यूनिफॉर्म सिविल कोड के मुद्दे पर रवीश कुमार की फैज़ान मुस्तफा से बातचीत

यूनिफॉर्म सिविल कोड के मुद्दे पर रवीश कुमार की फैज़ान मुस्तफा से बातचीत

रवीश कुमार और फैजान अहमद

नई दिल्ली:

देश में इन दिनों यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर बहस चल रही है. सोमवार को एनडीटीवी इंडिया के खास कार्यक्रम प्राइम टाइम में एंकर रवीश कुमार ने शो के गेस्ट नालसार यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ, हैदराबाद के कुलपति फैज़ान मुस्तफा से इस विषय पर खास बातचीत की. पेश है शो का शाब्दिक रूपांतरण...

रवीश कुमार : यूनिफार्म सिविल कोड है क्या?

फैज़ान मुस्तफा : यूनिफार्मिटी का मतलब ये है कि जो लोग समान हैं उन पर समान कानून हो. अगर सबके लिए एक कानून है तो उस पर शब्द होगा कॉमन कोड, यूनिफार्म नहीं होगा. जो हमारे अनुच्छेद 44 में शब्द आया है वो यूनिफार्म आया है. भारत में जो समानता का अधिकार अनुच्छेद 14 में है, उसमें बार-बार ये कहा गया कि जो अनईक्वल हैं यानि जो असमान लोग हैं, उन पर एक समान कानून नहीं होगा. अनईक्वल वांट बी ट्रीटेड अलाईक. ईक्वल आर टू बी ट्रीटेड अलाईक. जो लोग एक तरह की परिस्थिति में हैं, उनके लिए एक कानून होगा. देश में यूनिफार्म सिविल कोड की बात करें तो हमारा सीपीसी यानि कॉमन प्रोसीजर कोड एक है. ट्रांसफर ऑफ प्रापर्टी एक्ट एक है. हमारा इंडियन कॉन्टेक्ट एक्ट एक है. सेल्स ऑफ गुड्स एक है. 90% जो सिविल मैटर्स हैं उनमें सिविल कोड एक है.

रवीश कुमार : यानी वो सभी धर्मों पर लागू है बिना किसी विकल्प के और बिना किसी अपवाद के?

फैज़ान मुस्तफा : बिलकुल. आपके जो बहुत ही निजी मामले हैं कि आपने किस से शादी की, किसको तलाक दिया, आपके मरने के बाद आपकी संपत्ति का किस तरह वितरण हुआ, या आपने किसी को वसीयत की, इन मामलों को निजी माना गया. इनके लिए भी एक यूनिफार्म सिविल कोड बना दी गई जिसका नाम है स्पेशल मैरिज एक्ट. क्योंकि संविधान सभा में ये बात बार बार कही गई, क्योंकि अच्छी खासी अपोजीशन थी वहां पर. बहस थी कि ये यूसीसी मौलिक अधिकारों का हिस्सा बने या नीति निर्देशक तत्वों का, ये फैसला 5-4 के वोट से हो पाया, सिर्फ एक ही वोट इधर से उधर हुआ. इस कमेटी के अध्यक्ष वल्लभ भाई पटेल स्वयं थे. अब जब वहां पर इस पर बहस हुई तो अाम्बेडकर ने कहा कि अनुच्छेद 44 का मतलब बस इतना है कि राज्य कोशिश करेगा कि एक यूनिफार्म सिविल कोड बने. ये कहीं नहीं है कि राज्य उसको लागू करेगा. कोई भी राज्य पागल होगा अगर वो लोगों की इच्छा के विरूद्ध कानून लागू करे.

रवीश कुमार : लेकिन क्रिस्टोफर जेफरोलेट ने अाम्बेडकर को कोट करके कुछ और लिखा है.

