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This Article is From Oct 31, 2018

कोलंबिया जर्नलिज्म स्कूल का एक सफर

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 31, 2018 02:50 am IST
    • Published On अक्टूबर 31, 2018 02:13 am IST
    • Last Updated On अक्टूबर 31, 2018 02:50 am IST
1912 में जब हम अपनी आज़ादी की लड़ाई की रूपरेखा बना रहे थे तब यहां न्यूयार्क में जोसेफ़ पुलित्ज़र कोलंबिया स्कूल ऑफ़ जर्नलिज़्म की स्थापना कर रहे थे. सुखद संयोग है कि 1913 में गणेश शंकर विद्यार्थी कानपुर में प्रताप की स्थापना कर रहे थे. तो ज़्यादा दुखी न हों, लेकिन यह संस्थान पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए दुनिया भर में जाना जाता है. मोहम्मद अली, शिलादित्य और सिमरन के मार्फ़त हमने दुनिया के इस बेहतरीन संस्थान को देखा. यहां भारतीय छात्र भी हैं और अगर ज़रा सा प्रयास करेंगे तो आपके लिए भी दरवाज़े खुल सकते हैं. किसी भी प्रकार का भय न पालें बल्कि बेहतर ख़्वाब देखें और मेहनत करें.

तो सबसे पहले हम इसके हॉल में घुसते हैं जहां 1913 से लेकर अब तक पढ़ने आए हर छात्र का नाम है. मधु त्रेहन और बरखा दत्त यहां पढ़ चुकी हैं. और भी बहुत से भारतीय छात्रों के नाम हैं. पुलित्ज़र की प्रतिमा और उनका वो मशहूर बयान जिन्हें हर दौर में पढ़ा जाना चाहिए. 

“ Our Republic and its press will rise or fall together," Pulitzer wrote. "An able, disinterested, public-spirited press, with trained intelligence to know the right and courage to do it, can preserve that public virtue without which popular government is a sham and a mockery. A cynical, mercenary, demagogic press will produce in time a people as base as itself. The power to mould the future of the Republic will be in the hands of the journalists of future generations.”

भारत में पत्रकारिता के दो से तीन अच्छे शिक्षकों को छोड़ दें तो किसी संस्थान में संस्थान के तौर पर कोई गंभीरता नहीं है. सवाल यहां संस्थान, संसाधन और विरासत की निरंतरता का है. मेरी बातों पर फ़ालतू भावुक न हों. यहां मैंने देखा कि पत्रकारिता से संबंधित कितने विविध विषयों पर पढ़ाया जा रहा है. प्रतिरोध की पत्रकारिता का पोस्टर आप देख सकते हैं. बचपन के शुरुआती दिनों की पत्रकारिता पर भी यहां संस्थान है. हिंसा क्षेत्रों में रिपोर्टिंग के दौरान कई पत्रकारों को मानसिक यातना हो जाती है. उन्हें यहां छात्रवृत्ति देकर बुलाया जाता है. उनका मनोवैज्ञानिक उपचार भी कराया जाता है. यहां Dart centre for Journalism and Trauma है. खोजी पत्रकारिता के लिए अलग से सेंटर है. दुनिया के अलग-अलग हिस्से से आए पत्रकार या अकादमिक लोग यहां प्रोफ़ेसर हैं. भारत के राजू नारीसेट्टी यहां पर प्रोफ़ेसर हैं. राजू ने ही मिंट अख़बार को स्थापित किया.

यह क्यों बताया? इसलिए बताया कि हमारे संस्थान गौशाला हो चुके हैं जहां एक ही नस्ल की गायें हैं. वहां न शिक्षकों में विविधता है न छात्रों में. और विषयों की विविधता क्या होगी आप समझ सकते हैं. IIMC के छात्र अपने यहां journalism of resistance का अलग से कोर्स शुरू करवा सकते हैं. यह नहीं हो सकता तो journalism of praising Modi शुरू करवा सकते हैं. यह भी एक विधा है और काफ़ी नौकरी हैं. लेकिन पहले जोसेफ़ पुलित्ज़र ने लोकतंत्र और पत्रकारिता के बारे में जो कहा है, वो कैसे ग़लत है, उस पर एक निबंध लिखें. फिर देखें कि क्या उनकी बातें सही हैं? कई बार दौर ऐसा आता है जब लोग बर्बादी पर गर्व करने लगते हैं. उस दौर का भी जश्न मना लेना चाहिए ताकि ख़ाक में मिल जाने का कोई अफ़सोस न रहे. वैसे भारत विश्व गुरु तो है ही!

इसके बाद अली ने हमें कुछ क्लास रूम दिखाए. एप्पल के विशालकाय कंप्यूटर लगे हैं. क्लास रूम की कुर्सियां अच्छी हैं. सेमिनार हॉल भी अच्छा है. झांककर देखा कि ब्राडकास्ट जर्नलिज़्म को लेकर अच्छे संसाधन हैं. यहां हमारी मुलाकात वाशिंगटन में काम कर रहे वाजिद से हुई. वाजिद पाकिस्तान से हैं. उन्होंने बताया कि जिस तरह मैं भारत में गोदी मीडिया का इस्तेमाल करता हूं उसी तरह से पाकिस्तान में मोची मीडिया का इस्तेमाल होता है. यानी हुकूमत के जूते पॉलिश करने वाले पत्रकार या पत्रकारिता.

गुजारिश है कि आप सीखें और यहां आने का ख़्वाब देखें. हिन्दी पत्रकारिता में बेहतरीन छात्र आते हैं. वे यह समझें कि पत्रकारिता अध्ययन और प्रशिक्षण से भी समृद्ध होती है. भारत के घटिया संस्थानों ने उनके भीतर इस जिज्ञासा की हत्या कर दी है लेकिन फिर भी. मैंने उनके लिए यह पोस्ट लिखा है ताकि वे नई मंज़िलों की तरफ़ प्रस्थान कर सकें. अभी आपकी मंज़िल हिन्दू मुस्लिम डिबेट की है. सत्यानाश की जय हो.


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