वाली बात थी। किसी तरह नॉन वेज़ को टाला। हालांकि अच्छी बात ये थी कि झील से कोई दुर्गंध नहीं आ रही थी और एक भी मच्छर हमें नज़र नहीं आया।

एक नाव हमारी बालकनी की तरफ बढ़ती आई। इस बार फ़ोटोग्राफर थे, जो हमें वहां की परंपरागत पोशाक में फ़ोटो खिंचवाने के लिए दबाव बना रहे थे। काफ़ी मुश्किल से इनसे भी पीछा छूटा। हमने अपने हाउस बोट की किचन का निरीक्षण किया तो लगा नहीं कि खाना बनाने के लिए कुछ खास सामान पड़ा है। मक़ूबल ने कहा कि खाना बन भी सकता है या फिर वो ला देगा। लेकिन मौसम इतना खुशगवार था कि हमारी थकावट अब तक दूर हो चुकी थी। मक़बूल ने हमें नाव से उस पार पहुंचा दिया। उसने हमें शामयाना रेस्टोरेंट में जाने के सलाह दी। उसने कहा कि वहां बड़े-बड़े मिनिस्टर भी आते हैं। आबिद ने हमें कहीं और खाने को बताया था। शामयाना रेस्टोरेंट डल के पास ही था। हमें शामयाना ही पसंद आया। अंबियंस अच्छा था। साथ वाले टेबल पर एक युवा जोड़ा था। लड़का यूरोपियन और लड़की एशियन जान पड़ती थी। दोनों थोड़े परेशान लग रहे थे। लड़की रिस्पेशन पर जाकर लैंड लाइन से किसी से बात कर रही थी। तब तक वहां खड़ा वेटर ने तंग कपड़ों में परेशान लड़की को ऊपर से नीचे तक आंखों से एक्सरे करने में मशगूल था। इसीलिए किसी ने कह रखा है कि जैसा देश वैसा भेष होना चाहिए।

फ़ोन पर बात करने के बाद लड़की सामान्य हुई। ऑर्डर देने के पहले दोनों वेटर से तंदूरी चिकन और अफगानी चिकन में अंतर जानना चाह रहे थे। जीरा राइस के बारे में पूछा। वेटर धाराप्रवाह इंग्लिश में उन्हें समझाने में लगा हुआ था। दोनों ने ढेर सारा खाना ऑर्डर कर दिया। अब गलती से किया या इतना सब कुछ खाना की क्षमता थी ये नहीं जान पाया क्योंकि उनके पहले हमारा खाना खत्म हो चुका था। खाना बेहद लजीज था और दिल्ली के मुक़ाबले काफ़ी कम बिल आया।

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