धार्मिक समानता है तो आर्थिक असमानता की चिंता नहीं...

25 हज़ार महीने का कमाने वाले टॉप टेन में आ गए हैं? प्रधानमंत्री कहते हैं कि वे आराम नहीं करते हैं, काम ही काम करते हैं तब फिर ये नतीजा क्यों है? आर्थिक असमानता इतनी भयंकर क्यों हो गई, जिसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती है?

टॉप टेन में आना कितनी बड़ी बात होती है. एक से दस के बीच आने की होड़ लगी रहती है. देश के नंबर वन अमीर तो दुनिया के दस अमीरों में शामिल हो गए ये और वो. क्या आप उस व्यक्ति को इसी तरह से बधाई दे सकते हैं जो महीने का पचीस हज़ार कमाता है. इस सूचना के बाद पचीस हज़ार कमाने वाले ख़ुद को कैसे देखेंगे? अभी तक वे खुद को गरीब या निम्न मध्यम वर्ग का हिस्सा समझते होंगे लेकिन जब उन्हें पता चलेगा कि वे भारत में चोटी के दस लोगों में शामिल हैं और कमाई पचीस हज़ार प्रति माह ही हैं तो ख़बर देने वाले को मिठाई खिलाएंगे या खदेड़ देंगे? 

क्या यह वाकई बधाई देने वाली बात है कि 25 हज़ार महीने का कमाने वाले टॉप टेन में आ गए हैं? प्रधानमंत्री कहते हैं कि वे आराम नहीं करते हैं, काम ही काम करते हैं तब फिर ये नतीजा क्यों है? आर्थिक असमानता इतनी भयंकर क्यों हो गई, जिसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती है? भारत की ये हालत है कि मात्र पचीस हज़ार कमाने से समाज के ऊपर के दस प्रतिशत में आ जाता है? तब तो चोटी के दस लोगों की भी क्या हालत होगी, पता चला कि ऊपर जाकर भी घर का खर्चा नहीं चल रहा है. नीचे के नब्बे फीसदी की हालत का अंदाज़ा कौन ही लगा सकता है. तब फिर प्रधानमंत्री बताएं कि उनकी अधीरता, बेचैनी का क्या नतीजा निकला है? गांधी जी ने कहा था कि असमानता की ऐसी हालत में राम राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती है, जिसमें केवल कुछ लोग अमीर हो रहे हैं और जनता के पास खाने तक के भोजन नहीं हैं. 

“हमें आराम ही तो नहीं करना है. आज भी हम अधीर हैं. बेचैन हैं. आतुर हैं क्योंकि हमारा मूल लक्ष्य भारत को उस ऊंचाई पर पहुंचाना है जिसका सपना देश की आज़ादी के लिए मर-मिटने वालों ने देखा था.” 2022 का साल आधा बीत रहा है, इस साल किसानों की आमदनी को डबल करने का एलान हुआ था, इस पर अब बात ही नहीं होती है. देश की आम जनता इस महंगाई का सामान बहादुरी से कर रही है लेकिन उसके चुप रहने से महंगाई से बढ़ रही असमानता ग़ायब नहीं हो जाती है. क्या हम उन सभी लोगों को टाप टेन में पहुंचने की बधाई दे सकते हैं जिनकी कमाई महीने की पचीस हज़ार रुपये है?

Institute for Competitiveness को खारिज करने से पहले  एक बार सोच लीजिए कि इसे  डॉ बिबेक देबराय के करकमलों द्वारा जारी की जो भारत के प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन हैं. इस रिपोर्ट में उनकी भी एक चिट्ठी है. जो आंकड़े हैं वो भारत सरकार के ही सर्वे के आंकड़े हैं. ये संस्थान हार्वर्ड बिज़नेस स्कूल के ग्लोबल नेटवर्क का हिस्सा है और इसका दफ्तर हरियाणा के गुरुग्राम में है. यह संस्था भारत में मौलिक शोध को प्रोत्साहित करने का दावा करती है. इसके कवर पर यह तस्वीर सारी कहानी कह देती है. एक तरफ एक आदमी है और दूसरी तरफ दस ग्यारह लोग हैं. अकेला खड़ा अमीर है. यानी इस देश में समृद्धि का यही प्रतिशत है, केवल एक बंदा अमीर है. 

