लिखा हुआ पढ़ने और बिना लिखा हुआ बोलने के दौरान नेताओं का व्यक्तित्व बहुत बदल जाता है। यही वह मौका होता है जब आप किसी जननेता को दो अलग अलग मानसिक फ्रेम में देख सकते हैं। लिखा हुआ भाषण अच्छा होते हुए भी नेता की देहभाषा को बांध देता है। कई बार लिखा हुआ भाषण या बयान ज़रूरी होता है लेकिन हर बार आप लिखा हुआ भाषण पढ़ें तो मज़ा भी नहीं आता।
ज़माने से मायावती को टीवी पर लिखा हुआ भाषण पढ़ते हुए देख रहा हूं। उनकी यह बात कुछ जमती नहीं थी। बुधवार को जब उनकी पार्टी के पुराने नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने इस्तीफ़ा दिया तो सूचना आई कि मायावती भी प्रेस कांफ्रेंस करेंगी। मुझे लगा कि वह फिर लिखा हुआ दस पंक्ति का बयान लाएंगी और पढ़कर चली जाएंगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
मायावती आईं और लिखा हुए कुछ भी नहीं लाईं। थोड़ी देर पहले ही मैंने अपने एक मित्र से कहा था कि बसपा में मीडिया के लिए कोई प्रवक्ता तो है नहीं और मायावती आएंगी भी तो पर्चा पढ़कर चली जाएंगी। लेकिन मायावती बड़े से दरवाज़े की ओट में खड़ी होकर बोलने लगीं। पन्ने का कवच हटाया लेकिन दरवाज़े की ओट नहीं हटा सकीं। हर नेता अपनी तरह से असुरक्षित होता है। ख़ैर मायावती जल्दी ही रौं में आ गईं। वह जल्दी ही पन्ने और पर्चे से आज़ाद हो गईं, लगा कि दूसरी मायावती देख रहा हूं। जब नेता आत्मविश्वास से भरा होता है तो संवाद पर उसकी पकड़ ग़ज़ब की होती है। उसके चिंतन और बोलते समय सतर्कता और प्रवाह की प्रक्रिया ज़्यादा भरोसा पैदा करती है। ऐसा लगता है वह राजनीति को जीता है और जो जीता है वही बोल रहा है।
बसपा के महासचिव के पार्टी छोड़ने की खबर ने पार्टी के कैडर को भी स्तब्ध कर दिया था। बसपा का काडर मायावती को भी देख रहा है कि वह इस चुनाव में कैसा करती हैं। उसके मन में कांशीराम के खड़ा किये गए आंदोलन की चिन्ता रहती है। मायावती मौर्य पर हमले करने से ज़्यादा अपने उस काडर को भी संबोधित कर रही थीं जिसे मूवमेंट का आदमी कहा जाता है। यह तबक़ा 2014 के लोकसभा चुनाव में शून्य पर पहुंचने वाली बसपा को लेकर परेशान है। वह यूपी चुनाव के लिए जी जान से जुटा हुआ है लेकिन अब उसकी आंख सिर्फ ज़मीन पर नहीं रहती, आसमान पर भी रहती है जहां उसका नेतृत्व बैठता है।
बिन पर्चे के बोलते हुए मायावती खुलने लगीं जो आमतौर पर उनके साथ नहीं होता। वह एक सहज और बेफिक्र नेता की तरह स्वामी प्रसाद मौर्य पर हमला किये जा रही थीं। इस प्रक्रिया में कुछ बातों को दोहराया भी लेकिन उनका धारा प्रवाह होना सुखद लग रहा था। वह अपने ऊपर लगाए गए आरोपों का भी सहजता से जवाब दे रही थीं। वह बोलती चली गईं कि मुझे दलित की नहीं दौलत की बेटी कहते हैं। अब मेरे समाज के लोग अपनी क्षमता से कम-ज़्यादा दे देते हैं। मुझे दौलत की कमी नहीं होने देते। जब भी कोई बसपा से जाता है आरोप लगाता है कि टिकट बिक रही थी। इसके अलावा कुछ और उनके पास नहीं होता। मौर्या ने बताया है कि उन्होंने अपने और अपने बेटे बेटियों के टिकट के लिए कितने पैसे दिये।
इन्हीं सब बातों को मायावती अक्सर लिखा हुआ पढ़ती हैं लेकिन बुधवार को वह ज़्यादा असरदार लग रही थीं। हंस रही थीं, पत्रकारों के सवाल का सामना करने के लिए तैयार लग रही थीं। ऐसा करने से उनकी देहभाषा से यह संदेश भी गया कि वह कंट्रोल में हैं। वह इस घटना से हिली नहीं हैं। आम तौर पर वह किसी को निकालते वक्त प्रेस कांफ्रेंस नहीं करती। यह भी कोशिश होती है कि निकाले गए किसी व्यक्ति को महत्व न दिया जाए। लेकिन मौर्या का कुछ तो महत्व रहा होगा कि मायावती के होश भले न उड़े हों उनके हाथों से पन्ने उड़ गए थे!
