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This Article is From Jun 18, 2015

प्रधानमंत्री एक प्रोडक्ट भी हैं, मोबाइल एप उसका बाजार

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    जून 18, 2015 11:17 am IST
    • Published On जून 18, 2015 11:09 am IST
    • Last Updated On जून 18, 2015 11:17 am IST
प्रधानमंत्री ने नरेंद्र मोदी मोबाइल एप लॉन्च किया है। इस मोबाइल एप में प्रधानमंत्री की दैनिक गतिविधियां उपलब्ध होंगी। वो क्या कर रहे हैं, किससे मिल रहे हैं, वग़ैरह वग़ैरह...। आप गूगल के प्लेस्टोर से अपने एंड्रायड फोन पर डाउनलोड कर सकते हैं। इसके ज़रिये आपको सीधे प्रधानमंत्री की तरफ से ईमेल और मैसेज मिलेंगे। मन की बात कार्यक्रम का संकलन भी होगा जिसे आप फुर्सत के क्षणों में सुन सकेंगे। इसमें भारत सरकार से जुड़ी सूचनाएं भी होंगी। आपसे सवाल पूछे जायेंगे कि किस योजना से देश में प्रभावकारी बदलाव आ रहा है। आप टिक करेंगे और सर्वे की तरह नतीजा आ जाएगा। इस एप को डाउनलोड करने से पहले आपका ईमेल खाता पूछा जाता है। जिससे आप एक डेटा बैंक में रजिस्टर हो जाएंगे और फिर आपको सरकार की सूचनाओं और प्रचारों के संदेश आने लगेंगे।

मोबाइल एप में जो भी सूचना होगी वो सरकार की अलग-अलग बेवसाइट और मंत्रियों-मंत्रालयों के ट्वीटर हैंडल और फेसबुक पेज पर होती ही है। पीएमओ की भी अपनी वेबसाइट है। इन माध्यमों का अध्ययन किया जाना चाहिए कि यहां लिखी गई बातों का संस्थाओं पर क्या असर हुआ और इन सब उपकरणों से संस्थाओं को लेकर लोगों के अनुभव किस तरह से बदले हैं। सरकार ही नहीं, तमाम विपक्षी नेताओं के सोशल मीडिया पर ज़ाहिर बातों का भी अध्ययन होना चाहिए। तब पता चलेगा कि ये सारे माध्यम लोगों के बीच अपनी मौजूदगी की घंटी बजाते रहने के लिए है या वाकई रोजाना बन रहे जनमतों के अनुसार, सिस्टम में बदलाव के लिए हैं। देखना चाहिए कि इससे लाभ जनता को होता है या नेता को। अख़बार, टीवी और नाना प्रकार के विज्ञापनों के बीच सोशल मीडिया के ये उपकरण एक और माध्यम भर ही हैं।

व्यापक शोध और समझ के अभाव में कुछ भी निश्चित रूप से कहना मुश्किल है। मगर इन माध्यमों में होने वाली संवाद प्रक्रियाओं से गुज़रते हुए लगता है कि ये पारदर्शी नहीं हैं। पारदर्शिता का भ्रम पैदा किया जाता है। आपको लगता है कि आप नेता के संपर्क में हैं, लेकिन जैसे ही आप बुनियादी सवाल करते हैं, नेता उसी तरह से चुप हो जाता है जैसे पहले चुप रहता था। सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे के मामले में लोग प्रधानमंत्री को सुनना चाहते हैं, मगर रोज़ सुबह उनके योगासन की तस्वीरों के ट्वीट से ही संतोष करना होता है। उनकी मुलाकातों और बधाई संदेश के ट्वीट तो आ जाते हैं, मगर यह नहीं पता चलता कि उनकी मुलाकातों में क्या हुआ। संतुलन के लिए आप कह सकते हैं कि यही हाल राहुल गांधी या अन्य नेताओं का भी है। बहुत हद तक पत्रकारों का भी।

ई-गवर्नेंस की धूम के अब दस साल से भी ज़्यादा वक्त हो रहे हैं। अब तक इसका ठोस अध्ययन हो जाना चाहिए था कि क्या वाकई ई-गवर्नेंस पारदर्शिता है। क्या इससे किसी संस्था का पेशेवर प्रदर्शन बेहतर हुआ है। ई-गर्वनेंस से कुछ मामलों में स्थिति बेहतर तो लगती है मगर यह समस्या का समाधान नहीं है। पासपोर्ट सेवा एक सफल उदाहरण हो सकती है, लेकिन रेलवे के टिकट की वेबसाइट होने के बाद भी लोगों में विश्वास नहीं है कि वहां सब कुछ पारदर्शी तरीके से ही होता है। वर्षों से लोगों में रेलवे के टिकट की वेबसाइट को लेकर असंतोष है। हर रेल बजट में लोगों को सूचना देने के लिए कोई न कोई नंबर लॉन्च हो जाता है मगर इससे न तो ट्रेन के आने जाने के प्रदर्शनों पर असर पड़ा और न ही टिकटों की उपलब्धता पर और न ही यात्रा अनुभवों पर।

हमें यह सवाल पूछना चाहिए कि अगर ई-गर्वनेंस पारदर्शिता है तो फिर आरटीआई क्यों हैं। क्यों नहीं हर फाइल रोज़ाना सरकार की वेबसाइट पर अपलोड कर दी जाती है। विभागीय बैठकों के मिनट्स वेबसाइट या मोबाइल एप में क्यों नहीं होते हैं। ई-गवर्नेंस और मोबाइल एप पारदर्शिता के प्रमाण होते तो आए दिन आरटीआई कार्यकर्ताओं को धक्के खाने नहीं पड़ते। उन्हें आवेदन पर आवेदन लगाकर महीनों सूचना आयुक्तों के दफ्तर में चक्कर नहीं लगाने पड़ते। कई बार लगता है कि ई-गर्वनेंस के नाम पर चंद सुविधाएं उपलब्ध करा कर संस्थाओं को पहले से ज्यादा अलोकतांत्रिक किया जा रहा है।