फैज़ान मुस्तफा : दरअसल, संविधान सभा के कुछ मुस्लिम सदस्यों ने ये सुझाव दिया था कि धर्म की स्वतंत्रता में ये लगा दिया जाए कि स्वतंत्रता आपको सिर्फ निजी मामलों में होगी, प्राइवेट में अपने घर पर पूजा कीजिए, नमाज़ पढिए. लेकिन उस पर बड़ी बहस हुई, और उसमें ये हुआ कि धर्म एक निजी मामला नहीं हैं और आप दूसरे लोगों के साथ रिलीजन प्रेक्टिस करते हैं तभी आप देखते हैं कि दुर्गा पूजा पर जुलूस निकलते हैं, मोहर्रम के जुलूस निकलते हैं. वो अलग मुद्दा हो जाएगा कि धार्मिक मुद्दों का क्या दायरा हो. ये बात थी कि एक ऑप्शनल यूनिफार्म कोड हो, लोग चाहें तो उसे अपना लें. तो राज्य ने एक स्पेशल मैरिज एक्ट बनाकर ऑप्शनल सिविल कोड बना दी, लेकिन आप देखिए कि बहुत कम लोग स्पेशल मैरिज एक्ट  के तहत शादियां करते हैं. हिंदू भी जो शादियां करते हैं तो हिंदू मैरिज एक्ट के तहत शादियां करते हैं. यानि अपने पर्सनल लॉ के तहत करते हैं. इसमें एक दर्शनशास्त्र है. हम बहुत ये बात करते हैं कि एक व्यक्ति का राज्य से क्या रिश्ता हो. तो व्यक्ति को एक आटोनॉमी मिलनी चाहिए. जो उसके निजी मामलात हैं, मान लीजिए मैं किसी के साथ लिव-इन रिलेशनशिप कर रहा हूं, शादी नहीं करना चाहता, तो राज्य का कोई अधिकार नहीं है कि वो मुझे बताए कि आप इतना इम्मोरल काम क्यों कर रहे हैं. अगर दो लड़के अपने सेक्सुअल ओरिएंटेशन की वजह से साथ रहना चाहते हैं तो राज्य को इससे मतलब नहीं होना चाहिए. हमारे पास 90% मामलों में यूनिफार्मिटी है लेकिन क्या हम अपने सिविल जस्टिस सिस्टम से संतुष्ट हैं? हमारे यहां कहते हैं कि दीवानी का सिस्टम ऐसा है कि दीवाना बनाता है.

रवीश कुमार : हिंदू कोड बिल क्या आदर्श हो सकता है? सरकार ने तो कोई मॉडल  नहीं दिया है. क्या इसे लेकर हम मॉडल के तौर पर बहस कर सकते हैं?

फैज़ान मुस्तफा : जब हिंदू कोड बिल आया, उसमें भी जो एक्सट्रीम राइट था, जो आज यूनिफार्म सिविल कोड की बात कर रहा है, इन्होंने उसका बड़ा विरोध किया था. एक बिल के हिसाब से वो पास नहीं हो पाया. उसके तीन टुकड़े करने पड़े. राजेंद्र प्रसाद जो राष्ट्रपति थे, वो खुद उसके विरोधी हो गए. एस ए रिजल्ट, उसमें काफी कम्प्रोमाइज किए गए. जेंडर जस्टिस को उसमें बहुत कम करके देखा गया. अगर आप आज मुस्लिम लॉ का कोडिफिकेशन करना चाहते हैं तो जो कन्फेशन 1955 में आपने एक्सट्रीम राइट को दिए थे, हिंदू एक्सट्रीम राइट को, आज तक भी 2005 में आपको अमेंडमेंट करना पड़ा, सक्सेशन एक्ट में. उस अमेंडमेंट के बाद भी आज जो हिंदू सक्सेशन लॉ है, उसमें आज भी पूरी तरह स्त्रियों के साथ न्याय नहीं हो रहा. तो क्या आप मुसलमानों पर इन वन गो  कोई कानून लगा देंगे? अगर आप हिंदू मैरिज एक्ट लगाना चाहते हैं तो अब भी हिंदू मैरिज एक्ट में हिंदुओं के कस्टम्स का इतना रिकग्नीशन है कि इसमें आप कह सकते हैं कि ज्यादातर हिस्सा मिताक्षरा लॉ से आया है. और ये ज़्यादातर कम्युनिटीज को स्वीकार नहीं होगा. सरकार पहले एक ड्रॉप्ट बना ले कि क्या उनके पास ब्लू प्रिंट है ताकि लोग उस ड्रॉफ्ट पर रिएक्ट करें, उस पर रिसर्च हो लॉ कमीशन का.

