बिहार का चर्चित चुनावी गीत "जब तक रहेगा समोसे में आलू तब तक रहेगा बिहार में लालू " किसे याद नहीं होगा. आज समोसा भी हैं, आलू भी हैं और खबरों में लालू भी हैं. लेकिन शायद राजनीति के पटल पर खुद को पिछड़ों के जख़्मों की सिल्वर बुलेट कहने वाले इस शख्स के राजनीतिक पराभव का अब समय आ गया लगता है.
एक समय था जब लालू की रैलियों में उसके समर्थक लाठी लहराते थे और समर्थन की मांग पर एक पैर पर खड़े हो जाते थे. एक रैली तो मैंने भी तब देखी थी. तब कहा जाता था कि लालू की रैलियों में समर्थक से ज़्यादा उनके विरोधी उन्हें सुनने आया करते हैं. लोग वैसे तो उन्हें अभी भी सुनना पसंद करते हैं और यह लाइन लालू पर हमेशा ही फिट बैठती है कि "you can love him, hate him but can not ignore him."
वैसे बिहार की वर्तमान राजनीतिक उठापटक के केंद्र में लालू के अलावा उनके प्रोडक्ट नीतीश और किसी जमाने में उनके सेक्रेटरी रहे सुशील मोदी हैं. वैसे यहां पीएम मोदी और अमित शाह की जोड़ी का भी दखल है.
फिल्मों में, असल जिंदगी में देखा गया है कि जब आपका अपनी गर्ल फ्रैंड से ब्रैकअप होता है और कई महीनों या सालों बाद आप दोनों की एक बार फिर किसी मोड़ पर मुलाकात होती है तो फिर कड़वाहट भुलाकर नजदीकियां बढ़ाने की कोशिश होती है. और अगर सब ठीक रहा तो कुछेक मुलाकातों की आड़ में रिश्ते को नया नाम मिल जाता है. कुछ लोग जबरदस्ती भी किसी को पाने के पीछे लग जाते हैं. बिहार का ताजा वाकया बीजेपी-जेडीयू की अपनी मोहब्ब्त को पाने के लिए पागलपन की इंतेहा ही तो थी. जहां नायक कह रहा हो कि तुम किसी और की हो जाओ, यह होने नहीं दूंगा.
पिछले कुछ महीनों की नीतीश-मोदी के प्रसंग को बिहारी लाल की दो पंक्तियों में समेटा जा सकता है:
कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन मैं करत हैं नैननु हीं सब बात॥
लालू तानसेन तो हैं नहीं, लेकिन फिर भी उनको शायद इसका अंदेशा हो गया था कि इन दोनों के बीच कुछ तो खिचड़ी पक रही है.
नीतीश का डिमॉनिटाइजेशन, सर्जिकल स्ट्राइक, जीएसटी, एनडीए के राष्ट्रपति उम्मीदवार का समर्थन करना फिर से पनपते रिश्ते की सुगबुगाहट तो थी ही और शायद लालू के लिए किसी बवंडर के आने की दस्तक थी. कहा जाता है न.. "the real action occurs in silences." नीतीश बिना कुछ बोले ही सब कुछ कर गए जिसने इस गठबंधन को कष्टों के बंधन से मुक्त कर दिया.
शायद लालू को इतना लाचार कभी नहीं देखा गया होगा. किसी ने कहा है "If you have to predict your future just invent it." शायद यह बात नीतीश को ज्यादा अच्छे से समझ आई. अपने आपको किंगमेकर कहने वाले लालू को उनके बनाए किंग ने ही नकार दिया. अब लालू नीतीश को भस्मासुर कहें या उनके पेट में दांत बताएं.. मास्टरस्ट्रोक तो नीतीश का ही रहा.
हालांकि इस घटना को राजनीति के तराज़ू पर रखें तो यह तो दिखता है कि लालू हार कर भी जीत गए और नीतीश जीतकर भी हार गए. लेकिन यहां तराजू का क्या काम! अरे भाई राजनीति तो राज करने की नीति है बस!
वैसे मुझे नहीं लगता कि ये लालू का पुत्र मोह था. आज नहीं तो कल 2019 से पहले बीजेपी और जेडीयू साथ आते ही और 2020 का विधानसभा चुनाव भी साथ ही लड़ते. शायद इसकी भनक लालू को लग ही गई थी, जब उनका ट्वीट आया था कि आपको नया दोस्त मुबारक.
लालू का बेटे से इस्तीफा नहीं दिलाने का फैसला बेबसी में लिया गया सही फैसला था. अगर मान भी लें कि लालू ने पु्त्र मोह दिखाया तो नीतीश भी कुर्सी मोह से खुद को दूर नहीं रख सके.
