आज सोलह साल हो गए. जीवन में मज़दूर दिवस एक ख़ास तारीख़ बन गई है. डेढ़ दशक जमा एक साल के इस सफ़र में कई दफे नई तारीख़ से रुबरू हुआ. नए और लुभावने मौक़ों से तार्रुफ़ हुआ, लेकिन जिसे ज़िंदगी के बेहतरीन साल समर्पित कर दिए, उससे बेवफ़ाई करने का जी नहीं चाहा. कुछ लगाव रहा और कुछ मजबूरियां भी और साथ लंबा होता चला गया.
ये तो नहीं कह सकता-मानों कल की ही बात हो, क्योंकि याददास्त के फलक पर वक़्त सितम ढाता रहा है-कुछ हसीन तो कुछ ज़ालिम. यादों का पटल धूल से धूसरित हैं और धुंधला पड़ता जा रहा है. उम्र का तक़ाज़ा है. फिर भी टटोलने की कोशिश करता हूं. इलाक़ा-देश की राजधानी दिल्ली का सबसे पॉश में शामिल-ग्रेटर कैलाश और संस्थान- जिसकी गुणवत्ता पेशे के लिए मिसाल थी और विश्वसनीयता इंडस्ट्री के लिए मापदंड. यहां मिलने वाली सुविधाओं से प्रजातंत्र के चौथे खंभे से जुड़े हर शख्स को रश्क होता था. उस दौर में हर किसी की ख़्वाहिश दक्षिणी दिल्ली के सात मंज़िले इमारत में काम करने की होती थी. उस इलाक़े और उस संस्थान में जाने के पहले 6 साल के अनुभव और 30 की उम्र में भी क़दम डगमगा रहे थे. 'गूजबंप्स' तो नहीं कह सकता क्योंकि रोंगटे नहीं खड़े हुए थे, मगर मन के अंदर जो कुछ भी हो रहा था उसमें उत्साह, रोमांच, संकोच और अनजाना डर सम्मिलित रूप से शामिल था.
इस तारीख़ी दिन के पहले ऑफ़र लेटर लेने के दिन का एक मज़ेदार वाक्या आज भी भुलाए नहीं भूलता. एचआर के हेड से मुलाक़ात करनी थी. आज वो इस दुनिया में नहीं हैं. लंबे कद-काठी और रुआबदार व्यक्तित्व के स्वामी थे. वे संस्थान की ख़ूबियों और सुविधाओं को गिना रहे थे. किसी बात पर उन्होंने पूछा-हाउ मेनी चिल्ड्रन डू यू हैव? मैंने भी उनको प्रभावित करने के लिए अंग्रेज़ी में ही जवाब दिया- आइ हैव वन 'चिल्ड्रन'! तब छोटे शाहज़ादे दुनिया में आए नहीं थे. उन्होंने कहा कुछ नहीं.
वापस लौटते हैं 1 मई 2003 के दिन. मारुति 800 पार्किंग में लगाई. बिना एसी की गाड़ी और मई की तपती गर्मी के पसीने से तन तर-बतर और नए जगह के अनजाने आशंका से मन विचलित था. बहरहाल, अंदर दाखिल होना था तो हुआ. न्यूज रूम में गोल टेबल के आसपास तमाम नामचीन शख़्सियतें काम में मशगूल थी, जिन्हें टेलीविजन पर देखता रहा था वे साक्षात थे. साथ थे. उस लम्हे को बयान नहीं कर सकता. ये जरूर लगा कि बड़ी मछलियों के बीच कहीं गुम न हो जाऊं. पिछली संस्थान में छोटे तलाब में बड़ी मछली की हैसियत थी. बड़े मौक़े मिलने शुरू हुए थे. दक्षिण अफ्रीका से 2003 का क्रिकेट वर्ल्ड कप कवर कर लौटा ही था. मगर बेहतर ऑफ़र के कारण यहां आ गया.
कई दिनों तक मन में वापस चले जाने की द्वन्द्व भी चला. मगर नए बटुए ने मन में चल रहे उहापोह को मार दिया. एक नए क्रिकेटर के लिए राष्ट्रीय टीम का ड्रेसिंग रूम साझा करना बहुत बड़ी बात होती है. उसी तरह मेरे लिए इंडस्ट्री के दिग्गजों के साथ न्यूजरूम शेयर करना बेहतरीन अनुभव साबित हुआ. हालांकि समय के साथ ये हस्तियां साथ छोड़ती गयी, कोई जल्दी तो कोई देर से. मगर इस बात पर फ़ख़्र जरुर होता है कि इनमें से ज़्यादातर नाम इंडस्ट्री के लीडर हैं.
चुनौती दिग्गजों की भीड़ में पहचान बनने की थी. शुरुआती दिनों में दो रिपोर्ट ने इसमें मदद की. एक दिन जवाहर लाल स्टेडियम में बॉक्सर मैरी कॉम मिल गयीं. तब उन्होंने सिर्फ एक वर्ल्ड कप जीता था. आज जैसी बड़ी पहचान नहीं थी. उस साल उन्हें अर्जुन पुरस्कार नहीं मिल पाया था. इंटरव्यू के दौरान दुखड़ा रोते-रोते उनकी आंखों से आंसू छलक आए. टेलीविजन स्क्रीन पर आंसुओं की बड़ी क़ीमत होती है. लिहाज़ा इंटरव्यू हिट रहा. जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में ही महिला हॉकी टीम का अभ्यास चल रहा था. मगर बिना कोच को. भोली-भाली महिला खिलाड़ियों ने बाइट भी दे दिया. स्टोरी के बाद महिला हॉकी संघ ने बॉस को फोन कर हलकान कर दिया. इन दो स्टोरीज़ ने पांवों तले ज़मीन दी. पहचान बनाने के अलावा यहां के 'एलीट' माहौल में ढालने की भी चुनौती थी. कई लोग तो इसी में नाकाम होकर वापस लौट गए.
इन सब के बीच संस्थान (आईआईएमसी) का एक सहपाठी ख़ामोशी से अपनी रिपोर्ट और मज़बूती से अपनी पहचान बना रहा था. आज हिंदी न्यूज चैनल का सबसे बड़ा चेहरा बन चुका है. नाम बताने की जरूरत है क्या?