जो भी हिंदू कोड बिल बना, सभी हिंदुओं पर, सभी राज्यों में वो समान रूप से लागू है?

फैज़ान मुस्तफा : हमारे देश में जो अलग-अलग कानून हैं, पर्सनल लॉ के मैटर में, वो इसलिए अलग नहीं है कि उनका धर्म अलग है, वो इसलिए हैं कि वो अलग-अलग राज्यों में रह रहे हैं. जो गोवा में रह रहा है हिंदू, उस पर हिंदू मैरिज एक्ट नहीं लग रहा है. वहां पर स्पेशल मैरिज एक्ट भी हमने एक्सटेंड नहीं किया. जो पांडिचेरी में रह रहा है, उस पर भी अभी फ्रेंच लॉ लग रहा है. हैदराबाद में मैं तीन शादियां अटैंड कर चुका हूं जहां लड़की की शादी अपने सगे मामा से हो रही है. जबकि हिंदू मैरिज एक्ट ये कहता है कि लड़का-लड़की अपने पिता की सात पुश्तों तक और माता की तरफ से पांच पुश्तों तक संबंधित न हों. लेकिन मदरसा में हैदराबाद में ऐसा हो रहा है. इस तरह से जो मुस्लिम लॉ पंजाब में है और जो मुसलिम लॉ कश्मीर में है, वो अलग है. एक समुदाय के लिए भी एक लॉ हम नहीं बना पाए हैं. सभी समुदायों के लिए एक लॉ बनाना प्रेक्टिकल नहीं है इस समय. अंग्रेजों की ये बहुत बड़ी भूल थी कि उन्होंने सोचा कि सारे देश के हिंदू एक समाज हैं, और सारे देश के मुसलमान एक समाज हैं. मुसलमानों में भी ऐसे समाज हैं जैसे कची मेमन हैं, खोजा हैं, जो विष्णु जी के 10 अवतारों में विश्वास रखते हैं. हिंदुओं के लिए तो लॉ रिफॉर्म हो गया 1955 में लेकिन कई मुसलमान अब भी शास्त्रिक हिंदू लॉ से गवर्न हो रहे हैं.

रवीश कुमार : क्या मुसलमानों के अलावा दूसरे समुदायों के भी अपने पर्सनल लॉ हैं?

फैज़ान मुस्तफा : क्रिश्चियनों के लिए क्राइस्ट एक्ट है. पारसी के लिए पारसी एक्ट है. हिंदू की व्याख्या हुई संविधान में भी कि जैन, पारसी, सिख भी हिंदू हैं, प्रकाश सिंह बादल का बीजेपी के साथ गठबंधन है पिछले 10 साल से. ये लोग अनुच्छेद 25 को जलाते थे, उसमें इनको सज़ा भी हुई. जैन अपने आपको अलग अल्पसंख्यक समुदाय मानते हैं. और उनको ये दर्जा दे भी दिया गया है. सिख और जैन भी खुद को अलग समुदाय मानते हैं. उनके ऊपर हिंदू लॉ लगाया जाता है. क्योंकि हिंदू लॉ कस्टम्स को अलाऊ करता है, इसलिए उनकी कस्टम्स भी आ जाती हैं. पंजाब में एक कस्टम है करेवा की, अगर हसबैंड मर जाए किसी औरत का तो उसकी शादी नहीं होती, उस पर किसी ने चादर डाल दी, या चूड़ी पहना दी, इस पर एक फिल्म भी बनी थी - एक चादर मैली सी. तो वो उसकी पत्नी हो जाती है. बिना शादी हुए. उसका पूरा उद्देश्य है कि संपत्ति कहीं बाहर ना जाए. तो हिंदू मैरिज एक्ट रिवाज़ों को रिकग्नाईज करता है. तो जो सिख रिवाज़ हैं उनको भी रिकग्नीशन मिल जाता है.

रवीश कुमार : अब तक हमने जितनी भी बातें की, लॉ कमीशन के जो सवाल हैं, उन सवालों का संबंध इन विभिन्न परंपराओं को देखने या नई व्यवस्था देने से है?

