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This Article is From Aug 16, 2016

खेल के मैदान पर परचम लहराए बिना भारत नहीं बन पाएगा सुपरपॉवर

Sanjay Kishore
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 16, 2016 11:52 am IST
    • Published On अगस्त 16, 2016 10:42 am IST
    • Last Updated On अगस्त 16, 2016 11:52 am IST
खचाखच भरे स्टेडियम में राष्ट्र का ध्वज आपके राष्ट्रगान के साथ-साथ आसमान की ओर उठ रहा होता है... राष्ट्रगान पूरा होता है और शुरू हो जाती है तालियों की गड़गड़ाहाट... टेलीविजन सेटों पर देखते हुए करोड़ों आंखें नम हुए जा रही हैं... आम से लेकर खास तक, हर हृदय गर्व से चौड़ा हो रहा है... विजय मंच पर सबसे ऊंचे पायदान पर एथलीट खड़ा है और देश का झंडा दूसरों से ऊंचा जाकर थमता है... तब लहराता है दुनिया पर देश का परचम... यह क्षण होता है दुनिया को अपना वर्चस्व दिखाने का, अपनी बादशाहत कायम करने का... खेल के मैदान पर आप अपनी ताकत नहीं दिखा पाए, तो दुनिया आपको सुपरपॉवर नहीं मानती...

सुपरपॉवर उसे माना जाता है, जो देश सामाजिक, आर्थिक और तकनीकी तौर पर मजबूत हो... प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण हो... ताकतवर और आधुनिक सैन्यशक्ति हो... जिस देश की बात दुनिया सुने और जिसके एथलीट खेल के मैदान में भी झंडे गाड़ें... जो भी देश सुपरपॉवर कहे जाते हैं, वे खेलों के भी पॉवरहाउस हैं... रूस और अमेरिका का उदाहरण सामने है... चीन सुपरपॉवर बनने की राह पर है... इसके लिए चीन ने खेल के मैदान से दबदबा बनाना शुरू किया... सूचना प्रौद्योगिकी के दम पर सुपरपॉवर होने का दंभ भरने वाले भारत को ओलिंपिक में पहला व्यक्तिगत गोल्ड मेडल जीतने में 112 साल लग गए... सवा सौ करोड़ आबादी वाले देश की ओलिंपिक में शून्यता कचोटती है...

कहा जाता रहा है कि आनुवंशिक तौर पर हम उतने मजबूत ही नहीं हैं... जापान और चीन इसे झुठला चुके हैं... विश्वस्तर की सुविधाएं नहीं होने का बहाना अफ्रीकी देशों के एथलीट गलत साबित करते रहे हैं... शाकाहारी खाने की हमारी कमज़ोरी को कार्ल लुइस और एडविन मोजेज के 11 ओलिंपिक गोल्ड मुंह चिढ़ा रहे हैं... सच तो यह है कि देश में खेल संस्कृति कभी बन ही नहीं पाई...

"पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब,
खेलोगे-कूदोगे होगे खराब..."

सदियों पुरानी यह सोच अब भी नहीं बदली है... बदले भी तो कैसे...? देश में खेल करियर का विकल्प है ही नहीं...

चीन के सरकारी मीडिया ने ओलिंपिक में भारत की विफलता का विश्लेषण किया है... इसके अनुसार सुविधाओं का अभाव, खराब स्वास्थ्य, गरीबी, लड़कियों को खेल से दूर रखना, माता-पिता का बच्चों को डॉक्टर-इंजीनियर बनने के लिए प्रेरित करना, क्रिकेट की लोकप्रियता, हॉकी की सुनहरी सफलता का धुंधला पड़ना और ग्रामीण इलाकों में ओलिंपिक के बारे में कम जानकारी कुछ कारण हैं, जो विश्व के छठे हिस्से के जनसंख्या वाले देश को ओलिंपिक में शून्य बनाते हैं...

चैम्पियन एक रात में तैयार नहीं होते... एक शोध के अनुसार प्रति व्यक्ति आय और बड़ी जनसंख्या में सही तालमेल हो तो खिलाड़ी तैयार करने में आसानी हो सकती है... खेल के मैदान पर देश का प्रदर्शन उसकी आर्थिक मजबूती का भी संकेत देता है... इसके अलावा जिस देश में महिला समानता और सशक्तीकरण हो, उस देश से चैम्पियन ज़्यादा निकलते हैं... खेलों की मेज़बानी करने से भी देश में खेल के लिए माहौल तैयार होता है... क्या आज़ादी के 69 साल बाद भी भारत इस राह पर चल पाया है...?

देश में स्कूल स्तर से खिलाड़ी तब तक सामने नहीं आएंगे, जब तक खेल को पढ़ाई के बराबर महत्व नहीं मिलेगा... जब तक खेल को करियर का विकल्प नहीं बनाया जाता... ज़रूरत तो यह है कि हर स्कूल की हर क्लास में एक सेक्शन हो, जिसमें ऐसे बच्चों को रखा जाए, जिनकी दिलचस्पी खेल में ज़्यादा हो... इन्हें स्कूलों में ट्रेनिंग की विश्व स्तर की सुविधाएं मिलें... इन्हें विश्व स्तर के कोच होने मिलने चाहिए... पौष्टिक खुराक मिलनी चाहिए... काबिल बच्चों को स्कॉलरशिप मिलनी चाहिए... भविष्य में इन बच्चों के लिए नौकरी की खास व्यवस्था होनी चाहिए...

