(कश्मीर से लौट कर) : मिनी स्विटजरलैंड कहे जाने वाले बैसरन से लौटने का जी नहीं कर रहा था। सब कुछ सपने जैसा लग रहा था। ख़्वाब, खामोशी और खूबसूरती को समझना है, तो यहां आना ज़रूरी है। फेरी वाले की आवाज़ से मंत्रमुग्धता भंग हुई। वे हाथ से बुनी शॉल बेच रहे थे। दो शॉल वाले अड़ गए।
"खरीदना मत, देख तो लो।" ना-ना करते वे अपनी गठरी खोल चुके थे।
"हम कारीगरों की कोई वैल्यू नहीं है। यही शॉल दुकानों में जाकर दोगुनी दामों पर खरीदोगे।"
"हमारे पास पश्मीना भी है। सोनिया गांधी और नीता अंबानी के पास भी है"
उसने पश्मीना भी दिखाया। असली लग रहा था। 10 हजार कीमत बतायी।
"ये तो हमारे बजट में है ही नहीं।" हमने टालने के मकसद से कहा।
लेकिन आखिर में वो हमें एक शॉल बेचने में कामयाब हो ही गया। बाजार से आधी कीमत पर।
उनके जाने के बाद भेड़ का बच्चा लेकर एक युवक आ गया। ज़ोर देने लगा कि भेड़ को गोद में उठाकर फ़ोटो खिंचवा लो। गड़ेड़ियों के गांव पहलगांव में भेड़ के साथ फ़ोटो खिंचवाना बनता था। मुझे लगा कि भेड़ काफ़ी वज़नदार होगा लेकिन ऐसा नहीं था। बिल्कुल हल्का था भेड़ का वो बच्चा। करीब दो घंटे बिताने के बाद हम लौटे।
पोनी वाले इंतज़ार कर रहे थे। एक बार फिर पोनी की खतरनाक सवारी करनी थी। चढ़ाई के समय पोनी पर आपको अपना शरीर आगे, तो नीचे आते वक्त पीछे झुकाना पड़ता है, ताकि बैलेंस बराबर बना रहा। फिर डर लगने लगा। कई बार लगा कि पोनी भड़भड़ा कर खाई से फ़िसलते नीचे न चला जाए। उम्रदराज़ और छोटे-छोटे बच्चों भी यहां पोनी की सवारी कर रहे थे। इन्हें देखकर हौसला बढ़ाने की कोशिश पर भी डर हावी हो जाता। इस बार मेरा पोनी नहीं माना। रोकते-रोकते भी वो झड़ने के पास चला ही गया। पानी पीने के बाद ही माना। एकबारगी लगा कि पानी में ही न गिरा दे कमबख्त। खैर ढ़लान खत्म हुआ। जान में जान आयी। पोनी सीधे अपने स्टैंड में जाकर ही रुके। इन्हें अपने रास्तों की गजब की पहचान है।
पहलगांव से लौटते समय आबिद हमें हाइवे की बजाए कस्बे वाले रास्ते से ला रहा था।
मैंने पूछा, "इस बार रास्ता क्यों बदल दिया?"
"शाम होने लगी है। बंद का असर अब कम हो गया है। अब इधर भी खतरा नहीं होगा।" आबिद ने कहा।
"तुमने हमें कहा था कि शॉल की शॉपिंग कराओगे लेकिन इधर तो कपड़ों की दुकान नज़र नहीं आती? हमें फैक्टरी में जाकर ये भी देखना था कि कश्मीरी कारपेट बनते कैसे हैं। "
"श्रीनगर में कल ये सब दिखाऊंगा।"
"और बैट खरीदने हैं उसका क्या?"
"वो तो अभी खरीदवा देता हूं।"
बच्चे सुबह से ही क्रिकेट बैट के लिए दबाव बनाए हुए थे। क्रिकेट बैट के लिए भी कश्मीर मशहूर है। श्रीनगर और पहलगांव के रास्ते में बैट बनाने के अनगिनत कारखाने हैं। पूरे रास्ते सड़क किनारे बैट बनाए जाने लिए काटे गए लकड़ियों का ढेर लगा था। बैट की शेप में काटी गयी लकड़ियां सूखने के लिए रखी गयी थीं। कश्मीरी विलो मुलायम लेकिन मजबूत होते हैं। इस कारण यहां के बैट की क्वालिटी उम्दा होती हैं। जालंधर का बैट उद्योग ज़्यादा संगठित माना जाता है। कश्मीर में बैट उद्योग असंगठित है। यहां से ज़्यादातर बैट के लिए कच्चा माल सप्लाई किया जाता है। परवेज रसूल पर यहां के लोगों को बड़ा नाज़ है। भारतीय टीम की ओर से खेलने वाले कश्मीर के पहले क्रिकेटर रसूल दक्षिण कश्मीर के बिज बेहरा से आते हैं। बिज बेहरा अनंतनाग जिले में है। वैसे तो सुरेश रैना भी कश्मीरी हैं, लेकिन उनका परिवार ग़ाजियाबाद में बस चुका है।
आबिद ने एक दुकान पर टवेरा रोकी। वहां हर तरह के बैट मौज़ूद थे। हर कंपनी के लोगो/स्टीकर के साथ। दिल्ली से आधी कीमत पर दोनों बच्चों ने एक-एक बैट खरीदा। बच्चों का तो माने कश्मीर आना सफल हो गया। उनके लिए ये सबसे बड़ा तोहफ़ा था। आप प्लेन में आसानी से बैट ला सकते हैं। (जारी है)
This Article is From May 27, 2015
संजय किशोर की कश्मीर डायरी-11 : परवेज़ रसूल, बैट और मिनी स्विटजरलैंड में सोनिया और नीता
Sanjay Kishore
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Updated:मई 27, 2015 18:15 pm IST
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Published On मई 27, 2015 17:10 pm IST
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Last Updated On मई 27, 2015 18:15 pm IST
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