हमने इन सब सवालों से टकराना शुरू नहीं किया है, जो ऊपर से कहा जाता है हम उसे प्रसाद के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। ई-गवर्नेंस से जितनी जवाबदेही पैदा नहीं होती उससे कहीं ज़्यादा सिस्टम पर्दे के पीछे चला जाता है। क्योंकि आपको घर बैठने से कुछ सुविधा तो होती है, मिलनी भी चाहिए मगर संस्थाओं से सामाजिक संबंध समाप्त हो जाता है। आप सिर्फ मांग और आपूर्ति के बीच के उपभोक्ता बनकर रह जाते हैं। यह कोई ऑनलाइन शॉपिंग सिस्टम नहीं है कि पैसा दिया और खरीद लिया। यह सरकार है। आपको जानना चाहिए कि फैसले की प्रक्रिया क्या है और किन लोगों को लाभ हुआ है। इसलिए सुविधा और पारदर्शिता में फर्क करना चाहिए। सिर्फ सूचना ही लोकतंत्र की बुनियाद नहीं है। असली सूचना वही नहीं है, जो सरकार अपने फैसलों और आंकड़ों के रूप में बताती है। ई-गवर्नेंस और मोबाइल एप के ज़रिये सरकार अपनी संस्थाओं के काउंटर अपने अहाते से हटाकर आपकी जेब की मोबाइल में डाल देना चाहती है। लाइन दफ्तर में नहीं है तो क्या हुआ, किसने कहा कि इनके ज़रिये लाइन ख़त्म हो गई है। एयरपोर्ट या रेलवे स्टेशन जाकर देख लीजिए। पासपोर्ट आफिस भी जाकर देख लीजिए।

ये हो सकता है कि ट्वीटर पर रोज़ अपडेट होने से पुरानी चीज़ें नीचे चली जाती हैं। इसलिए मोबाइल एप में इन्हें एक जगह संकलित किया जा सकता है। नई सरकार में आए दिन कोई न कोई वेबसाइट और एप लॉन्च होते रहते है। इसे इस तरह से भी देखा जा सकता है कि सोशल मीडिया में आए दिन नए नए माध्यम बन रहे हैं। इन माध्यमों के बीच प्रतियोगिता भी होती है। एक मंच पर आप खुद को सार्वजिनक बनाते हैं तो दूसरे मंच पर दूसरों से अलग कर ख़ास बनाते हैं। यहां आदमी हर वक्त ख़ुद को भीड़ से अलग बताने की कोशिश में रहता है। संख्या का भी ख़ास महत्व है। सोशल माध्यमों की संख्या की विश्वनीयता भी संदिग्ध है पर संदेह करने की क्षमता आम जन में नहीं होती है। फिर भी इसकी संख्या कि कितने फोलो कर रहे हैं या कितने ट्वीट किये गए हैं यह सब एक प्रभावशाली छवि के माध्यम तो है हीं।

ट्वीटर पर पहले से ही प्रधानमंत्री व्यक्ति के रूप में मौजूद हैं। वे पीएमओ के हैंडल के ज़रिये संस्था के रूप में भी मौजूद हैं। अब एक नया मंच आ गया है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मोबाइल एप। कोई कह सकता है कि यह भी एक किस्म का व्यक्तिवाद है। यह थोड़ा सरल होगा क्योंकि व्यक्तिवाद तो है ही पहले से। हो सकता है कि बाकी मंत्री भी अपने नाम से एप लॉन्च करें। हो सकता है कि न भी करें। मंत्रालयों के एप आ सकते हैं। कुलमिलाकर सूचनाओं का ऐसा घेरा बनाया जाता है कि एक सामान्य नागरिक को उससे बाहर निकलने का मौका ही नहीं मिलेगा। वो अपने आस-पास की स्थिति में भले बदलाव नहीं देख सकेगा, लेकिन आभासी जगत की इन वास्तविक सूचनाओं के ज़रिये वो एक बदले हुए हालात के भ्रम में जीता हुआ खुश रहेगा। हम सबकी आदत होती है। हम यह नहीं देखते कि यहां क्या हो रहा है। हम देखना चाहते हैं कि वहां क्या हो रहा है।

प्रधानमंत्री एक ब्रांड भी हैं। इन सब माध्यमों के ज़रिये वे अपने ब्रांड को अलग-अलग ब्रांड में बदलते रहते हैं। अलग-अलग नाम से संगठित करते रहते हैं। सोशल मीडिया का स्पेस लगातार भरता जाता है। बड़ा ब्रांड लगातार अपनी जगह बदलता रहता है। बीच बीच में नया होता रहता है। बाज़ार में ही बहुत पुराने उत्पाद ऐसे हैं जो न जाने कितनी बार नया होकर लॉन्च हो चुके हैं। प्रधानमंत्री एक प्रोडक्ट भी हैं। इसले लिए नया, ताज़ा या पहले से भी दमदार टैगलाइन से लॉन्च होते रहते हैं। उनकी इस ऊर्जा का कायल हूं। वे न तो खुद थकते हैं और न ही अपने ब्रांड को आराम करने देते हैं।

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