बात दीवाली के सप्ताह भर पहले की है.
बैंक से फोन आया कि ऑटो लोन के लिए बेहतरीन ऑफर चल रहा है. अपेक्षाकृत सस्ती दरों पर कार खरीदने के लिए लोन उपलब्ध है. त्योहार का मौका है तो कोई प्रोसेसिंग फीस भी नहीं लगेगी. रिपेमेंट पर भी कोई चार्ज नहीं लगेगा. बहुत कम समय में बहुत कम दस्तावेज और बिना पूछताछ के लोन मिल जाएगा. मुझे तो होम लोन ही भारी पड़ता है तो और कोई लोन लेने की अपनी कोई हिम्मत है नहीं इसलिए टाल दिया.
अगले दिन फिर वही फोन. मैंने कहा ‘आप आग्रह कर ही रही हैं मुझे कार की आवश्यकता तो नहीं, पर क्या ट्रैक्टर के लिए लोन मिल सकता है ?’ बैंक एक्जीक्यूटिव को ऐसे सवाल की शायद उम्मीद नहीं थी. मेरा सोचना था कि भाई गांव पर ही रहता है, क्यों न उसे ट्रैक्टर दिला दिया जाए. ‘नहीं सर, यह लोन केवल कार के लिए है. यदि आप कार खरीदना चाहते हैं तो ही इस रेट पर आपको लोन मिल पाएगा. ट्रैक्टर के लिए हमारा लोन डिपार्टमेंट अलग है और वह गांव की नजदीकी ब्रांच से ही हो पाएगा.' मैंने पूछा कि ‘क्या ट्रैक्टर या कृषि यंत्रों पर ऐसी सस्ती दरों और बिना कागजी कार्यवाही का कोई ऑफर है क्या ?’जवाब मिला, ‘नहीं, हमारी जानकारी में नहीं है. हमारी ब्रांच केवल कार लोन के लिए आफर देती है.' जाहिर है, शहर की कोई बैंक ब्रांच ऐसा ऑफर नहीं देगी, पर मैंने किसी देहाती ब्रांच को भी ऐसा ऑफर देते हुए नहीं देखा है. ट्रैक्टर के लिए तकरीबन छह फीसदी ज्यादा ब्याज दर चुकानी पडती है. यह लोन आसानी से मिलता भी नहीं, उसके लिए लंबी प्रक्रिया से होकर गुजरना पडता है.
सवाल यह है कि जब मध्यमवर्गीय नौकरीपेशा वर्ग पर बैंक इतनी आसानी से भरोसा कर सकती है, जिस पर भी मंदी की मार से नौकरी जाने का खतरा लगातार मंडराता ही रहता है, तब वह किसानों पर ऐसा भरोसा क्यों नहीं कर पाती ? क्या बैंकों का नजरिया भी यह नहीं बताता कि भारत के अंदर किसानों की हालत इतनी ज्यादा खराब है, जिस पर बैंक भरोसा ही नहीं करते और उनको उस ‘फोर पीज’ से भी नीचे की कैटेगरी में डाल दिया गया है, जिन्हें बैंक लोन देने से कतराते हैं. आपको शायद याद हो, क्योंकि यह ज्यादा पुरानी बात नहीं जब खेती को जीवन जीने के संसाधनों में ‘सबसे उत्तम’माना-कहा जाता था.
सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि बिना लोन के तो किसानों का काम ही नहीं चलता, अलबत्ता यह लोन उस श्रेणी के हैं जो एक तरह से खेती की आधारभूत जरूरत जैसे खाद, बीज, ईंधन और पानी पर खर्च किए जाते हैं. इसमें संस्थागत और गैर संस्थागत दोनों ही किस्म के लोन शामिल हैं। इसको थोड़े बड़े संदर्भ में देखिए. कृषि मूल्य और लागत आयोग की वर्ष 2017-18 की रबी और खरीफ की फसलों के लिए जारी रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2004-05 में किसानों को 1.25 लाख रुपए का क़र्ज़ दिया गया था, जो 2015-16 में बढ़कर 8.77 लाख करोड़ रुपए हो गया. इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि फसल ऋण (यानी बीजों, उर्वरक, मजदूरी भुगतान, परिवहन समेत खेती के खर्चों के लिए दिए जाने वाले लोन में इस अवधि के दौरान आठ गुना की वृद्धि हुई है. यदि राशि में देखें तो यह 0.76 लाख करोड़ से बढ़कर 6.36 लाख करोड़ रुपए हो जाता है, वहीं दूसरी ओर सावधि ऋण यानी खेती के लिए संसाधनों को मजबूत करने के मकसद से दिया जाने वाला ऋण 0.49 लाख करोड़ से बढ़कर 2.05 लाख करोड़ ही रहा. इसका सीधा और साफ मतलब है कि किसान को अपनी तात्कालिक जरूरतों को पूरा करने के लिए ही इतना कर्जा लेना पड़ रहा है कि वह खेती को बेहतर करने वाले क़र्ज़ के बारे में नहीं सोच पा रहा है. जब संसाधनों पर किसानों का नियंत्रण नहीं है तो वह अपनी खेती को लाभ की खेती कहां से बनाएं.
