क्या सातवें वेतन आयोग की अनुशंसाएं मध्य प्रदेश जैसे राज्य में सामाजिक बदलाव लाने और आर्थिक गैर-बराबरी खत्म करने में कोई भूमिका निभाएंगी...? यह सवाल इसलिए ज़रूरी हो जाता है, क्योंकि यह राज्य सबसे ज्यादा शिशुमृत्यु दर वाला राज्य है, यह उन राज्यों में भी शामिल है, जहां सबसे ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं और सबसे ज्यादा किसान आत्महत्याएं होती हैं...? इसी राज्य के भोपाल स्थित सचिवालय में ज्यादातर कर्मचारियों का प्रवेश 11 बजे होता है और 4:30 बजे उन्हें घर लेने जाने वाली बस लग जाती है... क्या उनकी भूमिका केवल सरकारी कागज़ की सेवा करने की है, या व्यापक समाज को भी वे जवाबदेय हैं...? हमारे पास एक बहुत स्पष्ट संविधान होने के बावजूद, हमारी सरकार की सोच, वृत्ति और कर्म इतने विरोधभासी कैसे हो सकते हैं...?
वास्तव में बात मंशा की है, नैतिकता की है और प्राथमिकताओं की है... सातवें वेतन आयोग ने जो किया, वह उसके अपने सीमित नज़रिये का पुख्ता प्रमाण देता है... ये वेतन आयोग देखते हैं कि सरकार के भीतर की दुनिया के हितों को कैसे बसंतमय बनाकर रखा जाए...! ये आयोग नहीं देखते कि सरकार के बाहर जो समाज है, उसकी ज़रूरतों और परिस्थितियों के मुताबिक़ कैसे एक संतुलित तानाबाना बनाया जाए; ताकि गैर-बराबरी को न्यूनतम किया जा सके... इन वेतन आयोगों की आलोचना को सरकारी कर्मचारियों की आलोचना के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए; बल्कि उन्हें यह महसूस करना होगा कि इस तरह की अनुशंसाओं से देश में मंहगाई, असुरक्षा और गैर-बराबरी बढ़ेगी; इतना ही नहीं, इनसे अपराधों में भी इजाफा होगा... यह ध्यान रखिए कि अब मामला 1 करोड़ भारत सरकार बनाम 124 करोड़ भारत के लोग तो नहीं बन रहा है...! चुनौती यह है कि कर्मचारी संगठन की राजनीति, किसान संगठनों से नहीं जुड़ती है, किसानों और कर्मचारियों के संगठनों की सोच में मजदूरों के सामाजिक-आर्थिक हित दिखाई नहीं देते हैं... एक मायने में इन सबके जोड़ को तोड़े रखने में 'वेतन की आर्थिक राजनीति; बेहद अहम भूमिका निभाती है...
ज़रा इन सच्चाइयों को इस तरह देखिए...
सरकारी नुमायन्दों की पेंशन बनाम सामाजिक सुरक्षा पेंशन : मध्य प्रदेश में मौजूदा स्थिति में 32.91 लाख लोग विभिन्न सामाजिक पेंशन योजनाओं में शामिल हैं, किन्तु पिछले 15 सालों में उनकी पेंशन राशि 75 रुपये से बढ़कर अलग-अलग श्रेणियों में 150 से 275 रुपये तक ही पहुंच पाई; राज्य व्यवस्था इनके पक्ष में कभी क्यों खड़ी नहीं होती... भारत में वर्ष 1995 के बाद से राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम शुरू किेए गए, जिनका मकसद था समाज में हाशिये पर बहुत कठिनतम-चुनौतीपूर्ण ज़िन्दगी जीने वाले बुज़ुर्गों, विकलांगों, विधवा महिलाओं और सबसे गरीब परिवारों को राज्य का वह संरक्षण उपलब्ध करवाना, जिसके लिए भारत का संविधान उन्हें पाबन्द करता है... अपनी जिम्मेदारी को पूरा करते हुए भारत सरकार 60 से 79 साल तक की उम्र के बुजुर्गों को 200 रुपये मासिक पेंशन का प्रावधान करती है... जो 80 साल के हो जाते हैं, उन्हें 500 रुपये की पेंशन मिलने लगती है... 40 से 59 वर्ष की आयु की विधवा महिलाओं के लिए भी 200 रुपये की राशि मिलती है, जबकि 18 से 59 साल की उम्र के विकलांगों को भी 200 रुपये की पेंशन का ही प्रावधान है...
