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This Article is From May 15, 2020

मरी हुई संवेदना और अटैची की क़ीमत

Sanjay Kishore
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 16, 2020 23:12 pm IST
    • Published On मई 15, 2020 23:42 pm IST
    • Last Updated On मई 16, 2020 23:12 pm IST

नोएडा के सेक्टर 93 की एक पॉश सोसाइटी, नाम छोड़िए. कामयाब लोग रहते हैं. ब्रांडेड कपड़ों से लेकर लक्ज़री कार में संपन्नता झलकती है. बिल्डर ने साल 2006 में पहला पॉज़ेशन दिया. तब से डीएस तिवारी यहां अखबार बांट रहे हैं. हालांकि शुरुआत में पैर ज़माने के लिए उन्हें काफी मशक़्क़त करनी पड़ी. स्थानीय लोगों से उनकी ‘बिज़नेस राइवेलरी' थी. सोसायटी के लोगों ने उज्जड़ लोकल हॉकर की बजाए, जेंटलमैन तिवारी को पसंद किया. ये अक्खड़पन ही था जिसके कारण लोगों ने सस्ते केबल को छोड़ महंगा डिश लगा लिया. कारोबार में हेकड़ी नहीं चलती. जिसने ग्राहक को भगवान नहीं माना, उसका व्यापार ज़्यादा फल-फूल नहीं सकता. समय के साथ ग्राहक बढ़े तो तिवारी ने अखबार बांटने के लिए लड़के रख लिए. सब कुछ ठीक चल रहा था.

16 मई 2009 की सुबह थी. हर रोज़ की तरह डीएस तिवारी अखबार बांटने के लिए निकले ही थे कि किसी गाड़ी ने उन्हें टक्कर मार दी. कुछ लोग उन्हें पास के यथार्थ अस्पताल ले गए. तब वो अस्पताल बहुत छोटा था. भंगेल गांव के एक छोटे से मकान में चलता था. वहां के डॉक्टर ने ये कहते हुए हाथ खड़े कर दिए कि मरीज़ दो-तीन मिनट का मेहमान है. तब तक कुछ रिश्तेदार भी पहुंच चुके थे. उस ज़माने में कैलाश शहर का सबसे बड़ा अस्पताल था. वहां भी एडमिट करने से मना कर दिया. टाइम्स ऑफ़ इंडिया के एक पत्रकार ने कैलाश हॉस्पिटल के मालिक डॉक्टर महेश शर्मा से अनुरोध कर उनको दाखिल कराया. महेश शर्मा सक्रिय राजनीति में नहीं आए थे. लेकिन महत्वाकांक्षा अंगड़ाई लेने लगी थी. यहां आने के पहले साल 2006 तक हम सेक्टर 51 के केंद्रीय विहार में रहते थे. मृदुभाषी और शालीन डॉक्टर महेश शर्मा अक्सर वहां समारोहों में आया करते थे. वैसे डॉ शर्मा शुरू से ही पत्रकारों से गर्मजोशी से मिलते थे. एक दफे मेरी पत्नी की तबीयत खराब हुई तो किसी दोस्त ने डॉक्टर शर्मा का नंबर दिया और सीधे उनसे बात करने के लिए कहा. मैं थोड़ा हिचकिचा रहा था. मगर एक रिंग में ही डॉक्टर शर्मा ने खुद फोन उठा लिया. अस्पताल पहुंचने पर हमें सीधे अपने चेंबर में बुलाया और खुद देखा. फ़ी भी नहीं ली और नीचे तक छोड़ने आए. आज भी कॉल बैक जरूर करते हैं. मेरे अपने विचार से उनकी भलमनसाहत ने ही उन्हें देश के मंत्री पद तक पहुंचाया और भलमनसाहत के कारण ही उन्हें हटना भी पड़ा. ये मेरा व्यक्तिगत आकलन है.

बहरहाल, डीएस तिवारी मौत के क़रीब जाकर लौटे. चौदह दिनों में तो अस्पताल से छुट्टी मिल गयी लेकिन पैरों पर खड़े होने में वर्षों लग गए. याददास्त भी लौटने में वक़्त लगा. टाइम्स ऑफ़ इंडिया के पत्रकार ने उनकी काफी मदद की.

वहीं डीएस तिवारी आज बेहद परेशान और निराश नज़र आए. लॉकडाउन के पचास से भी ज़्यादा दिन हो चुके हैं. सोसाइटी रेड ज़ोन में है और प्रशासन ने सील कर रखी है. तिवारी एक बार फिर मुसीबत में हैं. लोग पैसे नहीं दे रहे हैं. कुछ कहते हैं-“हम तो अखबार उठा ही नहीं रहे. पैसे किस बात के?”