कोई नई बात नहीं है, असमानता को लेकर ऐसी अनेक रिपोर्ट आ चुकी है जिनमें कई बार दिखाया जा चुका है कि भारत में आबादी के ऊपरी हिस्से का जो एक प्रतिशत है वही अमीर होता जा रहा है. बाकी कम कमाने वाले और भी कम कमाते जा रहे हैं. 

2022 की विश्व असमानता रिपोर्ट में बताया गया है कि पूरे देश की कुल कमाई में 57 प्रतिशत हिस्सेदारी चोटी के दस प्रतिशत लोगों की थी.  2022 की रिपोर्ट के अनुसार नीचे की पचास फीसदी आबादी का राष्ट्रीय आमदनी में केवल 13 प्रतिशत हिस्सा था.  कमाने वालों में 15 प्रतिशत ऐसे हैं जो महीने का 5000 से भी कम कमाते हैं.

अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी पहले ही यह बात बता चुके हैं और इस रिपोर्ट में भी उनका हवाला दिया गया है.पिकेटी ने 1922 से 2015 के बीच आयकर से संबंधित आंकड़ों का अध्ययन कर दिखाया है कि भारत में आज़ादी के पहले जितनी असमानता थी, उससे कहीं ज्यादा असमानता इस वक्त है. इस संस्थान की रिपोर्ट में  periodic labour force survery PLFS के 2019-20 के आंकड़ों के आधार पर दिखाया गया है कि एक महीने में पचीस हज़ार कमाने वाला व्यक्ति भारत में चोटी के दस प्रतिशत लोगों में आता है. इसी दस प्रतिशत में निम्न मध्यम वर्ग है, मध्यम वर्ग है, अमीर हैं और सुपर अमीर भी हैं. 

चोटी के दस प्रतिशत लोगों में पहुंचकर भी महीने का पचीस हज़ार कमाने वाला चैन से नहीं है. लोन दे पा रहा है न फीस दे पा रहा है. प्राइवेट स्कूल से बच्चों के नाम कटाकर सरकारी में डाल रहा है. जब वह व्यक्ति ग्रामीण इलाकों के प्राइवेट अस्पातल में जाता है तो स्वास्थ्य का औसत खर्चा 27000 रुपए है. और जब शहरों के प्राइवेट अस्पताल में आता है तब औसत खर्चा 38000 रुपये हो जाता है.स्वास्थ्य पर खर्चा इतना बढ़ गया है कि इस कारण भी लोग ग़रीबी में धकेले जा रहे हैं. आम आदमी जो भी कमाता है उसका 13 प्रतिशत हिस्सा इलाज पर ख़र्च हो जाता है. यह तबका कब ग़रीबी में चला जाता है और कब निकलता है, इसके बारे में जानने की व्यवस्था होनी चाहिए. ऐसा रिपोर्ट में कहा गया है.भारत की आबादी के नीचले हिस्से के दस प्रतिशत लोगों की कुल कमाई से तीन गुना ज़्यादा टॉप के एक प्रतिशत लोग कमाते हैं. 

समाज में आर्थिक असमानता बढ़ने पर अपराध और गुस्सा बढ़ने लगता है. दूसरी तरफ़ लोगों को दिखाने के लिए बराबर होने की नकल बढ़ जाती है. शादी ब्याह में लोग कर्ज़ लेकर खर्च करने लगते हैं ताकि दिखा सके कि वे भी किसी से कम नहीं हैं. राशन के लिए पैसा नहीं है, शामियाने की सजावट हो रही है. इस रिपोर्ट में असमानता दूर करने के कई उपाय बताए गए हैं जो हमेशा ही इस तरह की रिपोर्ट में बताए जाते हैं. जैसे शहरों में ग़रीबी कम नहीं हो रही है तो यहां भी मनरेगा शुरू हो, न्यूनतम मज़दूरी की दर और बढ़े और लोगों के लिए यूनिवर्सिल बेसिक इंकम की व्यवस्था की जाए.

इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि  जितने लोग नियमित रुप से काम करते हैं यानी सैलरी मिलती है उनकी महीने की औसत कमाई शहरों में 19,194 रुपये है और गांवों में 13,912 रुपये है. जो लोग अपना रोज़गार करते हैं, उनकी महीने की कमाई 10,538 रुपये थी
दोनों की आंकड़े जुलाई से सितंबर 2019 के बीच हैं जब PLFS का सर्वे हुआ था. 

लेकिन हम इसके आधार पर अनुमान तो लगा ही सकते हैं कि 2022 के साल में लोगों की कमाई की क्या हालत होगी? महंगाई के अनुपात में देख सकते हैं कि कितने लोग ग़रीबी का जीवन जीने लगे हैं. 25,000 रुपया महीना कमाने वाले का घर इन दिनों कैसे चल रहा है, क्या वह टाप टेन में आने की खुशी महसूस कर सकता है, हम जवाब जानते हैं मगर पूछने में कोई बुराई नहीं.
25000 कमाने वाली केस स्टडी इन कैसे घर चलता है, स्कूल की फीस वगैरह वह गरीब मानता है या अमीर समझता है, मिडल क्लास समझता है या गरीब समझता है, क्या वह देख पा रहा है कि जब उसका घर नहीं चल पा रहा है तो बाकी का कैसे चलता होगा.

इंस्टीट्यूट फॉर कंपटीटिवनेस की रिपोर्ट के अनुसार केंद्र सरकार के बजट में सामाजिक सुरक्षा पर होने वाले ख़र्च का प्रतिशत बढ़ा है. अगर यह नहीं होता तब क्या आबादी का आधा हिस्सा दो वक्त का भोजन करने की स्थिति में होता? आखिर हमने कैसी आर्थिक तरक्की की है कि लोग खुद से दो वक्त का अनाज नहीं ख़रीद सकते. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि आर्थिक असमानता का प्रकोप कितना भयंकर है, इसकी कल्पना नहीं कर सकते. इसका एक जवाब मेरे पास है. आप इसलिए कल्पना नहीं कर पा रहे कि गोदी मीडिया और अर्ध गोदी मीडिया ने दिमाग़ में कचरा भर दिया है, कल्पना के लिए जगह ही नहीं है. चैनलों के डिबेट के टॉपिक देखिए, अंग्रेज़ी और हिन्दी के चैनल एक समान नज़र आएंगे. अलग-अलग भाषाओं में मुद्दा एक ही है. मुद्दों का ऐसा एकीकरण, unification of issues एक ऐसी प्रक्रिया है,जिसके ज़रिए आर्थिक असमानता की राजनीतिक चेतना को ध्वस्त किया जा सकता है. मिसाल के तौर पर हाल-फिलहाल की हेडलाइन के नमूनों को देखिए जो अलग अलग चैनलों पर चले हैं. 

शिवलिंग या फव्वारा, कैसे होगा निपटारा, ज्ञानवापी मस्जिद-सच की आहट, कैसी तिलमिलाहट? कण-कण में शंकर हैं, ज्ञानवापी मंदिर है? मंदिर-मंदिर पता चला है… मानो तो महादेव, न मानो तो फव्वारा.पिछले दो तीन दिनों के डिबेट के टापिक को ही देख लें तो एक थ्योरी निकल कर आती है. मेरी थ्योरी है लेकिन आप भी पेटेंट करा सकते हैं. आप देख पाएंगे कि गोदी मीडिया और अर्ध गोदी मीडिया हिन्दू मुस्लिम नेशनल सिलेबस के आस-पास ही डिबेट कर रहे हैं. इसी का कवरेज़ ज्यादा है. 

