अल्बर्ट पिंटो को कब तक गुस्सा आता रहेगा?

प्रतीकात्मक चित्र

रविवार को यमुना बैंक जंक्शन पर दिल्ली मेट्रो ठहर ही रही थी कि मेरी नज़र प्लेटफार्म पर बैठे एक युवक पर गई। वो फोन पर बात कर रहा था लेकिन उसके कांपते हाथ बता रहे थे कि काफी गुस्से में है। चेहरे पर नज़र गई तो आंखें लाल थीं और दांत भींच कर बात कर रहा था।

मेट्रो से बाहर आते ही उससे पूछ दिया कि इतने गुस्से में क्यों बात कर रहे थे। सकपकाते हुए जवान संभला तो पहले हाथ मिलाया और फिर कहा कि पांच महीने से पत्रकारिता में नौकरी ढूंढ रहा हूं। एक चैनल के संस्थान में पढ़ने के लिए साढ़े पांच लाख रुपये खर्च कर दिये मगर नौकरी नहीं मिली है। मैं कुछ कर तो सकता नहीं था मगर उसका तनाव कम करने के लिए रुका ज़रूर, थोड़ी बात की और समझाकर आगे बढ़ गया।
 
इस लेख को लिखते समय मेरे घर में बिजली के किसी भी क्षण चले जाने और आ जाने से कंप्यूटर बंद हो जा रहा है। यूपीएस की बैटरी ख़राब है। लिहाज़ा जो लिखा होता है वो बिजली जाने के साथ उड़ जा रहा है। मैंने महसूस किया कि ऐसे बार-बार होने से चिढ़ पैदा हो रही है और मैं गुस्सा हो रहा हूं। झुंझला रहा हूं। मेरे भीतर कुछ तेज़ी से खौलने जा रहा है। जल्दी ही समझ में आ गया कि ये क्रोध है। मैं कंप्यूटर से दूर हो गया और इंजीनियर को फोन कर कारण समझने लगा। कारणों की तलाश ने मुझे फिर से सामान्य कर दिया। अब मुझे गुस्सा नहीं आ रहा था, हां बिजली तब भी आ जा रही थी।
 
अपने भीतर उठते गुस्से के गुबार को समझने की पहली शर्त है कि आप स्वीकार करें कि आप किन्हीं कारणों से सामान्य स्थिति में नहीं हैं। यह एक बीमारी भी हो सकती है और यह बीमारी आपके या किसी और के लिए जानलेवा भी साबित हो सकती है। दिल्ली में एक नौजवान की बाइक से डीटीसी की बस टकरा गई तो उस जवान ने ड्राइवर को इतना मारा कि उसकी मौत ही गई। अखबारों की रिपोर्ट के अनुसार मां भी अपने बेटे को उकसाती रही कि सबक सिखाओ। 40 लोग इस तमाशे को देखते रहे। उन्हें नहीं लगा कि यह एक असमान्य सी बात है। इसे रोकना चाहिए।
 
अकेले दिल्ली में सड़क पर गुस्से के कारण किसी को मार देने या कुचल देने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। यह भी कहा जाता है कि दिल्ली में लोग बेसबॉल और हॉकी की छड़ी रखने लगे हैं ताकि मारपीट के वक्त काम आ सके। आए दिन मैं देखते रहता हूं कि किसी की कार में खरोंच क्या लगी दोनों पार्टी सड़क पर ही हिसाब करने लगती है। इस चक्कर में भयंकर जाम लगता है और कार में बैठे लोग उबलने लगते हैं। गुस्से की लहर पैदा हो जाती है।
 
स्वागत है आपका इस बीमार शहर में। आप दिल्ली में नहीं हैं तो क्या हुआ, मुझे यकीन है कि आप भी बीमार हैं। अगर आप यह समझ रहे हैं कि यह गुस्सा कार में खरोंच के कारण भड़का है या जाम के कारण तो आप ग़लत हैं। अगर आपको यह भी लगता है कि आपका बार-बार गुस्सा जाना अच्छी बात है तो सबसे पहले आपको अस्तपाल ले जाने की ज़रूरत है। अगर कहीं से भी यह लगता है कि गुस्साना आपका ख़ानदानी गुण है तो आप अभी तुरंत किसी अस्पताल में जाकर खुद से भर्ती हो जाएं।

दो साल पहले मैं फिल्ममेकर वंदना कोहली की एक लंबी डॉक्यूमेंट्री The Subtext of Anger देखी थी। वंदना ने यह डॉक्यूमेंट्री काफी शोध और मेहनत से बनाई है मगर इतनी सरल तरीके से कोई भी देखकर समझ सकता है कि हमारे साथ क्या हो रहा है। इस डॉक्यूमेंट्री में जिन लोगों से बात की गई है उनकी प्रोफाइल देखकर लगता है कि पूरी दुनिया में गुस्से नाम की इस बीमारी का मनोवैज्ञानिक, शारीरिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक कारणों का पता लगाने के लिए कितना गंभीर शोध हो रहा है।
 