ये हमारे समाज के वे तबके हैं, जिन्हें गुणवत्तापूर्ण लोक स्वास्थ्य सेवाओं का हक नहीं मिलता है... इनमें से अधिकांश इस स्थिति में हैं कि कड़ा श्रम भी नहीं कर सकते... यानी, जीवन की बुनियादी ज़रूरतों के लिए ये 'जनकल्याणकारी राज्य' पर ही आश्रित हैं; लेकिन इनके लिए प्रावधान है 7 रुपये से 16 रुपये प्रतिदिन की पेंशन का...
यह पेंशन मिलना भी पहाड़ तोड़ने से कम नहीं है... पहले लोगों के जीवन का सबसे कठिन इम्तिहान उत्तीर्ण करना होता है; अपना नाम गरीबी की रेखा से नीचे वालों की सूची में दर्ज करवाने का; फिर बैंक खाता होना चाहिए, निवासी प्रमाणपत्र हासिल कीजिए, पति की मृत्यु का प्रमाणपत्र लाइये, अब यदि 'आधार' नहीं होगा, तो सामाजिक सुरक्षा की यात्रा वहीं रुक जाएगी...
सुना है, सातवें वेतन आयोग के सरकारी कर्मचारी दुखी हैं... पेंशन पाने वाले भी दुखी हैं, क्योंकि सरकार ने सबसे कम पेंशन की राशि 9,000 रुपये ही तय की है... वे दुखी इसलिए हैं, क्योंकि सरकार में काम करने वाले, कभी भी समाज में बिखरे हुए वंचितपन, भेदभाव, उपेक्षा, बहिष्कार, अभाव को महसूस ही नहीं करते हैं... वे तो जीवनभर इन वास्तविकताओं को ढंकने-छिपाने-नकारने की 'नौकरी' जो कर चुके होते हैं... जो थोड़ी-बहुत मानवीयता से 'नौकरी' करते रहे होते हैं, वे यह कहकर अपने दड़बे में घुस जाते हैं कि "क्या करें, 'व्यवस्था' ही ऐसी है, इसमें कुछ नहीं किया जा सकता..." यह सुन लीजिए कि सबसे वंचित लोगों की पेंशन और सातवें वेतन आयोग द्वारा तय सरकारी कर्मचारियों की सबसे कम पेंशन में 45 गुणा का अंतर है... आगे के स्तरों पर यह अंतर 270 गुणा तक पहुंचता है...
सरकारी नुमायन्दों का वेतन बनाम मनरेगा की मजदूरी : वर्ष 2015-16 में मध्य प्रदेश में भारत सरकार सहायताप्राप्त महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना में काम करने वाले मजदूर को हाड़तोड़ मेहनत की एवज में 159 रुपये की मजदूरी दिए जाने का प्रावधान था... इस साल जब इन मजदूरों की मजदूरी में बदलाव हुआ तो 8 रुपये की वृद्धि दी गई... यानी, मजदूरी दर हुई 167 रुपये... यदि हम यह मान लें कि एक सरकारी कर्मचारी साल में 182 दिन काम करता है, तो सबसे कम वेतन पाने वाले को अब 1,186 रुपये रोजाना के मान से पारिश्रमिक का प्रावधान है, जो उस मजदूर से प्रत्यक्ष रूप से सात गुणा ज्यादा है, जिसके पास स्वास्थ्य, भोजन, शिक्षा, आवास, मनोरंजन की कोई 'राज्यप्रदत्त' सुविधाएं और विलासितापूर्ण भत्ते नहीं हैं... सबसे बड़ी बात तो यह कि उसे अपने हक के 100 दिन के काम को पाने का हक और सुरक्षा भी नहीं है... वास्तविक सन्दर्भों में मजदूर के वेतन और न्यूनतम सरकारी वेतन में 18 गुणा का अंतर है... यदि इसे आप सबसे ज्यादा वेतन के सन्दर्भ में देखें, यह अंतर 300 गुणा का हो जाता है...
एक करोड़ सरकारी नुमायन्दों का वेतन बनाम खेती पर निर्भर 60 करोड़ लोग : मध्य प्रदेश में राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के 70वें चक्र के अध्ययन के मुताबिक 59.95 लाख किसान हैं और उन पर औसतन 32,100 रुपये का कर्ज़ है... किसानों ने यह कर्जा विलासिता या अपनी झूठी शान चमकाने के लिए नहीं लिया; मध्य प्रदेश के किसानों को क़र्ज़ को सरकार 19,260 करोड़ रुपये खर्च कर खत्म कर सकती है, लेकिन ऐसा न करके उनके लिए नए 50 हज़ार करोड़ रुपये के कर्ज़ की व्यवस्था हर साल कर दी जाती है... भारत के 17 राज्यों के किसानों की औसत मासिक आय 1,666 रुपये है... इस मान से सातवें वेतन आयोग ने सबसे कम वेतन के साथ लगभग 11 गुणा का और सबसे अधिक वेतन के साथ 150 गुणा का अंतर बनाकर रखा है...