इन लोगों ने एक कॉल करके अखबार बंद कराने की ज़हमत तक नहीं उठाई. उल्टे पेपर वाले को कह रहे हैं कि उसे फोन करना चाहिए था! मतलब वो अपने हज़ारों ग्राहक को एक-एक कर फोन कर पूछता फिरे कि अखबार बंद करना है कि डालते रहना है जी!

लॉकडाउन में अखबार वाले को होम डिलीवरी की इजाज़त नहीं है. तिवारी गेट के पास अखबार रख जाता. हैरानी की बात है कि लोग दो घंटों में ही अखबार उठा ले जाते. उनमें से ज़्यादा वही चेहरे होते हैं जो कहते रहते हैं- “ना जी, हम तो अखबार घर नहीं ले जाते. इससे तो कोरोना वायरस घर पहुंच जाएगा.”

हाथों में में दो-दो, तीन-तीन अखबार लेकर लोग खिसक ले रहे थे. जो ये नहीं मानते कि अखबार से कोरोना फैल सकता है उन्हें अखबार मिलता ही नहीं. शुक्र है कि अब हर टावर के नीचे अखबार डालने की अनुमति मिली है. ग्राहकों को उनकी कॉपी मिल रही है. वैसे अखबार बंद कर चुके कुछ नामुराद सुबह सबसे पहले वहीं आकर अखबार पढ़ जा रहे हैं. सीसीटीवी कैमरे की इज़्ज़त रखते हुए अखबार लेकर फुर्र नहीं हो रहे हैं.

सवाल है कि क्या हम सौ-डेढ़ सौ रुपये भी किसी को नहीं दे सकते? सौ रुपए तो लोग एक दिन में सिगरेट के कश में उड़ा देते हैं. पान की पीक से शहर की दीवार रंगने में ख़र्च कर देते हैं. चाय की चुस्कियों के बाद पैसे देने के लिए दोस्तों से “मैं दूँगा” करने लगते हैं, खासकर जब महिला सहकर्मी साथ हो तो.

डीएस तिवारी पास की चार सोसायटी में अखबार डालते हैं. बाक़ी जगह उन्हें इतनी परेशानी नहीं आ रही है. यहां 52 हज़ार के क़रीब बिलिंग थी. लॉकडाउन में आधे पैसे भी नहीं आ रहे हैं. सोचिए कि मेड, धोबी और कार क्लीनर को कितने लोग पैसे दे रहे होंगे!

“अरे उनको कोई परेशानी नहीं है. सबको मुफ़्त में खिचड़ी मिल रही है.”  ये सोच भी है.

सोशल मीडिया पर ग़रीब मज़दूर की फ़ोटो पर SAD Emoji डालेंगे. व्हाट्सऐप की बहस में थेथरलॉजी करते रहेंगे लेकिन जरूरतमंदों के लिए अपनी अंटी से 100 रुपया नहीं निकालेंगे.

अब तो समाज की संवेदनशीलता भी मरने लगी है. एक मित्र दावा करता हैं कि भूख से कोई मज़दूर नहीं मरा. वो इस बात को समझ नहीं पा रहा कि मज़दूर क्यों गांव जाने पर अमादा हैं. जबकि मैंने, उसने और तमाम स्कूली दोस्तों ने बचपन में अभाव को नज़दीक से देखा है.

घर लौटते कामगारों की तस्वीरें दिल दहला देने वाली हैं. ऐसी ही एक तस्वीर इंदौर के महू की है. एक मज़दूर जहां बैलगाड़ी में बैल बनकर उसे खींचे जा रहा है. इस बैलगाड़ी में एक तरफ बैल है तो दूसरी तरफ इंसान. कॉलेज के अपने ग्रुप में बैलगाड़ी खींचते मज़दूर का फ़ोटो क्या डाला सब काट खाने को दौड़े.

“मतलब सरकार कुछ नहीं कर रही!”

एक ने विपक्ष शासित राज्यों के नाम गिनाते हुए कटाक्ष किया. कहा-“बस ये सरकारें ही तो काम कर रही हैं!”

आपने भी वो वीडियो या तस्वीर देखी होगी. कैसे एक मां तपती धूप में गर्म सड़क पर ट्रॉली खींचती चली जा रही है और भूख-प्यास से थक कर उसका बेटा उसी ट्रॉली पर लटका हुआ है. पत्थर दिल भी इस ह्रदय विदारक दृश्य को देखकर पिघल जाए. मगर मेरे एक मित्र को सोते हुए बच्चे और उसकी बेहाल मां का दर्द नज़र नहीं आया. कहता है-वैसे परिस्थिति इनकी क्या है ये तो पता नहीं मगर इनका ट्रॉली बैग जरूर 6 से 8 हजार का होगा.

संजय किशोर NDTV इंडिया में डिप्टी एडिटर हैं...

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