अन्ना हजारे. एक ऐसा नाम जो अगर भूखा न रहता, जज्बात से भरे वंदे मातरम के नारे न लगाता, सफेद धोती-कुर्ता और टोपी की सादगी का प्रतीक न बनता, अनशन के दिनों में दिन ब दिन कमजोर होता लोगों को दिखाई न देता, दिन ब दिन उसकी आवाज का पैनापन शरीर के टूटने के साथ धीमा न होता, हर रोज टीवी पर उन्हें न देखते, रोज लोगों को उनकी सेहत की चिंदा न होती, तो शायद दिल्ली का रामलीला मैदान न भरता, मैदान में भारी बारिश और तपिश दोनों के बीच लोगों की भीड़ दिन ब दिन न बढ़ती, अलग अलग शहरों से लोग दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश की राजधानी में न आते, दुनिया के अलग अलग कोने में बसे भारतीयों के खून में उबाल न आता, सात समुद्र पार कर कोई दिल्ली न आता, अपनी रोजी रोटी को दांव पर लगाकर मीलों दूर से कोई दिल्ली न आता, 125 करोड़ आबादी वाले देश के हताश लोगों में विश्वास न पैदा होता.
यह सब जब हो रहा था, जो लाखों लोग उस दौरान रामलीला मैदान की पवित्र भूमि में इन सब बातों के गवाह बने, वो जो करोड़ों लोग अपने घरों में बैठे टीवी पर यह सब देख रहे थे, जो लोग रोज दफ्तर जा तो रहे थे, लेकिन रामलीला मैदान नहीं पहुंच पाए. जो लोग दूसरे शहरों में इस आंदोलन को समर्थन देने के लिए सड़कों पर उतरे, जो अपने अपने तरीके से इस आंदोलन को समर्थन देने में जुटे उन सबके भीतर उस समय एक ही ख्याल था चलो कुछ बदलें. अब समय आ गया है. देश में भ्रष्टाचार की हत्या करने की मंशा तक लोगों में जागने लगी थी. स्थिति धीमे धीमे इतनी विस्फोटक हो गई कि तत्कालीन कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व की यूपीए सरकार को इसकी तपिश महसूस होने लगी. सरकार को इंटेलिजेंस रिपोर्ट से सारी वास्तविक जानकारी का एहसास हो गया और बातचीत के प्रयास हुए. परिणाम क्या हुआ यह अब सबके सामने है लेकिन इस पूरे आंदोलन की हवा निकालने में तत्कालीन सरकार की वकीलों की फौज कामयाब हो गई.
वो सरकार भी कामयाब हुई. और कामयाब हुए चंद लोग. इनमें वो लोग भी हैं जो उस समय उसे बूढ़े आदमी की ऊर्जा से ताकत ले रहे थे. जो रोज सुबह से शाम तक मीडिया के कैमरे के सामने आकर अपने को उठाने और चमकाने में लगे थे. सरकार से सुलह के बाद अन्ना का आंदोलन समाप्त हुआ.
इस पूरे आंदोलन के दौरान कई ऐसे मीडिया वाले भी दुनिया ने देखे थे जो मौके पर ही डेरा डाले थे. दिन रात खबरों के साथ भाषण देने में लगे थे. आज इनमें कुछ राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं में चीफ प्रवक्ताओं में शुमार होने लगे हैं. ऐसे लोगों की पत्रकारिता पर भी सवाल उठे. खैर आज के जमाने में पद के मायने होते हैं और राजनीति में जाते हैं तो सब खून माफ हो जाते हैं. ऐसे सभी लोग नैतिकता के प्रतिमान स्थापित करते हैं. यह अलग बात है कि पत्रकारिता के प्रतिमानों में ऐसे लोगों की कोई जगह नहीं रह जाती है. ऐसे लोग पत्रकारिता के नाम पर एक गाली के रूप में याद रह जाते हैं. एक दिन पहले तक अखबार से लेकर चैनल के संपादक होते हैं और दूसरे ही दिन पार्टी के प्रवक्ता का पद उनके पास होता है. सवाल तो उठेंगे और ये लोग क्या जवाब देंगे. जवाब देंगे भी तो क्या स्वीकार हो सकता है. पता नहीं.
इस आंदोलन के दौरान अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम पर अन्ना हजारे को भूखा रखने का आरोप लगा. कुछ रिपोर्टों के हवाले से केजरीवाल के करीबियों ने यहां तक आरोप लगाए कि केजरीवाल चाह रहे थे कि अन्ना हजारे आंदोलन में ही निपट जाएं. खैर आरोपों का क्या. अरविंद केजरीवाल ने बाद में खुद भी अनशन रखा. यह अलग बात है कि इस बार केजरीवाल को न तो मीडिया ने ज्यादा तवज्जो दिया, ने ही लोगों ने. लोगों को इस आंदोलन का कोई नतीजा नहीं दिखा. अन्ना हजारे के दिल्ली में कई शिष्य उनके विचारों से अलग राजनीति में उतरने का मन बनाया. आंदोलन को निर्णायक मोड़ देने के लिए यह जरूरी था.