यह सही है कि इन वेतन आयोगों का काम केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों के वेतन का निर्धारण करना है, किन्तु उनकी अनुशंसाएं तब जनविरोधी लगने लगती हैं, जब वे आर्थिक-राजनीति और समाज की वास्तविकताओं को सिरे से नज़रअंदाज़ कर अध्ययन करते हैं... पहला वेतन आयोग वर्ष 1946 में श्रीनिवास वर्द्राचार्या की अध्यक्षता में गठित हुआ था, जिसने 'जीवन निर्वाह के लिए वेतन' की अवधारणा पर काम किया था... जीवन निर्वाह के लिए वेतन के मापदंड किसान-मजदूर और सरकारी कर्मचारी के लिए इतने अलग-अलग कैसे हो सकते हैं...?
उस समय सबसे कम वेतन 55 रुपये तय हुआ था, जबकि अधिकतम 2,000 रुपये... यह राशि बढ़ते-बढ़ते सातवें वेतन आयोग में 18,000 रुपये (327 गुणा वृद्धि) और 2.50 लाख रुपये (125 गुणा वृद्धि) तक पहुंच गई... पहले वेतन आयोग के समय सरकार के भीतर ही वेतनों में 36.4 गुणा का अंतर था, जो सातवें वेतन आयोग में लगभग 14 गुणा का रह गया है... लेकिन सच्चाई यह है कि इससे लाभान्वित होने वाले एक करोड़ लोग भारत के सबसे अमीर पांच प्रतिशत जनसंख्या में शुमार होते हैं; ऐसे में क्या यह तर्क वाजिब नहीं है कि शेष 95 प्रतिशत का सरकार की कार्मिक नीतियों से कोई जुड़ाव नहीं है!
सरकार का बजट बनाम जनहित : मध्य प्रदेश सरकार ने मनरेगा में लगभग 8,000 करोड़ रुपये की मजदूरी का भुगतान 30 दिन से लेकर दो साल की देरी के साथ किया... क़ानून के मुताबिक मजदूरों को देरी से भुगतान का मुआवज़ा मिलना चाहिए था, लेकिन मध्य प्रदेश के सबसे बड़े अधिकारी ने हाल ही में एक बैठक में कहा, "यह नहीं हो सकता, केंद्र सरकार के पास आर्थिक संसाधन ही नहीं हैं..."; लेकिन वे यह नहीं बताते कि जन-हकों को सीमित करके ही वेतन आयोगों की सिफारिशें लागू की जाती हैं... जैसे ही केंद्र सरकार ने सातवें वेतन आयोग के बिंदु स्वीकार किए, मध्य प्रदेश सरकार ने भी राज्य के साढ़े चार लाख कर्मचारियों को इसी के मुताबिक वेतन दिए जाने की घोषणा कर दी... इससे राज्य के 7,000 करोड़ रुपये खर्च होंगे... उत्तर प्रदेश सरकार ने भी घोषणा कर दी है और उनके राज्य बजट पर 23,000 करोड़ रुपये का भार आएगा...
सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों से पूरे भारत के 47 लाख केंद्रीय कर्मचारियों और 53 लाख पेंशन हितग्राहियों के लिए भारत सरकार पर 1.12 लाख करोड़ रुपये का भार आएगा, लेकिन राज्यों ने यदि ऐसा ही निर्णय लिया तो इस हिसाब से देखें तो यह वेतन आयोग देश पर लगभग 4 लाख करोड़ रुपये का बोझा डाल रहा है... ये बढ़ोतरी भारत के 13 करोड़ बच्चों के पोषण आहार कार्यक्रम, छह करोड़ लोगों की मजदूरी, सवा तीन करोड़ सामाजिक सुरक्षा पेंशन हितग्राहियों और 2.50 करोड़ किसानों की मौजूदा वार्षिक आय और ढाई करोड़ महिलाओं के मातृत्व हक की कुल राशि के बराबर है... भारत सरकार ने इसे स्वीकार कर भी लिया है; लेकिन वे छह करोड़ मजदूरों को एक वक्त की रोटी देने वाले मनरेगा के लिए 38,500 करोड़ रुपये का आवंटन करते हैं और उसे पानी पी-पीकर कोसते हैं... इसी तरह 3.22 करोड़ वृद्धों, विधवा महिलाओं और विकलांगों की पेंशन के लिए वर्ष 2016-17 में भारत सरकार ने केवल 9,500 करोड़ रुपये का आवंटन किया है...
