कोई भी चुनाव हो, TV का कवरेज अपने चरित्र में सतही ही होगा. इसका स्वभाव ही है नेताओं के पीछे भागना. चैनल अब अपनी तरफ से तथ्यों की जांच नहीं करते, इसकी जगह डिबेट के नाम पर दो प्रवक्ताओं को बुलाते हैं और जिसे जो बोलना होता है, बोलने देते हैं. संतुलन के नाम पर सूचना गायब हो जाती है. पिछले कई साल से चला आ रहा यह फॉर्मेट अब अपने चरम पर है. यही कारण है कि TV के ज़रिये चुनाव को मैनेज करना आसान है. राजनीतिक दल अपने आलस्य और TV को न समझ पाने के कारण इसके ख़तरे को समझ नहीं रहे हैं. उन्हें अभी भी लगता है कि न्यूज़ चैनलों में सबके लिए बराबर का स्पेस है. मगर आप खुद देख लीजिए कि कैसे चुनाव आते ही चैनलों की चाल बदल जाती है. पहले भी वैसी रहती है, मगर चुनावों के समय ख़तरनाक हो जाती है.
कर्नाटक विधानसभा चुनाव के समय वहां के चैनलों और अख़बारों में राज्य के सत्तापक्ष और केंद्र के सत्तापक्ष के बीच कैसा संतुलन है, इसकी समीक्षा तो रोज़ होनी चाहिए थी. कन्नड़ चैनलों में किस पार्टी के विज्ञापन ज़्यादा हैं, किस पार्टी के कम हैं, दोनों में कितना अंतर है, यह सब कोई बाद में पढ़कर क्या करेगा, इसे तो चुनाव के साथ ही किया जाना चाहिए.
आश्चर्य है कि किसी को यह सब चुनाव के दौरान ख़्याल नहीं आता है. किसकी रैलियां दिन में कितनी बार दिखाई जा रही हैं. क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की रैली, मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की रैली, BJP नेता येदियुरप्पा की रैली के कवरेज में कोई संतुलन है...? हमें नहीं मालूम कि किस नेता के बयान को लेकर डिबेट हो रही है, उसकी तरफ से चैनलों में बैटिंग हो रही है. हमें नहीं पता, कोई रोज़ अध्ययन करता, तो इसकी बेहतर जानकारी मिलती.
चुनावी रैलियां अब TV के लिए होती हैं. TV पर आने के लिए पार्टियां तरह-तरह के कार्यक्रम खुद बना रही हैं. इस तरह से एडिटेड बनाती हैं, जैसे उनके पास पूरा का पूरा चैनल ही हो या फिर वे एडिट कर यूट्यूब या चैनलों पर डालती हैं, जिससे लगता है कि सब कुछ लाइव चल रहा है. इन कार्यक्रमों को समझने, इन पर लिखने के लिए न तो किसी के पास टीम है, न क्षमता.
लोकतंत्र में, और खासकर चुनावों में अगर सभी पक्षों को बराबरी से स्पेस नहीं मिला, धन के दम पर किसी एक पक्ष का ही पलड़ा भारी रहा, तो यह अच्छा नहीं है. बहुत आसानी से मीडिया किसी के बयानों को गायब कर दे रहा है, किसी के बयानों को उभार रहा है. इन सब पर राजनीतिक दलों को भी तुरंत कमेंट्री करनी चाहिए और मीडिया पर नज़र रखने वाले समूहों पर भी.
येदियुरप्पा जी ने कहा है कि अगर कोई वोट न देने जा रहा हो, तो उसके हाथ-पांव बांध दो और BJP के उम्मीदवार के पक्ष में वोट डलवाओ. हमारा चुनाव आयोग भी आलसी हो गया है. वह चुनावों में अर्द्धसैनिक बल उतार मलेशिया छुट्टी मनाने चला जाता है क्या. वह कब सीखेगा कि मीडिया कवरेज और ऐसे बयानों पर कार्रवाई करने और नज़र रखने का काम चुनाव के दौरान ही होना चाहिए, न कि चुनाव बीत जाने के तीन साल बाद.
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This Article is From May 07, 2018
चुनाव मैदान में नहीं, चैनलों में हो रहा है, जिन पर नज़र ही नहीं किसी की...
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:मई 14, 2018 21:16 pm IST
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Published On मई 07, 2018 11:50 am IST
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Last Updated On मई 14, 2018 21:16 pm IST
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