फैज़ान मुस्तफा : मुझे थोड़ा डिसअपाइंटमेंट हुआ इन सवालों को देखकर, बीएस चौहान बड़े लर्नेड जज हैं. लेकिन रिसर्च का पहला काम ही ये होता है कि आप अच्छा क्वेश्चनएयर बनाएं. इस रिसर्च से जो सवाल सामने आए हैं, उससे कोई बहुत अच्छी चीज़ें निकलकर नहीं आएंगी. इसलिए क्योंकि सवाल ये होने चाहिए कि पर्सनल लॉ क्या है. क्या पर्सनल लॉ डिवाइन है? क्या पर्सनल लॉ होने से समाज का उत्थान हेता है? एक सवाल है प्रापर्टी के बारे में. लेंडेड प्रापर्टी में, एग्रीकल्चर लैंड में, ये तो चलिए आप बात कर रहे हैं कि साहब धर्म ने औरतों को हुकूक नहीं दिए. लेकिन इस्लाम पहला धर्म था जिसने कहा था कि औरतें प्रापर्टी नहीं हैं. उन्हें प्रापर्टी इनहेरिट करने का राइट है. हां, उन्हें आधा दिया बेटे के मुकाबले में. लेकिन हमने जो अपने देश की स्वतंत्रता के बाद, ज़मींदारी एबोलीशन, लैंड रिफार्म्स लॉ बनाए, उसमें हम बेटे की मौजूदगी में बेटी को आज भी शेयर नहीं देते हैं. हमारे लॉ इतने जेंडर अनजस्ट हैं. भारत सरकार का जो 29 पेज का एफिडेविड है...इन्होंने कहा कि हम जेंडर जस्टिस के लिए ट्रिपल डायवोर्स को, पॉलिगेमी को, हलाला को हटाना चाह रहे हैं, इंटरनेशनल कन्वेनेंट है. इंटरनेशनल कन्वेनेंट जो है एलिमिनेशन ऑफ आल फार्म्स ऑफ डिस्क्रिमिनेशन अगेंस्ट वूमेन 1979 का, भारत में इसे 1993 में जाकर रेटिफाई किया. रेटिफाई करते समय जो उसके सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद थे, 5 और 16, उस पर ये रिजर्वेंशन कर दिया कि हम ये इक्वेलिटी इन फैमिली तब तक नहीं करेंगे, जब तक हमारे देश के सभी समाज के लोग इस पर राज़ी न हो जाएं. यानि आपने इंटरनेशनल ट्रीटी को, वूमेन कन्वेंशन को भी साइन करते हुए ये कह दिया कि आप तब तक कुछ नहीं करेंगे जब तक कॉन्सेंसस ना बन जाए. यानि आपने पर्सनल लॉ को प्रोटेक्ट किया.

रवीश कुमार : मुस्लिम पर्सनल लॉ का संबंध या इस विवाद का संबंध तीन तलाक या बहुविवाह से ही है क्या?

