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This Article is From Feb 17, 2015

रवीश कुमार : ऑनलाइन शॉपिंग की कामयाबी का अंधेरा

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    फ़रवरी 17, 2015 15:36 pm IST
    • Published On फ़रवरी 17, 2015 12:39 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 17, 2015 15:36 pm IST

कैसे और किस साल से हर फरवरी में योगेश की दुकान पर जाना होने लगा ठीक से याद नहीं है। जब भी गया योगेश बाहर निकलकर मुस्कुराते हए हाथ मिलाने आ जाते थे। इस बार भी आए, लेकिन हाथ मिलाने से पहले ही उनकी आंखें नम दिखीं। बस अब तो शॉप क्लोज़ कर रहे हैं। जो सामान है उसे औने-पौने दाम पर बेच रहा हूं। इतना कहते ही योगेश का गला भर आया। हम तो फरवरी की सेल की उम्मीद में गए थे कि मगर योगेश की नम मुस्कुराहट ने थोड़ा हिला दिया। दुकान के एक कोने में ले जाकर पूछने लगा कि सब ठीक तो है न। दुकान क्यों बंद कर रहे हैं।

शायद मेरा सवाल और चुभ गया। कहने लगे कि ऑनलाइन ने हम रिटेल वालों को मार दिया है। पिछले साल ही चालीस परसेंट का नुकसान हो गया था। हर महीने नुकसान बढ़ता ही जा रहा था। ग्राहक आता था और व्हाट्स अप पर तस्वीरें लेकर बाहर चला जाता था। हमें तो कंपनी वाले मार्जिन ही नहीं देते तो हम कहां से छूट दें। ईमान से धंधा करना मुश्किल हो गया है भाई साहब। ऑनलाइन में हमने भी पता किया कि कैसे इतने कम दाम पर माल बेच रहे हैं।

मुझे लगता है कि असली ब्रांड नहीं है। इतना कहते ही योगेश तरह-तरह की कमीज़ निकालकर दिखाने लगे। देखिये यही कमीज़ आपको इस ब्रांड में मिलेगी। उस ब्रांड में मिलेगी। एकमद सेम टू सेम। अगर मैं चाहूं तो इसी कमीज पर उनका लेवल लगाकर बेच सकता हूं। कई लोग करते हैं। पर मुझे न ईमानदारी की नींद चाहिए। मैं अपने बच्चों से आंखें नहीं चुराना चाहता। मैं देखता ही रह गया और मेरी दुकान किसी और ने लूट ली।

अपने ग्राहकों से बचकर योगेश अपनी व्यथा-कथा सुनाए जा रहे थे। मैं चुपचाप उनकी आंखों की नमी को महसूस करने लगा। बहुत दिनों से निवेशक की तलाश कर रहा था। दुकान ही बेच दी भाई साहब। फिक्स डिपोज़िट कर लिया है। दो बच्चे हैं। कुछ न कुछ हो जाएगा। मैं बेइमानी से तंग आ गया हूं। पांच साल दिन रात एक कर इस दुकान को कायम किया था। कोई ग्राहक नाराज़ नहीं गया। पर क्या करें। किसी ने सोचा नहीं था कि ऑनलाइन हमें निगल जाएगा। आप देख लेना जी, इस शॉपिंग माल की कई दुकानें बंद होने वाली हैं। ग्राहक जूते की तस्वीर लेता है, साइज़ लेता है और मंगाता है किसी ऑनलाइन शॉप से। हम कैसे टिकेंगे। देखिये मेरी दुकान बंद होते ही दस लोग बेरोज़गार हो गए।

