अगर चुनाव जीतने की कोशिश राष्ट्रीय कर्तव्य है, तो राष्ट्रवाद क्या चुनाव जीत जाना है...?

अगर चुनाव जीतने की कोशिश राष्ट्रीय कर्तव्य है, तो राष्ट्रवाद क्या चुनाव जीत जाना है...?

"चुनाव जीतना राष्ट्रीय कर्तव्य है..." प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कथन मुझे हाल-फिलहाल के तमाम राजनैतिक कथनों में सैद्धांतिक आभा लिए लगता है. मैं गूगल नहीं करना चाहता कि यह कथन प्रधानमंत्री मोदी से पहले किसने कहा है. उसका कोई मतलब नहीं है. सूत्र वाक्यों में बोलने की यह अदा बताती है कि प्रधानमंत्री ख़ुद को नेतृत्व की भूमिका में बहुत गंभीरता से लेते हैं. वह नेतृत्व की भूमिका को लेकर कन्फ्यूज़ नहीं हैं. चाहते हैं कि पार्टी का हर कार्यकर्ता उन्हें नेता की तरह देखे और वह ख़ुद को नेता की तरह ही प्रस्तुत करते हैं. व्यंग्यात्मक संक्षेप में कह सकते हैं युगपुरुष की तरह.

जब भी प्रधानमंत्री अपनी पार्टी के भीतर नेताओं-कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हैं, तो सख़्त हेडमास्टर से लेकर राजनैतिक विचारक की मेज़ से बात करते लगते हैं. उन बातों की सख़्त समीक्षा भी होती है, लेकिन इससे प्रधानमंत्री की पार्टी नेतृत्व के प्रति भूमिका की अपनी समझ पर कोई असर नहीं पड़ता. अमित शाह और नरेंद्र मोदी की जोड़ी लगातार कार्यकर्ताओं को संबोधित कर रही है, सम्मेलन हो रहे हैं.

हाल ही में देशभर में 500 से अधिक नए दफ्तर बनाने का ऐलान भी इन दोनों की नवीन स्मृति निर्माण की प्रक्रिया से जोड़कर देखा जाना चाहिए. जहां एक तरफ कांग्रेस और वामपंथ स्मृति मोह के पुराने जाल में फंसे हुए स्मृति लोप का शिकार हो रहे हैं, वहीं बीजेपी के ये दोनों नेता पुराने मोह से लगातार पार्टी को आज़ाद कर रहे हैं. इन दोनों ने दो साल पहले बीजेपी को बाहर से बदल दिया, अब गुजरात से दिल्ली आकर भीतर से बदल रहे हैं. कह सकते हैं कि अपने लिए कर रहे हैं, मगर देख सकते हैं कि यह पार्टी के लिए भी हो रहा है.

वहीं विरोधी कांग्रेस अंदर और बाहर से जड़ हो गई है. कांग्रेस ने वैचारिक और राजनैतिक आलस्य को संस्थानिक चरित्र प्रदान किया है. उसके पास कोई नई बात या पुरानी बातों की ही कोई नई पैकेजिंग नहीं है, इसीलिए कांग्रेस जहां भी 10-15 साल से हार रही है वहां वापसी नहीं कर पाई है. बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल का उदाहरण आप देख सकते हैं. बीजेपी के पास एक राज्य है दिल्ली, जहां वह 15-20 साल से सत्ता में वापसी नहीं कर पाई है. कांग्रेस कह सकती है कि अगर चुनाव जीतना बीजेपी का राष्ट्रीय कर्तव्य है, तो बाकी जो बचता है, वह कर्तव्य हमारा है और वह है चुनाव हारना...!