हम सभी जानते हैं कि महंगाई का मुद्दा लोगों का राजनीतिकरण कर सकता है. जब वे फीस नहीं भर पाएंगे, खाना नहीं खा पाएंगे, कल के लिए बचा नहीं पाएंगे तो हो सकता है कि उनके भीतर आक्रोश पनप जाए. वे मुर्दाबाद करते हुए सड़कों पर आ जाएं या फिर विपक्ष से उम्मीद  करें कि वह महंगाई के ख़िलाफ प्रदर्शन कर दे. दूसरी तरफ, महंगाई जनता का राजनीतिकरण न कर सके, इसके लिए एक सफल फार्मूला निकाल लिया गया है. जनता के धार्मिकीकरण का फार्मूला. जनता भले ही आर्थिक रुप से एक दूसरे असमान है, अमीर-ग़रीब का अंतर है मगर धार्मिक पहचान से एक ख़ास किस्म की समानता आती है. धार्मिक पहचान की समानता को समानता का रवीश सूचकांक कहते हैं. यह सूचकांक मार्केट में नया गिरा है इसलिए बहुतों को मालूम नहीं है. आर्थिक असमानता की पहचान के लिए खास तरह के राजनीतिक विवेक की ज़रूरत होती है, उस विवेक को आप धार्मिक समानता के मुद्दों से खत्म कर सकते हैं. बल्कि बहुत हद तक किया जा चुका है. 

धार्मिक पहचान की समानता, आर्थिक असमानता को मिटा देती है. इसलिए केवल आमदनी में अंतर के आंकड़ों से असामनता देखने की भूल न करें. एक नई प्रकार की समानता भी आ रही है, उसे पहचानें.हम यह बात व्यंग्य में नहीं कह रहे हैं बल्कि आज के दौर में यह साबित किया जा सकता है. आप कोलोनी और रिश्तेदारों के व्हाट्स एप ग्रुप में महंगाई को लेकर या आर्थिक असमानता के मुद्दों को लेकर कोई पोस्ट नहीं डाल सकते, आप पर लोग टूट पड़ेंगे. आप केवल मेरे शो का लिंक शेयर करके देखिए, आपको पता चलेगा कि मैं क्या झेलता हूं.समृद्धि केवल आर्थिक नहीं होती है. यह सोच ही भारतीय नहीं है. केवल धन से मानसिक सुख नहीं मिलता है, धर्म से भी मिलता है. और धर्म के नाम पर नफ़रत का ज्वार उठे तो सुख नहीं, परम सुख मिलता है.इंसान चरम से परम पर पहुंच जाता है. 
 
तभी तो करोड़ों लोग कई हफ्तों से धर्म संसद, हिजाब, शोभा यात्रा, लाउडस्पीकर, कश्मीर फाइल्स, बुलडोज़र, ज्ञानवापी मस्जिद, ताजमहल जैसे मुद्दों के आस-पास ही डिबेट हो रहे हैं. इन सभी मुद्दों में कई बातें कॉमन हैं. एक समुदाय से अतीत का बदला लेना, उसे अपमानित करना और असुरक्षित कर देना, नए नए मुद्दों और दावों से लगातार उसे विस्थापित करते रहना. इन अनगिनत मुद्दों से हर दिन उसका विस्थापन करना. संविधान की सुरक्षा होते हुए भी धर्म के नाम पर भंयकर असुरक्षा पैदा की जा रही है. सुप्रीम कोर्ट भी कई बार इशारे में और कई बार साफ साफ कह चुका है. हेट स्पीच का मामले का आधार वही है.

क्या आपने सुना कि महंगाई से त्रस्त जनता  गोदी मीडिया और अर्ध गोदी मीडिया को देखना बंद कर दिया है? करोड़ों लोग देखते हैं. क्योंकि यही वो मुद्दे हैं, जिनसे जनता महंगाई के कष्ट को भुला पाती है. थामस पिकेटी जैसे अर्थशास्त्री इस बात को नहीं समझ सकते, क्योंकि धार्मिक पहचान की समानता और उससे मिलने वाले मानसिक सुख का कोई आंकड़ा नहीं होता है. 

