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This Article is From Feb 24, 2016

'प्रभु की रेल' और आम आदमी की पिटती पैसेंजर ट्रेन...

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 24, 2016 17:27 pm IST
    • Published On फ़रवरी 24, 2016 17:25 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 24, 2016 17:27 pm IST
महात्मा गांधी की लड़ाई रेलगाड़ी से शुरू हुई थी। ऊंचे दर्जे वाले डिब्बे से निकाल फेंकने की घटना ने गांधी के अंत:मन में आजादी का बिगुल बजाया। गांधी की त्वरित लड़ाई इस बात पर थी कि जायज़ टिकट होने के बाद भी उन्हें आखिर उस डिब्बे से क्यों उतार दिया गया, क्यों उनका सामान फेंक दिया गया...?

आज जब हवाई जहाजों की तरह रेलगाड़ियों के किरायों में उतार-चढ़ाव देखते हैं, भारतीय रेलपांतों पर बुलेट ट्रेन दौड़ा लेने का सपना देखते हैं और दूसरी तरफ रेलगाड़ियों के अगले-पिछले हिस्से में लगे इक्के-दुक्के जनरल डिब्बों की तस्वीर देखते हैं तो यह बात समझ नहीं आती कि महात्मा गांधी देश में जिस अंतिम व्यक्ति के उदय की बात करते थे, वह तो अब भी उसी डिब्बे में कुचा हुआ है।

हां, यह ज़रूर है कि संख्यात्मक दृष्टि से भारतीय रेल ने बीते सालों में अविश्वसनीय तरक्की की है... हां, यह ज़रूर है कि भारतीय रेल पहले से बहुत और बहुत ज्यादा लोगों को सफर का एक सस्ता और सबसे बेहतर साधन उपलब्ध कराती है... हां, यह ज़रूर है कि भारतीय रेल पूरे भारत का एक चेहरा है, लेकिन विदेशी सैलानी जब भारतीय रेल के इन्हीं जनरल कूपों में ठुंसे चेहरों की तस्वीरें लेते दिखाई देते हैं, तब अहसास होता है कि हमारी छवि दुनिया के नक्शे पर दरअसल ऐसे ही उभरकर आती है।

हम भले ही दूरंतो, राजधानी और बुलेट का दावा कर लें, लेकिन जब तक पैसेंजर गाड़ियां हर स्टेशन पर पिटती रहेंगी, असल में सर्वोदय की बात कैसे की जा सकेगी...? अब देखना यही होगा कि तकरीबन एक लाख करोड़ के आसपास ठहरने वाले बजट में इन पैसेंजर गाड़ियों और सामान्य डिब्बों के लिए कुछ होगा भी या नहीं...? यह सवाल किसी एक मंत्री से नहीं, किसी एक सरकार से भी नहीं, यह सवाल हमारी आज तक की हर व्यवस्था से है, आखिर क्यों गांधी के बाद ही रेल के सबसे निचले दर्जे में यात्रा करने की हिम्मत कोई नहीं कर सका...?

हम यह भलीभांति समझते हैं कि भारतीय रेल के बिना देश नहीं चलता। पिछले साल जब मध्य प्रदेश के एक प्रमुख स्टेशन इटारसी पर रेलगाड़ियों के संचालन के लिए सिस्टम ध्वस्त हुआ, तब दरअसल व्यावहारिक रूप से अहसास हुआ कि 'बिन रेल तो सब फेल' है। इसके बाद अभी-अभी हरियाणा में हमने आरक्षण के मामलों में देखा। जब कभी बड़े स्तर पर आंदोलन की बात होती है, तो रेल को रोकने का आइडिया सामने आता है। सभी चाहते हैं कि हमारी रेल चले, और बेहतर तरीके से चले, सुरक्षा से चले, समय पर चले।

पिछले कुछ समय से भारतीय रेल को लेकर जो कवायद दिख रही है, उसका आधार इसी बात पर है कि ज्यादा पैसा देकर ज्यादा सुविधाएं दें। पिछले साल रेलवे का घाटा 23,000 करोड़ रुपये का था, इसलिए बिना आय बढ़ाए ज्यादा सुविधाएं देने की मांग नहीं की जा सकती, लेकिन इसे इस आधार पर भी तो नहीं छोड़ा जा सकता कि जिसके पास ज्यादा पैसे हों, उसे ही सुविधाएं हासिल करने का हक हो।

जनकल्याणकारी बजट वही है, जिसमें आम लोगों के लिए पूरी-पूरी गुंजाइश रखी गई हो, हालांकि अच्छी बात यह है कि इस बार किराया न बढ़ाने का संकेत ही काफी होगा। ऐसे दौर में जब महंगाई का तीर और लगातार ऊपर जाने को उतारू हो, तब कम से कम यही काफी होगा कि 'अच्छे दिन' आएं न आएं, बुरे तो नहीं ही आएंगे। जैसे दिन गुज़र रहे हैं, वैसे ही गुज़रते रहेंगे। आम आदमी के दिन आसानी से नहीं बदलते, आम आदमी की समस्या ट्वीट करने से भी हल नहीं होतीं, अदद तो वह बेचारा ट्वीट ही नहीं कर पाता, इसलिए उसके बारे में तो अलग से ही सोचना होगा... अब देखना यह है कि अच्छे दिन लाने वाली सरकार के बजट में 'प्रभु की रेल' ऐसे लोगों के लिए क्या नया और अलग लेकर आती है।

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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