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This Article is From May 16, 2018

क्या डूब जाएगा पंजाब नेशनल बैंक, रुपया कमज़ोर, महंगा पेट्रोल, जीएसटी से तबाह सूरत

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    May 16, 2018 17:04 IST
    • Published On May 16, 2018 17:04 IST
    • Last Updated On May 16, 2018 17:04 IST
पंजाब नेशनल का घाटा भारत के इतिहास में सबसे बड़ा बैकिंग घाटा बन गया है. 2017-18 की चौथी तिमाही में में घोटाले से जूझ रहे इस बैंक को 13,417 करोड़ का घाटा हुआ है. बैंक ने जितने भी लोन दिए हैं अब उसका एनपीए 18.38 प्रतिशत हो गया है. एक साल पहले 12.5 प्रतिशत था यानी 6 प्रतिशत से ज़्यादा बढ़ा है. इलाहाबाद बैंक की सी ई ओ ऊषा अनंथासुब्रमण्यम के सारे अधिकार ले लिए गए हैं क्योंकि सीबीआई की चार्जशीट में उनका भी नाम है. मोहतरमा मार्च 2017 तक पंजाब नेशनल बैंक में चेयरमैन सह प्रबंधन निदेशक थीं. नीरव मोदी कांड के बाद से यह सब हो रहा है.

स्टेट बैंक आफ इंडिया ने प्रोबेशनरी आफिसर के लिए 2000 भर्तियां निकाली हैं. इसके लिए करीब दस लाख आवेदन आए हैं. 8300 क्लर्क के लिए 16.6 लाख आवेदन आए हैं. क्लर्क के लिए आवेदन करने वालों में इंजीनियर और बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन में पीजी किए छात्रों का हिस्सा 70 प्रतिशत के करीब है. बैंकिंग की परीक्षा की तैयारी करने वाले किसी भी छात्र से पूछ लीजिए कि पिछले चार साल में भर्तियों की संख्या में कितनी गिरावट आई है. बहुत कम नौकरियां आने लगी हैं.

15 मई को डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये की कीमत 68.23 हो गई. जनवरी 2017 के बाद अब तक यह सबसे बड़ी गिरावट है. इस साल एशिया भर में सबसे ख़राब प्रदर्शन भारतीय रुपये का ही है. चीन जापान, मलेशिया की मुद्राएं मज़बूत हुई है. भारतीय रुपये में अब तक 6.2 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी है. रुसी रुबल इनसे नीचे है.

मलेशिया में भले ही जीएसटी समाप्त होने वाली हो, इसके कारण साठ साल से सत्ता में जमी पार्टी की विदाई हो गई मगर भारत में व्यापारियों ने जीएसटी और नोटबंदी के बाद भी बीजेपी का स्वागत किया है. सिर्फ भारत में यह ट्रेंड नया देखने को मिल रहा है. सूरत के व्यापारी नोटबंदी के बाद जीएसटी से काफी तबाह हुए लेकिन उन्होंने बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी में अपनी अटूट आस्था बनाए रखी. इस थ्योरी को गलत साबित कर दिया कि जीएसटी के बाद होने वाले चुनावों में लागू करने वाली पार्टी हार जाती है. सूरत राजनीतिक रूप से अलग सोचता है. आर्थिक तबाही को राजनीति से नहीं जोड़ता है. यह दुनिया के समाजशास्त्रियों के लिए अध्ययन का विषय होना चाहिए.

बिजनेस स्टैंडर्ड में राजेश भियानी ने लिखा है कि सूरत का संकट बढ़ता जा रहा है. पोलियेस्टर यार्न की कीमत में 12 से 15 प्रतिशत की वृद्धि हो गई है. कमाई कम होने के कारण वहां के पावर लूम और मज़दूरों के बीच बैठक हुई है. तय हुआ है कि मशीनें अब तीन शिफ्ट में नहीं, दो शिफ्ट में चलेंगी. एक कंपनी के अधिकारी ने बताया है कि जीएसटी लागू होने के बाद उत्पादन में 33 फीसदी की गिरावट आई है. ज़ाहिर है मज़दूरों को कम काम मिल रहा होगा. मज़दूर और व्यापारी दोनों परेशान होंगे.

