लोकसभा चुनाव के इस माहौल में कुछ गैर-राजनीतिक बात 

आप सोच रहे होंगे कि मैं ग़ैर राजनीतिक बातें क्यों कर रहा हूं. क्या करूं. चुनाव के समय जब प्रधानमंत्री ग़ैर राजनीतिक बातें कर सकते हैं. जब वे क्रिएटिव हो कर गैर राजनीतिक हो सकते हैं तो हम क्यों नहीं हो सकते.

नई दिल्ली:

आज मैं ग़ैर राजनीतिक बात करना चाहता हूं. राजनीतिक बात नहीं करना चाहता. राजनीतिक बात से बोर हो गया हूं. सोचा अ-पोलिटिकल कुछ किया जाए. ऐसा किया जाए जिसमें पोलिटिक्स न आए. चुनाव बहुत लंबा हो गया है. रिपोर्टर भी थक गए हैं. कुछ रिपोर्टर बाहर से मोदी-मोदी नहीं पकड़ पाए, लौट आए, एडिटर ने बजट का हिसाब मांगा तो सर झुका लिया. फिर दूसरे रिपोर्टर भेजे गए. उन्होंने ज़मीन पर कान लगाया. अंडर करंट सुन लिया. ये चेंज है 2019 का. करेंट अंडरग्राउंड है. लहर की जगह अंडर करेन्ट आ गया है. लू ऊपर चलती है, अंडर करेन्ट नीचे चलता है. तो सोचा कि जब राजनीति, राजनीति के मौसम में नहीं हो रही है तो इस मौसम में हम राजनीति से हट जाते हैं. कुछ अलग करते हैं. आम खाते हैं. पर आम कैसे खाते हैं. दशहरी और चौसा तो चूस कर, चबा कर खा लेते हैं मगर मालदा को चम्मच से ही खाइये. कुछ न समझ आए तो सफेदा ही सही. मैंगों शेक चलेगा. सफेदा मुझे पसंद नहीं है. पर क्या करें. आम है बुरा लग सकता है.

राजा के सामने कभी नहीं कहना चाहिए कि वो मुझे पसंद नहीं है. वो का मतलब सफेदा आम. मैंगो शेक में क्या पता चलता है भीतर कौन सा आम है. दूध, चीनी और चेरी का स्वाद ही पता चलता है. बहुत ही ज़्यादा चेरी डाल दिया ये तो. मैंगो शेक पसंद न हो तो मैंगो लस्सी भी आती है. आम को घुमाया दिखाया कि आप यकीन कर लें कि आम ही है. फिर छिलका उतारा और ऐसे काटा कि मुंह से पानी आ जाए. फिर क्या था. मिक्सी में दही डाला, आम डाला और मैंगो लस्सी तैयार. वो तो पीने का तरीका हुआ, अब आप खाने का तरीका देखिए. जैसे भी खाइये इन लोगों की तरह मत खाइये. वैसे मज़ा ऐसे ही खाने में आता है. लगता है कि बड़े दिनों बाद आम खाने को मिला है. निचोड़ ही लिया बेचारे आम को. लग रहा है आदमी नहीं मिक्सर खा रहा है. मौसम का गैप भी तो हो जाता है. इतने टाइम बाद मिलेगा तो खाने का मन करेगा ही.

आपको अच्छा लग रहा है न गैर राजनीतिक बात. यही ठीक है. इससे कोई नराज़ नहीं होता है. आम का आम और दाम का दाम. वैसे आम कैसे खाते हैं पता करना चाहिए. ये वो सवाल है जो किसी के मन में नहीं रहना चाहिए. आप सोच रहे होंगे कि मैं ग़ैर राजनीतिक बातें क्यों कर रहा हूं. क्या करूं. चुनाव के समय जब प्रधानमंत्री ग़ैर राजनीतिक बातें कर सकते हैं. जब वे क्रिएटिव हो कर गैर राजनीतिक हो सकते हैं तो हम क्यों नहीं हो सकते. प्रधानमंत्री चैलेंजर हैं. एक इंटरव्यू में कहा है. लोगों ने कहा कि आप कुमार को इंटरव्यू दें, वे अक्षय कुमार को ले आए. गैर राजनीतिक इंटरव्यू. ये न होता तो मौसमे चुनाव में आम का ज़िक्र न आता. एक बार अकबर इलाहाबादी ने आम की टोकरी इक़बाल को लाहौर पार्सल की. इक़बाल ने शुक्रिया के साथ प्राप्ति की ख़बर भिजवा दी. अकबर को आमों के सही सलामत मिलने पर काफी हैरत हुई. अकबर ने एक शेर लिखा.

असर ये तेरे अन्फ़ास-ए-मसीहाई का है 'अकबर'
इलाहाबाद से लंगड़ा चला लाहौर तक पहुंचा.

ग़ालिब ने तो आम की तारीफ में मसनवी लिखा था. अब उसका ज़िक्र रहने देते हैं. वैसे आम वाले सवाल ने प्रसून जोशी के उस सवाल को तगड़ा कंपटीशन दिया है. प्रसून जोशी ने कहा था कि आपमें फकीरी कहां से आती है. अक्षय कुमार को पता था कि वे फकीर का नहीं, प्रधानमंत्री का इंटरव्यू करने आ रहे हैं. एक व्यक्ति का इंटरव्यू करने जा रहे हैं. फिर भी देखना चाहिए कि प्रसून जोशी और अक्षय कुमार के सवालों में क्या अंतर है. किसके सवाल ज़्यादा राजनीतिक हैं किसके ज्यादा आध्यात्मिक हैं. ये आप तय करेंगे. प्रसून ने मोदी मे फकीरी देखा तो अक्षय उनमें सैनिक और सन्यासी देखकर कंफ्यूज हो गए.