तमाम गोदी मीडिया और अर्ध गोदी मीडिया के चैनलों पर फ्लैश करती ये हेडलाइन बता रही है कि तेज़ी से मुद्दे बदल रहे हैं लेकिन सभी मुद्दे नेशनल सिलेबस के भीतर के ही हैं. बुलडोज़र नहीं है तो ताजमहल है. ताजमहल नहीं तो लाउडस्पीकर है. अप्रैल और मई के पहले सप्ताह तक आप क्या देख रहे थे, उसी के ये चंद नमूने हैं जो चैनलों पर चले हैं. मई के पहले हफ्ते में आप अज़ान बनाम चालीसा के विवाद में उलझे थे तभी बुलडोज़र का विवाद चालू हुआ, उसी के बीच से ज्ञानवापी शुरू हो गया और इन दिनों यही दिन रात चल रहा है. करोड़ों लोगों का देखना और देखते जाना बता रहा है कि लोगों को धन नहीं, धर्म चाहिए. 

ताकतवर कौन, बुलडोज़र या सियासत? बुलडोज़र तैयार, अब शाहीन बाग़ पर प्रहार, चालीस बनाम अज़ान, महाघमासान लाउड अज़ान का जवाब है हनुमान, अब काशी विश्वनाथ में अयोध्या मॉडल, ज्ञानवापी में सच के सर्वे से किसको डर, हिन्दुत्व के बाहुबली, सियासत में खलबली. एक साल से ज्यादा समय हो गए, जनता आराम से सौ रुपये लीटर पेट्रोल खरीद रही है बल्कि उससे भी अधिक दाम दे ही रही है. अलग-अलग श्रेणियों की महंगाई 9 साल में रिकार्ड स्तर पर है तो 25 साल में सबसे अधिक है. धार्मिक पहचान की समानता के लिए बेस्ट प्लेटफार्म है न्यूज़ चैनल. इस तरह के डिबेट में पांच रुपया खर्च नहीं होता. मैं स्टुडियो के एसी और बल्ब का खर्चा वगैरह नहीं जोड़ रहा.

आपको धार्मिक कार्यों के लिए मौलवी भले न मिलें लेकिन डिबेट के लिए मौलान ज़रूर मिल जाते हैं. उनके सामने पंडित होते हैं और ऐसी बहसों को लाखों लोग झूम कर देख रहे हैं. इन बहसों में प्रश्नवाचक चिन्हों की भूमिका पर अलग से किसी को रिसर्च करना चाहिए कि कैसे क्वेश्चन मार्क लगाकर डिबेट के टापिक को सही साबित किया जा रहा है. इन बहसों के ज़रिए बिना पत्रकारिता किए ही आप पत्रकार कहलाते हैं. विज्ञापनों की भरमार बनी रहती है. लागत ज़ीरो, कमाई हीरो. एक डाक्टर को भी सर्जन कहलाने के लिए सर्जरी करनी पड़ती है मगर गोदी मीडिया एक ऐसी पत्रकारिता लेकर आया है जिसमें पत्रकार कहलाने के लिए सबसे पहले पत्रकारिता छोड़ देनी पड़ती है.

यू ट्यूब में जाकर इस कार्यक्रम को कई बार देखिए, आपको पता चलेगा और एक दर्शक के नाते आप अपनी समझदारी पर गर्व करेंगे और हां, कालोनी के व्हाट्स एप ग्रुप में मेरे शो का लिंक ज़रूर शेयर करें. राष्ट्रीय जनता दल का कहना है कि बार बार लालू यादव को निशाना बनाया जाता है. बार बार छापे पड़ते हैं. लेकिन क्या इन छापों के पीछे बिहार में फिर से बन रहे किसी राजनीतिक समीकरण का भी रोल है? 

