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This Article is From Jan 15, 2018

प्राइम टाइम इंट्रो : न्यायपालिका के भीतर के सुलगते सवाल

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 15, 2018 22:20 pm IST
    • Published On जनवरी 15, 2018 21:21 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 15, 2018 22:20 pm IST
तीन तलाक के अलावा आप किसी भी मुद्दे को लेकर भरोसा नहीं कर सकते कि इस पर ठीक से या कुछ दिनों तक रिपोर्टिंग होगी या चर्चा होगी. मुद्दे उठते हैं और हवा हो जाते हैं. शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट के चार सीनियर जज बाहर आते हैं और प्रेस के सामने कहते हैं कि 'इस देश में बहुत से बुद्धिमान लोग हैं जो विवेकपूर्ण बातें करते रहते हैं. हम नहीं चाहते कि ये बुद्धिमान लोग 20 साल बाद ये कहें कि जस्टिस चेलामेश्वर, गोगोई, लोकुर और कुरियन जोसेफ ने अपनी आत्मा बेच दी और संविधान के हिसाब से सही कदम नहीं उठाया.'

चार जज कहें कि हम नहीं चाहते कि कोई ऐसे याद करे कि इन्होंने अपनी आत्मा बेच दी और हम बहस उनके उठाए सवालों पर नहीं कर रहे हैं. माननीय न्यायमूर्तियों के सवालों को किनारे लगाकर टीवी मीडिया और सोशल मीडिया इस पर चर्चा करने लगा कि इनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि क्या है, प्रेस कांफ्रेंस क्यों किया, राष्ट्रपति के पास क्यों नहीं गए, चीफ जस्टिस से बात क्यों नहीं की. यही नहीं, सोशल मीडिया पर उन लोगों के द्वारा अभद्र शब्दों का इस्तेमाल किया गया जिन्हें देश के संवैधानिक पदों पर बैठे लोग फॉलो करते हैं. दूसरी तरफ नाइंसाफी चीफ जस्टिस के साथ भी हुई. उन्हें राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद के फैसले से जोड़ दिया गया और मान लिया गया कि क्या फैसला देने वाले हैं, उनके फैसलों के कसीदे पढ़े जाने लगे और दूसरी तरफ उन पर लगे आरोपों के. यह बेहद ही ख़तरनाक माहौल था, जस्टिस ने जो कहा उस पर बात नहीं, जो नहीं कहा उस पर हंगामा. जबकि शुक्रवार को जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा कि 'हमारे सारे प्रयास फेल हो गए. हम सभी ने समझाने का प्रयास किया कि जब तक इस संस्थान को बचाया नहीं जाएगा, भारत में लोकतंत्र को नहीं बचाया जा सकता है.'

किसी ने कहा कि सीपीआई नेता डी राजा क्यों मिलने गए, तो किसी ने उसी ज़ोर से नहीं पूछा कि प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव चीफ जस्टिस से क्यों मिलने गए. जबकि यह दोनों ही बातें एक हद से ज्यादा इतनी महत्वपूर्ण नहीं थीं कि बेंच के गठन को लेकर किए गए भेदभाव के सवाल को किनारे लगा दिया जाए. दो महीना पहले चीफ जस्टिस को लिखे पत्र पर भी आधी अधूरी चर्चा हुई. यह आप तय करें कि क्या जानबूझ कर हो रहा था और क्या जानबूझ कर नहीं हो रहा था. आख़िर हम उस पर बात क्यों नहीं कर सकते कि जजों ने क्या कहा और उसे ठीक करने के लिए क्या किया जा सकता है.

बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने इस मामले में पहल की और 16 जजों से शनिवार से लेकर रविवार रात तक मुलाकात की. बार काउंसिल ऑफ इंडिया का कहना है कि राजनीतिक दल इससे दूर रहें और मीडिया ने भी कुछ अटकलें फैलाईं जो उचित नहीं थी. सोमवार सुबह अटार्नी जनरल ने बताया कि चाय मीटिंग में सभी जज मौजूद थे और मामला सुलझ गया. अच्छी बात है. लेकिन बात केस की सुनवाई के लिए बेंच के गठन और मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर को लेकर हुई थी, इस पर क्या बात हुई, कोई ठोस जानकारी नहीं है. उम्मीद की जा सकती है कि किसी सही वक्त पर सुप्रीम कोर्ट देश को बताएगा कि किस तरह से मामला सुलझा लिया गया, क्या प्रक्रियाएं बनी हैं या बनने वाली हैं जिससे लोगों को संस्थान में भरोसा और बेहतर हो.

