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This Article is From Mar 05, 2020

चाहत और नफ़रत के बीच

Sanjay Kishore
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 05, 2020 14:18 pm IST
    • Published On मार्च 05, 2020 14:18 pm IST
    • Last Updated On मार्च 05, 2020 14:18 pm IST

चाहत और नफ़रत की अपनी वजहें होती हैं. कई  बार कारण साफ़ नज़र आ रहा होता है. तो कई बार कुछ सूक्ष्म कारक भी होते हैं, जिसे हम सरसरी निगाह में देख नहीं पाते. 

आप सोचेंगे कि भला दिल्ली के एक व्यापारी की 1500 किलोमीटर दूर कोलकाता में बैठी पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से क्या रंजिश हो सकती है जो उन्हें आगामी चुनाव में हारते हुए देखना चाहता है! बोर्ड की परीक्षा सेंटर के बाहर बेटे का इंतज़ार करते हुए एक अभिभावक से मुलाक़ात हुई जिनका करोलबाग में कपड़ों का थोक व्यवसाय है. दिल्ली के दंगों से शुरु हुई बात शाहीन बाग़ होते हुए वाया CAA-NRC-NRP पश्चिम बंगाल तक पहुँच गयी.

‘इस बार तो ममता बनर्जी जरुर हारेगी और हारना भी चाहिए.'

‘क्यों भला? आप तो दिल्ली में रहते हैं. ममता से इतनी शिकायत क्यों?'

‘बांग्लादेशी घुसपैठियों पर उसका हाथ है. वोट के लिए संरक्षण देती है. तभी तो CAA के भी ख़िलाफ़ हैं.'

‘कैसे संरक्षण दे रही हैं? आप लोग बस सुनी सुनाई बात को मान लेते हैं. वॉट्सअप पर आयी हर बात सही नहीं होती!'

‘देखिए, मेरा जिंस का कारोबार है. हमने अपने दो ब्रैंड को खड़ा करने में करोड़ों रुपए ख़र्च किए हैं. दस साल की मेहनत के बाद आज बिहार की हर दुकान में हमारे ब्रैंड की जिंस बिक रही है. माँग इतनी है हर दुकानदार को हमारा जिंस रखना पड़ता है.'

‘तो इसमें दिक्कत क्या है. कारोबार आपका बिहार में है, ममता आपको कैसे परेशान कर रही हैं?' 

‘दिक्कत ये है कि हमारा जिंस थोक में 700-800 रुपए में आता है. हमारे ब्रैंड की लोकप्रियता देखकर कोलकाता में नक़ली जिंस बनाया जा रहा है. वो थोक में 450-500 में बेच रहे हैं. हमने नक्कालों का पूरा कच्चा-चिट्ठा निकाल कर ममता सरकार को दिया है. लेकिन कोई कार्यवाई नहीं हुई क्योंकि वो मुस्लिम वोट बैंक नहीं खोना चाहती.'

‘अच्छा, आप तो व्यापारी हैं. आर्थिक मंदी को मानते हैं कि नहीं? क्या आपके कारोबार पर असर नहीं पड़ा है?'

‘देखो, मंदी तो है. इसमें कोई शक नहीं. लेकिन ये तो दुनिया भर में है. मेरी बेटी न्यूज़ीलैंड में काम करती है. वहाँ की सबसे बड़ी कंपनी बैठ गयी. लाखों कर्मचारी थे. सभी सड़क पर आ गए हैं. बेटी की भी नौकरी नहीं रही. अब उसे शहर छोड़ कंट्री साइड में शिफ़्ट होना पड़ेगा. हमने उसे कहा है कि फ़िलहाल वो वहीं रहे. यहीं से ख़र्चा भेजते रहेंगे.'

‘तो बेटी को बुला लेते वापस'

‘अभी देखते हैं. शायद कुछ समय में हालात शायद बेहतर हों. अमेरिका में तो और बुरा हाल है. मेरी एक भतीजी है. पहले वो 8 महीने यूएस में रहती थी और 4 महीने के लिए भारत आती थी. अब उल्टा हो गया है. काम कम हो गया है तो साल में 8 महीने भारत में रह रही है. वहाँ रहना बेहद खर्चीला है.'

‘अच्छा जी.'

‘अमेरिका-यूरोप में तो एक ही बड़ा त्योहार होता है. क्रिसमस. उसी समय बिक्री होती है. हमारे यहाँ तो साल भर पर्व-त्योहार मनता रहता है. इसके अलावा रिश्तेदारी में आदान-प्रदान होता है. शादियों में लोग ख़र्च करते हैं. लिहाज़ा हमारी अर्थ व्यवस्था की गाड़ी चलती रहती है. हमारी जनसंख्या भी इतनी है कि मंदी में भी धंधा चलता रहता है.'

पहली बार ग़ौर किया कि छुट्टियों और पर्व त्योहार का भी अपना अर्थशास्त्र होता है. खामखां ही सरकारी छुट्टियों को कोसते रहते हैं लोग. छुट्टियाँ होंगी तो लोग घुमेंगे फिरेंगे. त्योहार आते रहेंगे तो ख़रीदारी होगी. अर्थव्यवस्था की गड्डी तभी तो चलेगी.

जनसंख्या है तो बड़ी समस्या लेकिन इसी सवा सौ करोड़ के बाज़ार के कारण दुनिया लार टपकाती है. अमेरिका नोमस्ते इंडिया कहता फिर रहा है तो ड्रैगन गुर्राता कम दुम ज़्यादा हिलाता है.

पूर्वी दिल्ली के कोंडली के एक स्कूल के बाहर समय काटने के लिए चल रही हमारी चर्चा क़रोलबाग और शाहीनबाग से निकल कर न्यूज़ीलैंड, अमेरिका और चीन तक जा पहुँची. समझने की बात है कि इस व्यापारी की दुश्मनी एक शख्स से है जो उसे कारोबार में नुक़सान पहुँचा रहा है. लेकिन उसे पूरे क़ौम से नफ़रत हो गयी है. इस नफ़रत को राजनीति की बदबूदार मगर बेहद उर्वरा खाद से सींचा गया है. फ़सल लहलहा उठी है.

नफ़रत की कुछ वजहें दिलचस्प भी होती हैं. मसलन दिल्ली चुनाव के दौरान एक ई रिक्शा वाला अरविंद केजरीवाल की हार के लिए दुआ कर रहा था. उसका दुख ये था कि महिलाओं के लिए बस फ़्री कर देने के बाद उसे सवारी नहीं मिल रही थी.

संजय किशोर एनडीटीवी के खेल विभाग में डिप्टी एडिटर हैं...

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