सातवां वेतन आयोग बनाम मातृत्व हक से वंचित 95 प्रतिशत महिलाएं : भारत में 14.99 करोड़ कामकाजी महिलाओं में से केवल 60.5 लाख ही संगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं, यानी, केवल इन महिलाओं को ही मातृत्व हक (गर्भावस्था के दौरान और प्रसव के बाद वेतन के साथ अवकाश, आराम, स्वास्थ्य जांचों और सुरक्षित प्रसव के हक) मिलते हैं; शेष 14.4 करोड़ महिलाएं इससे वंचित हैं... भारत सरकार के मुताबिक भारत में औसतन 2.9 करोड़ महिलाएं गर्भवती-धात्री होती हैं, लेकिन सभी योजनाओं में केवल 11.9 लाख महिलाओं को ही मातृत्व हक मिलता है...
ज़रा सोचिए, वर्ष 2013 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून में पहली बार सभी महिलाओं को मातृत्व हक के रूप में 6,000 रुपये की मातृत्व सहयोग राशि देने का प्रावधान किया गया; लेकिन तीन साल गुज़र जाने के बाद भी इसका क्रियान्वयन केवल 53 जिलों में शुरू किया गया; वह भी बेहद अमानवीय शर्तों के साथ... ऐसा क्यों होता है कि संसद द्वारा बनाए गए क़ानून का उल्लंघन करने में भारत की सरकार को कोई संकोच नहीं होता... उन्होंने गर्व से सीना फुलाकर वर्ष 2016-17 में इंदिरा गांधी मातृत्व सहयोग योजना के लिए 16,880 करोड़ के बजाय केवल 400 करोड़ रुपये का प्रावधान किया...
आर्थिक गैर-बराबरी और भारत का संविधान : भारत की कुल संपत्ति का 53 प्रतिशत हिस्सा, यानी लगभग 16 लाख खरब रुपये भारत के सबसे ऊपर के एक प्रतिशत, यानी सबसे संपन्न 25.4 लाख परिवारों के नियंत्रण में है... बहरहाल, बाहर से हमें लगता है कि केंद्रीय वेतन आयोग भी वैश्विक आर्थिक उथल-पुथल और गैर-बराबरी बढ़ाने वाली वैश्विक नीतियों से अनछुए हैं, तो हमें यह जान लेना चाहिए कि भारत में आर्थिक उदारीकरण शुरू होने के ठीक बाद 1994 में गठित हुए पांचवें वेतन आयोग ने सरकार को सलाह दी थी कि सरकार को कर्मचारियों की संख्या में 30 प्रतिशत की कमी करनी चाहिए... ज़रा गौर से देखिए कि पिछले 20 सालों में सरकार में अब नई नियुक्तियां लगभग खत्म है और जो होती हैं, वे स्थायी न होकर ठेके यानी संविदा पर होती हैं...
भारत के संविधान के अनुच्छेद 38 (2) के मुताबिक 'राज्य विशिष्टतया आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा, न केवल व्यक्तियों के बीच, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को समाप्त करने का प्रयास करेगा," लेकिन वेतन आयोगों की अनुशंसाओं को देखते हुए, लगता नहीं है कि वास्तव में ऐसी कोई पहल करने की मंशा हमारे तंत्र में है... ज़रूरत है कि इस वेतन आयोग सरीखी घटनाओं को केवल सरकारी संदर्भों में नहीं देखा जाना चाहिए; उन्हें समाज के ताने-बाने और सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों के नज़रिये से भी विश्लेषित किया जाना चाहिए...
सचिन जैन, शोधार्थी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।
This Article is From Jul 01, 2016
सातवें वेतन आयोग की अनुशंसाएं : गैर-बराबरी खत्म न होने देने की प्रतिबद्धता
Sachin Jain
- ब्लॉग,
-
Updated:जुलाई 01, 2016 15:50 pm IST
-
Published On जुलाई 01, 2016 15:49 pm IST
-
Last Updated On जुलाई 01, 2016 15:50 pm IST
-
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं
7वां वेतन आयोग, मनरेगा, सातवां वेतन आयोग, 7वें वेतन आयोग की सिफारिशें, नरेंद्र मोदी सरकार, मध्य प्रदेश सरकार, 7th Pay Commission, MGNREGA, Recommendations Of 7th Pay Commission, Narendra Modi Government, Madhya Pradesh Government