दूसरी तरफ बीजेपी ने अपनी चुनावी तैयारी शुरू कर दी है. बीजेपी राष्ट्रवाद पर ज़ोर दे रही है. चुनाव जीतने को राष्ट्रीय कर्तव्य बताकर उसने जाने-अनजाने राष्ट्रवाद की नई व्याख्या पेश कर दी है. इस बयान से लगता है कि राष्ट्रवाद और चुनाव जीतने में कोई अंतर नहीं. बाकी दल राष्ट्रवादी नहीं हैं. साफ है, सारा ज़ोर चुनाव जीतने पर है, किसी राजनैतिक नैतिकता के जाल में फंसकर बेड़ा ग़र्क करना नहीं है. बीजेपी की अब यही सैद्धांतिक व्यावहारिकता है. हम जो करेंगे, चुनाव जीतने के लिए करेंगे. राष्ट्रवाद लक्ष्य कम, चुनावी फ़ार्मूला ज़्यादा नज़र आता है. दो साल पहले 'टीम इंडिया, वन इंडिया' के कॉरपोरेट टाइप के जुमले को बीजेपी ने छोड़ दिया है. बीजेपी पहले भी राष्ट्रवाद के सांचे से ख़ुद को परिभाषित करती रही है. उसका राष्ट्रवाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रवाद से आता है. चुनाव जीतने को राष्ट्रहित और राष्ट्रवाद से जोड़ने की कलाबाज़ी प्रधानमंत्री ही कर सकते हैं. उनके विरोधियों के बस की बात नहीं है, जो आलोचना पेश करने से पहले अख़बारों में छपे संपादकीय लेख पढ़ने लगते हैं. इंतज़ार रहेगा कि विरोधी खेमे से कौन नेता उनकी इस बात की सैद्धांतिक आलोचना पेश करता है.

तब तक बीजेपी 'चुनाव जीतना राष्ट्रीय कर्तव्य है' को दफ़्तरों और सम्मेलनों के शामियानों में ठीक उसी तरह से लिखकर टांग सकती है, जैसे स्कूलों और पुराने स्टेशनों पर 'आलस्य ही शरीर का सबसे बड़ा दुश्मन है' टाइप कथन लिखे होते हैं. कोई नेता जब अपने स्वर्णिम दिनों में चुनाव जीतने पर इतना फोकस कर रहा हो, उसे किसी भी राजनैतिक विश्लेषक को गंभीरता से लेना चाहिए. विपक्ष अभी तक बैरोमीटर लेकर 'मोदी लहर' नापने में लगा है, अमित शाह और नरेंद्र मोदी के दिमाग़ी कैलेंडर में 2019 की तारीखें फड़फड़ाने लगी हैं.

दोनों नेता लगातार अपने कार्यकर्ताओं को याद दिला रहे है कि वे पार्टी में क्यों हैं. सूत्र वाक्यों के ज़रिये कार्यकर्ताओं में वैचारिक भ्रम दूर करते रहते हैं कि वे एक दल से जुड़ने भर से समाज की सेवा नहीं कर सकते हैं. अमित शाह और नरेंद्र मोदी बता रहे हैं कि बिना सत्ता हम कुछ भी नहीं है. इन्हें पता है कि आर्थिक नीतियों में कांग्रेस और बीजेपी में बुनियादी अंतर नहीं बचा है. आर्थिक आधार पर एक दूसरे से अलग करने की संभावना कम होती जा रही है, इसलिए बीजेपी राष्ट्रवाद के ज़रिये ख़ुद को सबसे अलग करना चाहती है. वरना भारतीय राजनीति में अब कोई फ़ैशन डिज़ाइनर ही नेताओं और कार्यकर्ताओं के अलग कपड़े सिलकर यह चमत्कार कर सकता है. सभी नीतिगत रूप से एक हैं. सिर्फ उस एक बात को अनेक तरीके से बोलने वाले नेता अलग-अलग हैं.

चुनाव हारने के बाद राज्यस्तरीय नेताओं को सरदार क्या सज़ा देगा, मालूम नहीं, लेकिन जीतने को राष्ट्रीय कर्तव्य बताकर नेतृत्व ने बता दिया कि इसकी ज़िम्मेदारी सिर्फ दो लोगों की नहीं है. हमारे सहयोगी अखिलेश शर्मा ने बताया है कि पहली बार 29 राज्यों की कोर कमेटी के 400 सदस्यों का राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया गया है. जो लोग बीजेपी में सिर्फ मोदी और शाह को देखने के अभ्यस्त हैं, उन्हें देखना चाहिए कि ये दोनों पार्टी में किस तरह नए सिस्टम का निर्माण कर रहे हैं. इसी के साथ दोनों अपने प्रभावो का कुछ हिस्सा हस्तांतरित भी कर रहे हैं, ताकि सबको लगे कि कोर कमेटी नेतृत्व के लिए आंख और कान हैं. बीजेपी में नेता एक है, लेकिन टीम कई प्रकार की हैं और वे टीमें भी अपने आप में नेता हैं...!

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