यह भी एक अलग सवाल है कि लोन से लाभ की खेती स्थापित नहीं होती. जानकार इस बात की भी पैरवी करते रहे हैं कि खेती का परंपरागत तरीका ज्यादा बेहतर था जिसमें खेती के संसाधनों पर किसानों का नियंत्रण था और उसकी लागत भी अब के जैसी भारी-भरकम नहीं थी, इसलिए उत्पादन के कम आंकड़ों के बावजूद वह आज के जैसे घाटे का सौदा नहीं थी. यह घाटे का सौदा अब इतना भयावह है कि किसानों पर उत्पादन के आंकड़ों के साथ कर्ज के आंकड़े भी लदे हैं. आंकड़ों को ही देख लें जो इसी साल 31 मार्च को राज्यसभा में प्रस्तुत किए गए. राज्यसभा में कृषि मंत्रालय ने बताया कि वर्ष 2015-16 की स्थिति में देश में किसानों पर लगभग 8.8 लाख करोड़ रुपए का ऋण था. तमिलनाडु के किसानों पर 1.05 लाख करोड़ रुपए, कर्नाटक के किसानों पर 84.8 हज़ार करोड़ रुपए, पंजाब के किसानों पर 84.7 हज़ार करोड़ रुपए, आंध्रप्रदेश के किसानों पर 74.1 हज़ार करोड़ रुपए, राजस्थान के किसानों पर 67.6 हज़ार करोड़ रुपए और महाराष्ट्र के किसानों पर 62.8 हज़ार करोड़ रुपए का ऋण था. देश में सबसे कम संस्थागत कृषि ऋण जम्मू और कश्मीर के किसानों पर (2.8 हज़ार करोड़ रुपए), झारखंड के किसानों पर (3.7 हज़ार करोड़ रुपए) और हिमाचल प्रदेश के किसानों पर (5.1 हज़ार करोड़ रुपए) था। बड़े राज्यों की सूची में उत्तरप्रदेश, जहां सबसे ज्यादा किसान हैं, पर 37.33 हज़ार करोड़ रूपए का संस्थागत कृषि ऋण था, जबकि बिहार के किसानों पर 40.5 हज़ार करोड़ रूपए बकाया थे। मध्यप्रदेश के किसानों पर 52.1 हज़ार करोड़ रुपए का कृषि ऋण दर्ज था. देखा जाए तो देश में एक किसान परिवार पर 187313रुपए का क़र्ज़ है.
यह केवल संस्थागत ऋण के आंकड़े हैं. इनमें साहूकारों, मालगुजारों द्वारा दिया जाने वाला ऋण शामिल नहीं है जो इससे भी ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि उसका ब्याज दर 36 प्रतिशत सालाना तक होती है, जिसका कोई रिकॉर्ड भी नहीं होता. इससे निपटने के लिए सरकार ने कृषि ऋण देने की नीति बनाई. हर साल इसे बजट में उपलब्धि की तरह पेश भी किया गया कि किसानों के लोन के लिए सरकार ने भारी-भरकम आवंटन किया है, पर इसके साथ ही एक और बात पर जोर दिया जाना चाहिए था जो सीधे किसानों की आय से जुड़ी है. यह बात समझना उतना कठिन नहीं है कि किसानों की उनकी उपज का लागत की तुलना में बेहद कम दाम मिल रहा है. जब इसे एक आम भारतीय समझ सकता है तो सरकारें तो ज्यादा समझदार और क्षमतावान हैं, पर उसे बढ़ाने के लिए कोई ठोस नीति का देश को अब तक इंतजार है.
वीडियो: बैंकों की हालत कैसे सुधरेहमें ऐसी दीवाली का इंतजार होना चाहिए जब ट्रैक्टर और कृषि यंत्र खरीदने के लिए लुभावने ऑफर दिए जाएं. ऐसा करना कोई कठिन भी नहीं होगा, जैसे ही बैंकों को पता चलेगा कि किसान अब लोन लेने और चुकाने में दूसरे लोगों से ज्यादा क्षमतावान हो गया है, वह ऑफर्स की झड़ी लगा देंगे. क्या नीतियां किसानों को इस दायरे में लाने की कोशिश करेंगी ?
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.