कांग्रेस को जाकर वहां नोट्स बनाने चाहिए. मैं इस पर कई बार लिख चुका हूं. गुजरात चुनावों में कई पत्रकार सूरत की तबाही को लेकर लिखने लगे कि ये नाराज़गी बीजेपी को भारी पड़ेगी. कुछ से कहता रहा कि यह एक तथ्य है कि वे तबाह हो चुके हैं मगर यह ग़लत है कि बीजेपी के अलावा किसी और को वोट देंगे. मैं गुजरात चुनावों में तो नहीं गया लेकिन मेरी ही बात सही निकली. सूरत दुनिया का पहला उदाहरण है जहां आर्थिक तबाही का राजनीतिक मत परिवर्तन से कोई संबंध नहीं है. पत्रकारों को मेरी बात पर हैरानी होती थी, मुझे व्यापारियों ने ही कहा था कि वे वोट किसी और को नहीं दे सकते. भले ही जीएसटी के खिलाफ चाहें जितनी रैली कर लें.

दिल्ली में पिछले दो दिनों में पेट्रोल की कीमतों में 32 पैसे की वृद्धि हुई है. डीज़ल के दाम में 43 पैसे की. दिल्ली में पांच साल में पेट्रोल कभी इतना महंगा नहीं हुआ था. दिल्ली में पेट्रोल 74.95 रु प्रति लीटर मिल रहा है. कोलकाता में 77.65 रुपये प्रति लीटर, मुंबई में 82.79 रुपये प्रति लीटर, चेन्नई में 77.77 रुपये प्रति लीटर हो गया है.

कभी पेट्रोल राजनीतिक मुद्दा हुआ करता था. आज विपक्ष इसे उठाता भी है तो पब्लिक उफ्फ नहीं करती. यह भी एक पैमाना है देखने का कि राजनीति पहले से कितना बदली है. यह भी सही है कि एक समय में दाम बढ़ने पर नरेंद्र मोदी ट्विट किया करते थे और मुद्दा भी बनता था. अब वे प्रधानमंत्री हैं, दाम बढ़ते ही जा रहे हैं, फिर भी मुद्दा नहीं बनता है. कर्नाटक चुनावों के कारण 19 दिन दाम नहीं बढ़े. चुनाव खत्म होते ही दाम बढ़ने लगे. क्या यह मुद्दा है, दावे के साथ कुछ भी कहना मुश्किल है.

टेलिकाम सेक्टर से कई हज़ार शायद लाखों में नौजवान बेरोज़गार हो गए मगर कहीं कोई उफ्फ तक सुनाई नहीं दिया. अब हम यह नहीं जानते कि उन्हें फिर काम मिल गया या फिर क्या हुआ. आंकड़ों तक पहुंचना वाकई मुश्किल काम है. कुछ चीज़ों का तो पता ही नहीं चलता है. कोई युवा बता दे कि उसके राज्य में कौन सी यूनिवर्सिटी बेहतर हुई है, मगर उनमें से ज्यादातर की पसंद पूछें तो वे बिना किसी कंफ्यूज़न के बीजेपी का नाम लेंगे. नौकरी नहीं मिल रही है मगर फिर भी उनका वैचारिक लगाव भाजपा से है. विपक्षी दलों को यही सीखना चाहिए जो हमेशा चुनाव को गठबंधन के सहारे जीतने हारने के जुगाड़ में रहते हैं. राजनीतिक और आर्थिक संबंध इतने अलग कभी नहीं हुए थे. यहीं नरेंद्र मोदी और अमित शाह की बड़ी सफलता है. दोनों ने आर्थिक नाकामी को राजनीतिक नाकामी से अलग कर दिया है.

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