आज कल कोई इंटरव्यू करता है तो उसकी चीरफाड़ होती है. क्या अक्षय कुमार ने कोई सवाल मिस किया. हो जाता है. आप दस सवाल लेकर जाते हैं और दो चार रह जाता है. 2014 में बाल नरेंद्र नाम का एक कॉमिक्स आया था. मेरी याद में प्रधानमंत्री मोदी पहले नेता हैं जिन्होंने चुनाव लड़ते हुए अपने बारे में कॉमिक्स के ज़रिए अपनी कथा बताई थी. बाद में उनकी कथा की नकल किरण बेदी ने की थी. उन्होंने भी कॉमिक्स बनवा ली. बाल नरेंद्र में एक किस्सा है. मोदी जब छोटे थे तब वडनगर के शर्मिष्ठा झील में अक्सर खेलने जाया करते थे. एक बार गेंद झील में गिर जाती है. बाकी बच्चे डर कर नहीं जाते हैं क्योंकि उसमें मगरमच्छ भरे थे. बाल नरेंद्र डरते नहीं हैं. छलांग लगाते हैं और गेंद लेकर वापस आ जाते हैं. जब वापस आ रहे होते हैं तब उन्हें मगरमच्छ का एक बच्चा नज़र आता है और कौतुहलता से उठा लेते हैं. आगे की कहानी है कि मगरमच्छ के बच्चे को लेकर घर ले आते हैं. मां उन्हें कहती हैं कि मां को बच्चे से अलग मत करो, मां को दुख होता है तो फिर बाल नरेंद्र मगरमच्छ के उस बच्चे को वापस झील में छोड़ आते हैं. (संवैधानिक चेतावनी ये वाला आप घर में बिल्कुल ट्राई न करें.)

मेरी राय में अक्षय कुमार ये सवाल मिस कर गए. थोड़ी और जानकारी मिलती कि वो किस्सा क्या था. जिस झील के किनारे रोज़ जाते थे वहां मगरमच्छ है, उन्हें पता कैसे नहीं चला. मगरमच्छ को उठा लेने पर उन्हें डर नहीं लगा. अक्षय मिस कर गए. पर कोई नहीं. हम लोग भी मिस कर जाते हैं. एंकरों को तो सवाल ही याद नहीं आता है सामने जाने पर. आप सोते कब हैं, पूछ कर चले आते हैं. मज़ाक अलग है. गैर राजनीतिक इंटरव्यू के लिए शुक्रिया. हाई प्रोफाइल मसलों से बच गया. वैसे बाल नरेंद्र पढ़िए. इसमें कुर्ते वाली बात है. जो अक्षय ने भी पूछा है. कुछ जवाबों का हिस्सा बाल नरेंद्र में भी मिलता है. जैसे कपड़ा खुद साफ करते थे, आयरन नहीं था तो बर्तन के अंदर कोयला डालकर प्रेस करते थे.

वैसे राजनीति के इस घमासान में गैर राजनीतिक क्या होता है. वे उम्मीदवार हैं. उनकी पार्टी चुनाव मैदान में है. इसके बाद में प्रधानमंत्री ही गैर राजनीतिक हो सकते हैं. इससे चर्चा तो हो गई. इंटरव्यू को स्पेस मिला, वैसे भी मिलना था. उनका भाषण हो या इंटरव्यू हो, खूब दिखाया जाता है. विपक्ष के नेता भी आम खाते हैं. वे भी बता सकते थे. कोई चैनल वाला नहीं दिखाएगा तो यूट्यूब पर डाल सकते थे. मतलब अक्षय कुमार के इंटरव्यू से प्रॉब्लम क्यों हैं. कहीं प्रधानमंत्री ने विपक्ष के नेताओं का हल्का फुल्का पुराना इंटरव्यू निकाल कर ट्वीट कर दिया तो.

सच यही है कि इस चुनाव में मुद्दों ने नमस्कार कर लिया है. मुद्दे शिमला चले गए हैं. इसलिए हमने ट्राई किया कि राजनीति से हट कर कुछ किया जाए. वो तो उन चुनावों की बात थी जब जनता मुद्दों की बात करती थी. ग़रीबी, भूखमरी, बेरोज़गारी. दीवारों पर नारे लिखे होते थे. सबको काम, सबको नाम. अब अचानक हर कोई मुद्दा मुक्त फील करने लगा है. आंधी आती है, शेर आता है मगर मुद्दा ही नहीं आता है. इतनी राजनीति हो गई है कि राजनीति से हट कर कुछ करने का मन कर रहा है. किसी को राजनीति नहीं चाहिए. बीमा का पैसा नहीं मिल रहा है, नहीं चाहिए. अनाज का दाम नहीं मिल रहा है नहीं चाहिए. फीस महंगी है, दे देंगे. स्कूल वाले और मांगेंगे तो और दे देंगे. नौकरी नहीं चाहिए. हम बेरोज़गार रह लेंगे लेकिन आप हमें मुद्दा न दें. वोटर के लिए मुद्दे से बड़ा देश है. मुद्दा देश से छोटा होता है. हम छोटी चीज़ों की बात नहीं करेंगे. बड़ी बातें करेंगे. इसलिए थोड़ा राजनीति से हटकर हो जाए. ये क्राइसिस कार्यकर्ता का भी है. पांच साल काम करो, फिर अचानक विजेंद्र या गौतम गंभीर का स्वागत करो. पिछली बार जिनसे हारे थे इस बार उनका स्वागत करो. तो कार्यकर्ता भी राजनीति से ऊब गया है. इनका कब स्वागत करना है, कब विरोध करना है, बेहद डिफकल्ट क्वेश्चन है. इसलिए राजनीति से हट कर कुछ किया जाए. 

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