ग्रामीण और खासकर आदिवासी इलाकों में प्रतिभाएं बिखरी पड़ी हैं... आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ा यह तबका खेलों के ज़रिये अपनी किस्मत बदलने के लिए तैयार बैठा है... तीरंदाज़ दीपिका कुमारी और बॉक्सर एमसी मैरीकॉम जैसे कुछेक को मौक़ा मिला तो परिणाम सामने है... हम इनको टैप नहीं कर रहे... कॉरपोरेट घरानों को आगे आकर अपनी एकेडमी में प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को चैम्पियन बनाने की कोशिश करनी चाहिए... लेकिन सबसे बड़ी भूमिका सरकार की होनी चाहिए... चीन से सबक लीजिए...

राजनैतिक कारणों से चीन ने 1952 से 1980 तक ओलिंपिक में हिस्सा नहीं लिया... 1984 में वापसी की और अगले 24 साल में वह कर दिखाया, जिससे दुनिया दांतों तले अंगुलियां दबाए देखती रह गई... 1936 के बाद ओलिंपिक में अमेरिका और रूस के वर्चस्व को तोड़ने वाला चीन पहला देश बना था... 2001 में चीन को 2008 ओलिंपिक खेलों की मेज़बानी मिली... अगले सात साल तक ड्रैगन ने अपनी सारी ताकत ओलिंपिक की तैयारियों में झोंक दी... इसके लिए चीन ने सरकारी स्तर पर काम किया... सबसे पहले उन खेलों को चुना गया, जिसमें चीन अपना दमखम दिखा सकता था... योजना का नाम दिया गया - प्रोजेक्ट-119... ट्रैक एंड फ़ील्ड, तैराकी, कयाकिंग, रोइंग और सेलिंग जैसे खेलों में 119 गोल्ड मेडल टार्गेट किए गए... फिर प्रतिभाओं को तलाशा गया... योजना बनी... फंडिंग हुई... और फिर ट्रेनिंग... इन सारे पहलुओं को केंद्रीकृत किया गया... ट्रेनिंग इतनी सख्त थी कि कई बार यातना के भी आरोप लगे...

एथलीटों पर चीन ने करीब चार हजार करोड़ रुपये खर्च कर डाले... बिना पैसे की परवाह किए दुनिया के सर्वश्रेष्ठ कोच बुलाए गए... इनमें 38 विदेशी कोच शामिल थे... विदेशों में बसे चीन के लोगों ने खूब पैसे भेजे... एक हिसाब के मुताबिक एक गोल्ड मेडल के लिए चीन ने करीब 74 करोड़ खर्च किए... बीजिंग ओलिंपिक से पहले 2004 के एथेंस ओलिंपिक में ही चीनी ड्रैगन अपने आने की आहट दे चुका था... 32 गोल्ड के साथ अमेरिका के बाद चीन दूसरे नंबर पर रहा था... बीजिंग में भारत के एक और चीन के 51 गोल्ड के बीच सबसे बड़ा अंतर साबित हुआ प्रयासों में ईमानदारी और प्रतिबद्धता का... चीन ने 25 अलग-अलग स्पर्द्धाओं में 100 पदक जीते... बीजिंग के बाद लंदन में चीन ने दिखाया कि बीजिंग न तो तुक्का था और न अपवाद...

हमारे कैम्पों की मूलभूत सुविधाएं, आधारभूत संरचना, ट्रेनिंग के तरीकों और सबसे ज़रूरी एथलीट के खानपान को शोभा डे ने देखा होता तो भारतीय एथलीटों की खिल्ली नहीं उड़ातीं... राजनीति और भ्रष्टाचार देश के हर अंग को चूस रहे हैं... देश में खेल संघों पर राजनेताओं और कारोबारियों का कब्ज़ा है, जिनका खेल से दूर-दूर तक नाता नहीं रहा है... खेल संघों पर बेमेल और नाकाम अधिकारियों के दखल का नतीजा देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भुगतना पड़ रहा है... अधिकारियों की आपसी खींचतान के कारण साल 2012 में ही AIBA ने देश के बॉक्सिंग संघ की मान्यता खत्म कर दी थी... चार साल से फेडरेशन नहीं होने के कारण राष्ट्रीय प्रतियोगिता तक नहीं हो पाई... बैन के कारण भारत के कोचिंग स्टाफ़ विदेश में बाउट में शामिल नहीं हो पाए... इसका परिणाम सामने है... रियो में तीन मुक्केबाज़ क्वालिफ़ाई कर पाए, यह भी कम बड़ी बात नहीं... हालांकि ओलिंपिक के लिए एक ad-hoc boxing panel को AIBA ने मान्यता दे दी थी... शुक्र है कि भारतीय दल तिरंगे तले रियो गया...

कई शोधकर्ता और विश्लेषक मानते हैं कि जाति प्रथा भी खेलों के पिछड़ेपन का कारण है... खासकर ग्रुप गेम्स में कई बार तथाकथित ऊंची जाति के खिलाड़ी दलित और आदिवासियों से घुलते-मिलते नहीं... इसके अलावा क्षेत्रवाद की राजनीति भी टीम चयन में हावी रहती है... रांची और उड़ीसा से हॉकी के प्रतिभाशाली सामने आते हैं, लेकिन राष्ट्रीय टीम में पंजाबी लॉबी हावी रहती है...

भारत का ओलिंपिक में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन लंदन में आया... दो सिल्वर और चार कांसे मिलाकर भारतीय एथलीटों ने कुल छह पदक जीते... लगा कि भारत अब चुनौती देने के लिए तैयार है, लेकिन रियो में वह प्रदर्शन मरीचिका साबित हुआ...

संजय किशोर एनडीटीवी के खेल विभाग में एसोसिएट एडिटर हैं...

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