जैसे-जैसे योगेश ने बताया मैं वैसे-वैसे ही लिख रहा हूं। कई बार हम बाज़ार या दुकानदार को दुश्मन भाव से देखने लगते हैं। भूल जाते हैं कि इसी बाज़ार में कई दुकानदारों से ऐसे रिश्ते बन जाते हैं, जो शायद कई परिवारों में पीढ़ियों तक चलते हैं। पैसा दिया न दिया, सामान ले आए। बाद में देते रहे। पसंद आ गई चीज़ तो बटुए का अंदाज़ा होने के बाद भी दुकानदार पकड़ा देता था। ले जाइये, देते रहिएगा। योगेश की आपबीती ने मन ख़राब कर दिया। गया तो सेल में कम दामों पर कमीज़ और स्वेटर ख़रीदने, लेकिन मुझसे लिया नहीं गया। योगेश कहते रहे कि ले लीजिए। कुछ भी दे दीजिएगा। किसी के कमज़ोर वक्त का फ़ायदा नहीं उठाना चाहिए। देखकर रख दिया तब जब पिछले पांच साल में उनकी दुकान में इस बार हर चीज़ सबसे कम दाम पर मिल रही थी। योगेश जितना भावुक थे उतना हम भी हो गए। अपना नंबर दिया और सर झुकाकर चुपके से निकल आया कि बात होती रहेगी। जाते जाते मन नहीं माना। एक बार लौट कर आया और योगेश को गले लगा लिया। हमारी ज़िंदगी में एक दुकानदार भी साझीदार होता है।

भारी मन से निकलकर पास एक और मार्केट में गया। बहुत दिनों से गर्ग साहब की दुकान पर नहीं गया था। रिटेल में विदेशी निवेश पर बहस के दौरान गली-गली में घूमकर दुकानदारों से जानकारी और प्रतिक्रिया लेने के क्रम में गर्ग साहब से दोस्ती-सी हो गई थी। इतनी दोस्ती कि सामान लेते-लेते गुड़ की चिक्की तोड़कर खा ही लेता था। वह भी लिहाज़ में कहने लगते कि पूरा लो जी। कोई नहीं। ये तो घर की बात है। तब गर्ग साहब सुपर स्टोर के आने से किराना दुकानों की बिक्री में आ रही गिरावट से परेशान थे। इस बार देखते ही गर्ग साहब कुर्सी से उठे और कहा कि दुकान तो बेसमेंट में चली गई। चलिए ले चलता हूं।

गर्ग साहब की किराना की दुकानी सुपर स्टोर की शक्ल ले चुकी थी। सुपर स्टोर की तरह जगह विशालकाय तो नहीं थी मगर कम जगह में ही स्टैक लगाकर उन्होंने आज के ग्राहकों के हिसाब से दुकान को ढाल लिया है। गर्ग साहब बताने लगे कि पास में जो फैशल स्टोर है उसे हमने आनलाइन करा दिया है। आनलाइन से आर्डर आता है जी  और हम लिप्सिटक, ब्रश, काजल, सजावट के सामान वगैरह डिसपैच कर देते हैं। देखो जी, समय के साथ तो बदलता ही पड़ता है। जिस गर्ग साहब को चादर में लिपटे, आटा और चावल की गर्द से रंगे हुए देखा था वो अब बिजनेसमैन लग रहे थे।

पर गर्ग साहब के पास बदलने के संसाधन भी थे। उसी मार्केट में कई दुकान होने के कारण उनके पास संभलने की पूंजी थी। पर एक ही दिन करीब-करीब एक ही बाज़ार में बनने-बिगड़ने की कहानी ने जीवन का मतलब समझा दिया। गर्ग साहब के लिए खुश हुआ तो योगेश के लिए मन भारी रहा। हम दोनों रिक्शे पर मायूस से बैठे रहे। यही कहते रहे कि इतनी प्रतिकूल परिस्थिति में योगेश कितने संतुलित लग रहे थे। संभलकर बोल रहे थे। बहुत टूटे हुए नहीं लग रहे थे। दिल से एक आवाज़ निकली कि देखना एक दिन वह फिर अच्छा करेंगे। जो समभाव में रहता है उसका भाव आसमान छूता है। कभी-कभी अपने दुकानदारों का भी हाल जान लिया कीजिए। वो भी हमारे समाज का हिस्सा हैं।

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