वैसे कहते हैं कि बेटा भले बाप के पास दुलारा बना रहे और पिता के सिखाए पाठ पर ध्यान न दे पर गुरू की सीख को गांठ बांध लेता है. तेजस्वी ने नीतीश कुमार को अपना गुरू तो बताया पर 20 महीने की शिक्षा के बाद जब गुरू दक्षिणा का वक्त आया तब इसी पसोपेश में रह गए कि गुरू को दक्षिणा में इस्तीफा दूं या बर्खास्त हो जाऊं. पर गुरू ने तो सीधे मुंह कुछ मांगा ही नहीं. वैसे तो गुरू ने अब तक मौन रहना बेहतर समझा है, वही शिष्य ने गुरू पर तीर तान दिया है.
तेजस्वी के विधानसभा में पूछे गए तीखे सवाल पर सुशील मोदी और नीतीश कुमार की सिले होंठों से उपजी मंद मुस्कान बिना कहे काफी कुछ बयां कर गई कि बेहतरी चुप रहकर कुर्सी का मजा लेने में ही है. और इन्हें ये लगा भी होगा कि राजनीति की इस पारी को खेलने में मजा तो आएगा क्योंकि भले ही तेजस्वी क्रिकेट की पिच पर फेल रहे हों लेकिन राजनीति की पिच पर इस नौजवान के योर्कर को ब्लाक होल में झेलना आसान नहीं रहेगा. करीब 40 महीने का वक्त बाकी है और तेजस्वी को 2012 से पहले का पुराना अखिलेश बनने का एक बेहतरीन मौका है.
चलिए वापस लालू पर लौटते हैं. हालांकि वर्तमान में लालू यादव के सितारे गर्दिश में हैं. हालात यह बन गए हैं कि लालू रांची से पटना लौटते हैं, तब तक नीतीश इस्तीफा दे देते हैं... जब वे पटना से रांची पहुंचते हैं तब तक ये एक्स सीएम से सीएम हो जाते हैं.
इस बात में भी कोई दोराय नहीं है कि लालू वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में विपक्ष के एक मात्र नेता हैं जो सरकार के तमाम हथियारों के इस्तेमाल के बाद भी और मुखर होकर बोलते हैं. चाहे सीबीआई हो या ईडी हो या फिर आईटी, इनका डर लालू को परेशान जरूर करता होगा मगर कमजोर नहीं.
जहां मुलायम, मायावती, पवार, करुणानिधि जैसे राजनीति के पुराने धुरंधर नेता सीबीआई (पिंजरे में बंद तोता) के वार से दुबककर सिरहाने के नीचे छुपते दिखे हैं तो वहीं लालू ने इसका डटकर सामना किया है.
यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले दिनों में लालू किस तरह से महागठबंधन को सहेज सकते हैं. हालांकि इस महागठबंधन की बुनियाद बिहार से ही खड़ी की जानी थी जिसमें दीमक लग गई और लालू विफल रहे. अब तो इस गठबंधन के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े हो गए हैं. अगस्त में लालू की विपक्षी दलों की ताकत दिखाने के लिए आयोजित एक रैली है. देखना दिलचस्प होगा कि आखिर यह रैली लालू की उपस्थिति में होती है या गैर मौजूदगी में... या फिर होती ही नहीं है. और अगर होती है तो कितनी सफल होती है.
इसके साथ ही आने वालों दिनों में लालू पर खुद को, अपने परिवार को, अपने समीकरण को बचाकर रखने का दबाव होगा. वैसे राजनीति में न तो कोई सगा होता है और न ही कुछ स्थायी.
ऐसा न हो कि पीएम मोदी के अगले मास्टर स्ट्रोक के आगे लालू कहीं 2025 तक के लिए बोल्ड न हो जाएं. और "जब तक रहेगा समोसे में आलू तब तक रहेगा बिहार में लालू" यह लाइन अमित शाह के 15 लाख रुपये वाले बयान की तरह महज एक जुमला बनकर न रह जाए. साथ ही 'ल' से लालू की जगह 'म' से मोदी न ले ले.
( उत्कर्ष कुमार NDTV इंडिया में असिस्टेंट आउटपुट एडिटर हैं.)
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This Article is From Aug 02, 2017
समोसे में तो आलू है...बिहार में लालू का क्या होगा...?
Utkarsh Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:अगस्त 02, 2017 10:01 am IST
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Published On अगस्त 02, 2017 08:53 am IST
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Last Updated On अगस्त 02, 2017 10:01 am IST
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