फैज़ान मुस्तफा : ये केस कैसे शुरू हुआ, इसकी कहानी नहीं आ रही मीडिया में, ये केस मुस्लिम लॉ के बारे में नहीं था. ये केस हिंदू लॉ के बारे में था जहां एक हिंदू फीमेल ने कहा कि....ध्यान दीजिए कि 1955 में हम महिलाओं को कापरसेनर नहीं बना पाए था. उनको सिर्फ सेल्फ एक्वायर्ड प्रापर्टी में जो कि आदमी खुद अपनी ज़िंदगी में लेगा, उसमें हिस्सा दिया था. जो पैतृक संपत्ति थी, उसमें हिस्सा नहीं मिला था. उसको हम कर्ता नहीं बना पाए थे. 2005 का ये अमेडमेंट हुआ, आंध्र प्रदेश और कई हाई कोर्ट का ये फैसला हुआ जिसमें ये कहा कि हम इस लॉ को बैक डेटेड मानेंगे. क्योंकि ये एक सोशल वेलफेयर लेजिस्लेशन है. स्त्रियों के लिए ये जेंडर जस्टिस कर रहा है. ये अपील सुप्रीम कोर्ट में जाती है. उस केस में सुप्रीम कोर्ट उस हिंदू औरत के विरूद्ध फैसला देते हैं. फैसला देते हुए जजमेंट के सेकेंड पार्ट में वो कहते हैं कि कुछ लॉयर ने कहा कि मुस्लिम लॉ बुरा है, इसमें पॉलिगेमी है, ट्रिपल तलाक है, इसलिए हम ये डायरेक्ट कर रहे हैं कि एक अलग पीआईएल  फाइल की जाए, और एटॉर्नी जनरल को, नालसा को इसमें नोटिस इश्यू किया जाए. सुप्रीम कोर्ट ने ये अजीब किया कि हिंदू महिला को तो इस केस में हक नहीं दिया और जो बिलकुल अनरिलेटेड थी कि कोई मुस्लिम औरत कोर्ट के सामने नहीं थी, उसमें नोटिस इश्यू हो गया और उसमें ये पीआईएल फाइल हो गई. उसके बाद जब ये न्यूज अखबारों में आई तो जो शायरा बानो हैं, मुझे लगता है कि इनका केस कोई कर रहा होगा, उन्हें लगा होगा कि ये अच्छा मौका है कि मैं भी इस केस को ज्वाइन कर लूं. अब जब वो इस केस को ज्वाइन करते हैं तो उनकी कोई 93 पेज की पिटीशन है और उस पिटीशन में उनके पति नंबर 5 के रिस्पॉन्डेंट हैं. ये पॉलिगेमी से इफेक्टेड नहीं है. शायरा बानो के हसबैंड ने 2 शादियां नहीं कर रखी हैं, ये हलाला से इफेक्टेड नहीं है. पर्सनल लॉ बोर्ड बेवजह इसमें कूद गया. ये उनकी टेक्टिकल मिस्टेक थी. उसके बाद जमात उलेमा हिंद वगैरह आ गए. पर्सनल लॉ बोर्ड के एफिडेविड में भी कई बेवकूफियों वाली बात आ गईं. अब सरकार ने जो बात की जेंडर जस्टिस वाली, वो बड़ी अजीब मुझे लगती है. ये कहा जा रहा है कि पॉलिगेमी इज इंज्यूरियस टू पब्लिक मोरल. दो लोग लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे हैं उसमें इम्मोरल नहीं है. उसे कानून वैद्यता है. अगर दो लोग शादी कर लेते हैं, तो वो इम्मोरल कैसे है. 2009 में लॉ कमीशन की 227वीं रिपोर्ट में उन्होंने कहा कि ये एक प्रथा चल गई है कि जिन हिंदुओं को दूसरी शादी करने का अधिकार नहीं है, वो धर्म परिवर्तन करते हैं और मुसलमान बन जाते हैं, शादी कर लेते हैं. सिर्फ दो केस वो रिपोर्ट कर पाए अपनी रिपोर्ट में. भजनलाल के बेटे का केस. इससे पहले हेमा मालिनी ने इसका दुरुपयोग किया. करुणानिधि हैं, राम विलास पासवान हैं, मुलायम सिंह यादव हैं. हमने 1955 में बिगेमी को बैन कर दिया लेकिन आंकड़ों में ये पाया गया कि हिंदुओं में मुसलमानों से ज़्यादा इसका प्रचलन है. अमेरिका में जहां इसे लंबे वक्त से आउटलॉ कर दिया गया है वहां लंबे लेख छप रहे हैं 2040 तक दोबारा अमेरिका में रिस्ट्रिक्टेड पॉलिगेमी लाई जाए. क्या जेंडर जस्टिस पहली बीवी का ही होना है, दूसरी बीवी के साथ नहीं. जस्टिस काटजू का फैसला है कि अगर कोई दूसरी बीवी है तो वो मिस्ट्रेस है और उसको कोई राइट नहीं दिया गया. आज के भी मुस्लिम लॉ में अगर किसी मुसलमान ने दूसरी शादी की है तो राइट ऑफ रेसिडेंस है, राइट ऑफ मेंटेनेंस है, और उसको ये भी राइट है कि अलग रहे, सास के साथ न रहे. लेकिन अभी कुछ दिन पहले कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा कि अगर हिंदू लड़की अपने पति को उसके माता-पिता से अलग करती है तो वो क्रुअल्टी माना जाएगा और वो उसे इस आधार पर तलाक दे सकता है. ये जो शायरा बानो का केस है, इसमें पति ये ही कह रहा है कि शायरा बानो इनसिस्ट कर रही थीं कि तुम मेरे मां-बाप के साथ रहो, वो नहीं रहा इसलिए उनमें झगड़ा हुआ. तो ये जो बायस का मैटर है कि जब हिंदू लॉ से रिलेटेड मैटर आए तो हम एक तरीके से उसे देखें. मुस्लिम लॉ से रिलेटेड मैटर आए तो दूसरे तरीके से देखें. इससे क्या होगा कि डिबेट को फेनेटिक्स हाईजैक कर लेंगे और ये देश के लिए बुरा होगा.