वंदना कोहली की डॉक्यूमेंट्री में क्रोध करने वाले, क्रोध के शिकार होने वालों से भी बात की गई है। इसे देखते हुए पता चलता है कि हम पैदाइशी गुस्से वाले नहीं होते हैं, बल्कि इस दुनिया में आकर गुस्सा होना सीखते हैं। बेमतलब के इस जीवन में हम एक ऐसे भंवर में फंसे हुए हैं जिससे निकलने का रास्ता किसी के पास नहीं है। वो भी जो आध्यात्म के नाम पर हमें रास्ता बताता है हमसे पैसे कमाकर निकल जाता है, अपना साबुन तेल बेच लेता है और चुनाव भी जीत जाता है। लेकिन हम सब वहीं के वहीं रह जाते हैं। हालात बदलते नहीं। जिन लोगों पर हालात बदलने की ज़िम्मेदारी है और जिनके कारण हालात बिगड़े हैं उन्हीं के साथ आध्यात्मिक गुरु सहज संबंध बना लेते हैं।
 
वंदना कोहली ने क्रोध के मनोविज्ञान पर काम कर रहे दुनिया की कई नामचीन हस्तियों से बात की है। गुस्से में व्यक्ति को हमेशा लगता है कि वह सही है। सामने वाला ग़लत है। वो अपने परिवार से यही सीखता है। पिता को मां पर गुस्सा निकलाते देख मान लेता है कि गुस्सा करना सामान्य बात है। क्रोध के सांस्कृतिक कारण भी हैं। वंदना ने इटालियन और जापानी लोगों के क्रोध की संस्कृति के बारे में भी बताया है कि कैसे जापानी क्रोध के समय संयम का इज़हार करते हैं।
 
हमारी संस्कृति में तो क्रोध का मतलब मर्दानगी का उचित प्रदर्शन है। हम माफी मांगने से पहले आसपास देखने लगते हैं कि कहीं इज्जत तो नहीं चली जाएगी। माफी मांगने वाले को लगता है कि कहीं बीवी या बेटी यह न समझ ले कि वह दब्बू है इसलिए बिना हड़काए चला आया। दरअसल शुरुआत तो हड़काने से ही होती है जिसका अंजाम मौत तक पहुंच जाता है। बहुत बारीकी से बताया गया है कि क्रोध के वक्त दिमाग के तंतुओं में क्या कुछ घट रहा होता है।
 
आप टीवी खोल कर देखिये। गुस्से की कितनी तस्वीरें चल रही होती हैं। एंकर की भाषा ऐसी हो गई है कि वो दर्शक को ज़रूर तनावग्रस्त कर देता होगा। 'सरकार का करारा जवाब' से लेकर 'मुद्दा भुनाने में लगा है' कथनों के साथ विपक्ष जैसी भाषा का इस्तेमाल हो रहा है। मीडिया और सोशल मीडिया पर हर वक्त कुछ लोग नैतिकता के नाम पर उग्र हो जाते हैं। हैशटैग एक नए तरह का क्रोध है जिसमें हम सब शामिल हो जाते हैं। सूचनाओं की यह बाढ़ आपको जितना जागरूक नहीं कर रही है उससे कहीं ज्यादा हताश कर रही है। इसलिए कहता हूं कि टीवी देखने से पहले एक सवाल ज़रूर पूछिये कि क्यों देखने जा रहे हैं। क्या भड़ास निकालने के लिए कि देखें कि आज भाजपा को कांग्रेसी कैसे मज़ा चखाते हैं या भाजपा आम आदमी पार्टी को कैसे पटकनी देती है। कई लोग हमें ही सुबह से मैसेज करने लगते हैं कि आज छोड़ियेगा नहीं।
 
निश्चित रूप से यह जागरूकता या जवाबदेही की भाषा नहीं है। यह भाषा या उतावलापन बता रहा है कि हम वहशी होते जा रहे हैं। हमारा जीवन तनावग्रस्त हो चुका है। हर तरफ सीमेंट के ढांचे दिखते हैं। हरियाली गमलों में समा गई है। हम सबने तनाव के इस जीवन को चुना है। चुनते वक्त तो एक से एक कारण ले आते हैं उसे जायज़ ठहराने के लिए लेकिन जब हताश होकर बीमार होने लगते हैं तो पता नहीं होता कि हम गलत रास्ते पर जा रहे हैं। ज़रा सी चूक होते ही चिल्लाते हैं फिर धमकाते हैं फिर कॉलर पकड़ते हैं फिर मारने लगते हैं और फिर मारते-मारते मार देते हैं। क्रोध हमारे समाज को हत्यारा बना रहा है।

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बहुत पहले एक फिल्म आई थी। अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है। आज हम सब अल्बर्ट पिंटो में बदल चुके हैं। ज़रूरत है कि कोई आकर हमें बताये कि हमें गुस्सा क्यों आता है। इससे पहले कि हम किसी को मार न दें या कोई हमें न मार दे।