इस पर एक केस स्टडी होनी चाहिए कि 86 मामलों में ज़मानत लेने में एक व्यक्ति की क्या हालत होती है? आज़म ख़ान के खिलाफ़ 86 मामले थे, उनकी ज़मानत के विरोध में यूपी सरकार ने भी कई वकील उतारे होंगे, उस पर जनता का कितना पैसा खर्च हुआ, इसका भी आकड़ा आ जाए तो पता चले कि आज़म ख़ान के मामले में राजनीति की कितनी कीमत जनता ने चुकाई है. आज सपा नेता आज़म ख़ान ज़मानत पर जेल से बाहर आ ही गए.

फरवरी 2020 से आज़म ख़ान जेल में बंद हैं. समय औऱ जगह की कमी के कारण हम सभी 87 मामलों का ज़िक्र नहीं कर रहे हैं. 86 मामलों में ज़मानत मिल गई थी, एक मामले में ज़मानत के लिए सुप्रीम कोर्ट गए. कोर्ट ने उनके मामले को देखते हुए कहा कि अजीबोग़रीब तथ्य हैं. पहले हाई कोर्ट को फैसला लेने के लिए कहा लेकिन जब 137 दिनों तक फैसला नहीं आया तब सुप्रीम कोर्ट सख्त हो गया. हाई कोर्ट में आज़म ख़ान की ज़मानत की अर्ज़ी पर फैसला चार दिसंबर से ही सुरक्षित था.  सुप्रीम कोर्ट ने आज़म ख़ान को ज़मानत देने के लिए अनुच्छेद 142 के तहत विशेषाधिकार का इस्तेमाल किया है और ज़मीन पर कब्ज़ा और ठगी के मामले में अंतरिम ज़मानत दे दी.यूपी सरकार ने कोर्ट से कहा कि आज़म ख़ान भू माफिया हैं और आदतन अपराधी हैं.

आज़म ख़ान के वकील कपिल सिब्बल ने दलील दी कि पिछले दो सालों से तो आजम जेल में ही बंद हैं तो धमकाने की बात कहां आती है? कोर्ट ने इस बात पर भी हैरानी जताई कि जब सारे मामलों में ज़मानत हो गई है तब आज़म ख़ान के खिलाफ नया केस कैसे दर्ज हो गया. क्या ये संयोग मात्र है या कुछ और है. कोर्ट ने इस पर यूपी सरकार से जवाब मांगा है. जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस बी आर गवई की बेंच ने की सुनवाई की है और फैसला दिया है.सपा नेता अखिलेश यादव ने ट्विट कर आज़म खान को बधाई दी है और स्वागत किया है. कहा है कि जमानत के इस फ़ैसले से सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय को नये मानक दिये हैं.पूरा ऐतबार है कि वो अन्य सभी झूठे मामलों-मुक़दमों में बाइज़्ज़त बरी होंगे. झूठ के लम्हे होते हैं, सदियाँ नहीं!

असम के 29 ज़िले बाढ़ की चपेट में हैं. सात लाख से अधिक लोग विस्थापित हो चुके हैं.  रतनदीप चौधरी और संजय चक्रबर्ती जमुनामुख गए थे. वहां उन्होंने देखा कि दो गांवों के लोगों का सबकुछ मिट चुका है. रेल की पटरियों पर उनका जीवन गुज़र रहा है. खाना नहीं है, पानी नहीं है. सरकार की मदद पहुंची है मगर काफी नहीं है. 

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19 और 20 मई के प्राइम टाइम में मीडिया के बारे में काफी कुछ कहा है, आपसे गुज़ारिश है कि यू ट्यूब में जाकर दोनों प्राइम टाइम को दोबारा देख सकते हैं. शनिवार और रविवार के दिन सोच सकते हैं कि यह सब कब तक चलेगा. बेशक, आप इसे रोक नहीं सकते, मैं भी नहीं रोक सकता लेकिन एक दर्शक के तौर पर आप ख़ुद को बदल तो सकते ही हैं. इस खेल को समझ लेना ही काफी है.