मायावती को ख़ुद बुधवार के प्रेस कॉन्फ्रेंस की रिकॉर्डिंग देखनी चाहिए। उन्हें अपना ही व्यक्तित्व अलग नज़र आएगा। उन्हें इसी तरह रैलियों और कॉन्फ्रेंस में जाकर बोलना चाहिए। लिखा हुआ भाषण मायावती को औपचारिक और सरकारी बनाता है। विदेश मंत्रालय का प्रवक्ता लिखित पंक्तियों से दायें बायें नहीं होता। मायावती के लिखित बयान और भाषण भी ऐसे होने लगे हैं। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता का बयान आम जनता के लिए तब तक बेमतलब का हो जाता है जब तक कि विदेशी नीति को पढ़ने वाले कुछ खास लोग उसे ग़ौर से न देखें। वही हाल बसपा नेता के बयानों का हो गया है। काडर ख़ुश हो जाता है और जनता उदासीन। ऐसा लगता है कि वह ज़रूरत से बचने का प्रयास कर रही हैं। राजनीति में अपने आपको बचाकर दूसरे पर हमला चलता नहीं है। ख़ुद को भी दांव पर लगाना होता है।
अमरीकी कांग्रेस में प्रधानमंत्री मोदी का लिखित भाषण उन्हें अलग रूप में पेश करता है लेकिन वे रैलियों में कभी भी पर्चे में आंखें गड़ाकर भाषण नहीं देते। मायावती और सोनिया गांधी ऐसा करके रैली को प्रेस कांफ्रेंस या सेमिनार में बदल देती हैं। राहुल गांधी विगत वर्ष जब छुट्टियों से लौट कर आए तो काग़ज़ की तरफ कम, सत्ता पक्ष की तरफ देखकर ज्यादा बोल रहे थे। यह नोटिस किया गया कि यह बदले हुए राहुल हैं लेकिन जल्दी ही उनके हाथ में पर्चा फिर से आ गया। पर्चे ने राहुल को बांध दिया। वैसे वह काफी कम बोलते हैं और नई नई बात नहीं बोलते। प्रधानमंत्री मोदी पर उनका हमला बासी हो चुका है। वही बतिया सारी रतिया। मोदी जी सब जानते हैं। राहुल को भी गलत सही की परवाह किये बग़ैर नई नई बातें करनी चाहिए।
बात सिर्फ छवि की नहीं । जब नेता के हाथ में पर्चा नहीं होता है तब जनता को नेता के मन में झांकने का मौका मिलता है। जनता नेता की ज़ुबान की फिसलन को समझती है लेकिन सोचने की प्रक्रिया से जुड़कर वह नेता को ज़्यादा नंबर देती है। इसलिए मायावती को इसी रूप में जनता के बीच आना चाहिए। सतीश मिश्रा के लिए पर्चे की राजनीति छोड़ देनी चाहिए। बसपा के नेता को सहज होने से लाभ ही मिलेगा। पार्टी को भी उपलब्ध रहने वाले प्रवक्ताओं को नियुक्त करना चाहिए इससे पार्टी में नए चेहरे पैदा होते हैं। यह काम भाजपा से सीखना चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से नहीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ से आने वाले वक़्ता खुद को संघ विचारक कहते हैं, प्रवक्ता नहीं। संघ में प्रवक्ता हैं लेकिन टीवी पर कई लोग विचारक बनकर क्यों आते हैं!
बसपा के भी प्रवक्ता नहीं होते। प्रो. विवेक कुमार, डॉक्टर चंद्रभान प्रसाद और सुधीन्द्र भदौरिया जैसे योग्य लोग अघोषित प्रवक्ता बनकर अवतरित होते हैं। वे प्रोफेसर हैं, समाजशास्त्री हैं लेकिन उनके न चाहते हुए भी जनता उन्हें प्रवक्ता ही समझती है क्योंकि वे बसपा का ही बचाव कर रहे होते हैं। मौका मिले तो ये लोग सब पर भारी पड़ सकते हैं। इन्हें भी खुद को दलित चिन्तक बताना चाहिए वैसे ही जैसे संघ के प्रवक्ताओं को संघ विचारक बताया जाता है। अगर वे विचारक हैं तो संघ प्रमुख मोहन भागवत जी क्या हैं !
यह दर्शकों के साथ अन्याय है और आंदोलन से निकलने वाली एक पार्टी के कमज़ोर आत्मविश्वास पर गंभीर टिप्पणी भी। दलित समुदाय आत्मविश्वास से लबालब है। बसपा की गतिविधियों में भी वह आत्मविश्वास झलकना चाहिए। मायावती अगर बदल रही हैं तो थोड़ा पार्टी में भी बदलाव करना चाहिए। कम से कम बिना लिखा हुआ भाषण देना चाहिए।
This Article is From Jun 23, 2016
क्या मायावती को लिखा हुआ भाषण पढ़ना चाहिए?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:जून 23, 2016 11:56 am IST
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Published On जून 23, 2016 11:56 am IST
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Last Updated On जून 23, 2016 11:56 am IST
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