रवीश कुमार : क्या मुस्लिम लॉ डिवाइन है. क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड खुद से रिफार्म करने में चूक गए.

फैज़ान मुस्तफा : लॉ के लिए एक और शब्द है फिक़. फिक़ का मतलब है कि इसमें ह्यूमन एलिमेंट ज़्यादा है. शरिया में डिवाइन एलिमेंट होता है. इस्लामिक लॉ के बहुत से सोर्स हैं. कुरान उसमें से एक सोर्स है. प्राफेट की जो सेयिंग्स हैं वो सोर्स है. उसके अलावा जितने भी सोर्स हैं, यानि जस्टिस ओपिनियन, एनालॉजिकल डिडक्शन, जस्टिस प्रिफरेंस, पब्लिक इंटरेस्ट, इसमें काफी ह्यूमन कंटेंट है. भारत में जो लॉ है वो इस्लामिक लॉ नहीं है. ये हनाफी लॉ है. उज़बेकिस्तान के एक उलेमा हैं, उनकी लिखी किताब पर हनफी चलता है. उसको फिर अंग्रेज़ों ने, विलियम जान्स ने ट्रांसलेट करवा लिया. अनुवाद भी सीधा अरबी से नहीं हुआ. अरबी से पहले पर्शियन में हुआ, पर्शियन से इंग्लिश में हुआ. उसमें फिर बहुत सी गलतियां हो गईं. फिर उसको अंग्रेज़ जजों ने समझा कि ये लॉ है. वो लॉ नहीं था कोई कोडिफाइड. और ये लॉ जो लार्जली बेस्ड है ज्युरिस्ट ओपिनियन पर, मतलब विद्वान लोगों की राय पर आधारित है, इसलिए ह्यूमन केंटेंट बहुत ज़्यादा है. उसमें उन्होंने 11वीं 12वीं सदी के बाद कहना शुरू कर दिया कि जो कुछ पहले लोगों ने कह दिया हम उसी को फॉलो करेंगे. इसकी वजह से लॉ में जो इवोल्यूशन होना चाहिए था, वो रुक गया. कई चीज़ों में ये हो गया कि जो ओरिजनल लॉ था, वो ज़्यादा बेहतर था.

रवीश कुमार : मुस्लिम महिलाओं के हक को धर्म के दायरे में ही क्यों देखा जाता है.

फैज़ान मुस्तफा : जैसे डॉवरी प्रोहिबिशन एक्ट है, जो डोमेस्टिक वॉयलेंस एक्ट है, जो क्रिमनल लॉ है वो एक होता है सबके लिए. लेकिन डोमेस्टिक वॉयलेंस, चाइल्ड मैरिज नहीं रुके. जो लॉ है वो कल्चर के साम्राज्य की छोटी सी कॉलोनी है. एक शक्तिविहीन कॉलोनी है. तो ये सोचना कि हम कोई भी लॉ बनाएंगे, उससे जेंडर जस्टिस आ जाएगा, ये हम लॉ से ज़्यादा उम्मीद लगा रहे हैं.

रवीश कुमार : पर्सनल लॉ बोर्ड की जो चिंता है कि यूनिफार्म सिविल कोड से मुसलमानों का कोई भारी नुकसान हो जाएगा, क्या ये सही है?

फैज़ान मुस्तफा : पूरे देश के मुसलमानों को मैं बता दूं कि अमेरिका में, विदेशों में एक ही लॉ है और वहां पर इस्लाम खूब फल-फूल रहा है. लॉ बनने से कुछ नहीं होता है. 1981 से कई हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि तीन तलाक इनवेलिड है.


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