चुनाव हुए और दिल्ली में पार्टी ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई. यह पहली सबसे बड़ी गलती थी जो पार्टी ने की. सत्ता में काबिज होने की इतनी जल्दी थी कि पार्टी ने कांग्रेस से समर्थन ले लिया जिसे पानी पी पीकर गाली देते हुए सत्ता पर पहुंचे थे अरविंद केजरीवाल. हाथों में जिनके खिलाफ सबूतों का पुलिंदा लेकर लोगों को दिखाया करते थे, उसी के समर्थन से केजरीवाल ने सरकार बनाकर जनता के साथ पहला विश्वासघात किया था. सरकार गिरी और दिल्ली में कुछ महीनों बाद फिर चुनाव हुए. दिल्ली की जनता प्रचंड बहुमत दिया. अब दिल्ली सरकार पर कोई खतरा नहीं था, पूरी आजादी काम करने की, कुछ कर दिखाने. जनता के विश्वास को मजबूत करने की. लोकतंत्र की परिभाषा है, उसे धरातल पर उतारने की. जनमानस में एक जोश पैदा हुआ, उम्मीद जगी. लेकिन जैसे जैसे सरकार की उम्र होती गई वैसे वैसे दिल्ली सरकार, उसके मंत्री और विधायक एक एक कर उम्मीद से लेकर लोगों का विश्वास तोड़ते हुए मीडिया में दिखने लगे.
हर वो बात जो पार्टी को लोगों के बीच ले गई पार्टी धीरे-धीरे अपने नए तर्कों के साथ नकारने लगी. चाहे वह गाड़ी बंग्ला की बात हो, विधायकों के लाखों वेतन की बात हो. महिला सुरक्षा की बात हो, दिल्ली के सही विकास की बात हो. पूरी राजनीति कॉस्मेटिक से चलने लगी है. समस्याओं के हल के स्थान पर हर वह कदम, विचार सामने आने लगे जिन्हें पहले राजनीतिक दलों की कमजोरी बताया जाता था, वह पार्टी की कमजोरी बन गए. लालच दो, वोट लो. क्या यही बदलाव की राजनीति का मंत्र है. लोग क्या इसी के लिए भूखे रहे.
क्या लोग अपना पेट भरने के लिए ही वोट देते है. क्या आम आदमी का कोई आत्म सम्मान नहीं है. क्या उसके भीतर कोई गैरत नहीं है. लालच की राजनीति, रिश्वत की राजनीति तो पहले भी होती रही है. आप रिश्वत का दायरा और तरीका बदल रहे हैं. पहले विधायकों का वेतन कम होता था. संभव है वह भ्रष्टाचार में लिप्त हों, लेकिन आपने तो सरकारी खजाने रिश्वत देने का इंतजाम कर दिया था. एक लाख विधायक का बोझ दिल्ली की जनता पर था जिसे आप चार लाख से ऊपर करने पर तुले हैं. आप की राजनीति अलग है. रिश्वत जब सरकार से ही मिल जाएगी तो फिर बाहर से लेने की क्या जरूरत. आप दावे से कहते हैं कि जब विधायक का वेतन इतना होगा तो उसे भ्रष्टाचार की क्या जरूरत सही है. आपके इस कथन में साहब यह अपने आप में साफ होता है कि अगर पहले वाले भ्रष्टाचार कर रहे थे तो क्या गलत था. अब आप उसे ही नए तरीके से कर रहे हैं तो क्या गलत है. बदलाव की राजनीति है बस.
पार्टी में संयोजक का पद आपके पास, राज्य के मुख्यमंत्री आप. यानि पार्टी में एक भी ऐसा नेता नहीं बचा जो पार्टी को बचा पाता और पार्टी को संभाल पाता सो आप में केजरीवाल और सिसोदिया बचे. बाकी जो पार्टी को संभाल सकते थे जिन्होंने कोई मंत्री पद नहीं लिया उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया क्योंकि वे पार्टी में एक पद एक व्यक्ति के सिद्धांत की बात करने लगे थे. पार्टी नहीं होगी प्राइवेट लि. कंपनी हो गई. पार्टी का विचार नहीं हो गया एक व्यक्ति एक विचार हो गया. यह तो बस बदलाव की राजनीति है. इस बदलाव की राजनीति का भारत और भारतवासियों को इंतजार था.
पार्टी में लोकतंत्र के नाम पर क्या हो रहा है. पार्टी के बड़े नेता जिन्हें जनता जानती थी उन्हें पार्टी में गुटबाजी के आरोप में बाहर कर दिया गया. जिस लोकपाल के लिए आंदोलन हुआ, पार्टी बनी, राजनीति में चमकी, लोगों ने भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए जिससे उम्मीद लगाई. वह लोकपाल पार्टी में पहले पद से हटा दिया गया और फिर पार्टी से ही बाहर हो गया. अब पार्टी की दिल्ली में अरविंद केजरीवाल सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे हैं. पार्टी कह रही थी कि एमसीडी चुनाव से पहले यह सब किया जा रहा है ताकि पार्टी को बदनाम किया जाए. लेकिन यह नहीं कह रहे थे कि यह आरोप गलत है. इस प्रकार का अपव्यय नहीं हुआ. जनता के पैसे का अनादर नहीं हुआ, बरबादी नहीं की गई. यह बदलाव की राजनीति है जिसका दिल्ली वासियों को इंतजार था.
(राजीव मिश्रा एनडीटीवी खबर में न्यूज़ एडिटर हैं)
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This Article is From May 03, 2017
'अविश्वास' के संकट में फंसती आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल!
Rajeev Mishra
- ब्लॉग,
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Updated:मई 03, 2017 12:47 pm IST
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Published On मई 03, 2017 08:39 am IST
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Last Updated On मई 03, 2017 12:47 pm IST
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