अख़बारों और वेबसाइट पर इस प्रकरण को लेकर कई लेख लिखे गए हैं जिन्हें आप ख़ाली वक्त में पढ़ सकते हैं. इससे आप न्यायपालिका के भीतर की प्रक्रियाओं, नैतिकता, कानूनी प्रावधान इन सबके बारे में जान सकेंगे. barandbench.com पर हरप्रीत ज्ञानी का लेख पसंद आया. अगर आप पढ़ सकते हैं तो इंटरनेट पर खोज कर ज़रूर पढ़िए. हरप्रीत सिंह ज्ञानी ने 1991 के वीरास्वामी केस में एक फैसले का हवाला देते हुए कहा कि कई बार भीतर के अंधेरे पर रोशनी नहीं पड़ने दी जाती है और डरपोक मीडिया भी किनारा कर लेता है.

इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि चीफ जस्टिस या किसी भी जज के ख़िलाफ़ जांच से पहले पुलिस अफसर को चीफ जस्टिस से इजाज़त लेनी होगी. जबकि इसका प्रावधान विधायिका के बनाए किसी कानून में नहीं है.

हरप्रीत ने अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री कलिखो पुल के सुसाइड नोट का ज़िक्र किया है, जिसमें ख़ुदकुशी से पहले एक मुख्यमंत्री ने वकील, राजनेता और जजों पर रिश्वत मांगने के आरोप लगाए हैं. क्यों इस मामले पर बहादुर चैनल चुप हो गए. एक मुख्यमंत्री आत्महत्या करता है, सुसाइड नोट मिलता है और वो चर्चा के लायक ही नहीं है. इंडियन एक्सप्रेस में गौतम भाटिया का लेख भी आपको पढ़ना.चाहिए। गौतम ने बताया है कि अमरीका के सुप्रीम कोर्ट में सभी 9 जज केस की सुनवाई के लिए साथ बैठते हैं. इंग्लैंड में 12 जज बैठते हैं. अक्सर 5 या इससे अधिक जजों का पैनल तो होता ही है. भारत के सुप्रीम कोर्ट में 26 जज हैं, यहां अधिकतर 2 जजों की बेंच ही सुनवाई करती है. हम पत्रकारों और आम लोगों के लिए भी यह समझना होगा कि जिस तादाद में भारत में केस हैं, क्या यह संभव है कि सभी 9 जज केस की सुनवाई के लिए साथ बैठें. इस बहस के बहाने अगर हम अदालत के भीतर की प्रशासनिक प्रक्रिया को समझें तो यह आगे की हमारी यात्रा में बहुत मदद करेगा. अब आते हैं सीबीआई के जज लोया के मामले में सुनवाई को लेकर. इस मामले में भी जमकर विवाद हुआ है. रविवार को जज बी एच लोया के बेटे अनुज लोया और उनके वकील ने प्रेस कांफ्रेंस किया. अनुज ने कहा कि उन्हें अपने पिता की मौत पर कोई शक नहीं है. न जांच चाहिए न राजनीति होनी चाहिए. एक विवाद उठा कि अनुज ने अपने वीडियो में इस प्रेस कांफ्रेंस के लिए अमित शाह से बात की थी. कई जगह व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी में चल रहा है. यह पूरी तरह से झूठ है. अनुज लोया के साथ बैठे एक शख्स ने कहा कि अमित सर से मिलकर हमने अपनी बात कही. उन्होंने पास बैठे वकील अमित नायक को अमित सर कहा था न कि अमित शाह को. झूठे तथ्यों से सावधान रहिए चाहे वो किसी भी पक्ष के हों. 20 नवंबर को जज लोया के मामले कैरवान पत्रिका में पहली बार ख़बर छपी थी तब जज लोया की डाक्टर बहन का वीडियो बयान भी जारी किया था. आप खुद याद कीजिए कि किस चैनल ने उस बयान को दिखाया था. किस किस ने उस स्टोरी को फॉलो किया और किसने चुप्पी मार ली. क्या तब वे डर गए थे जो अब बहादुर बन रहे हैं. अच्छा कर रहे हैं कि अनुज लोया के बयान को प्रमुखता से दिखा रहे हैं लेकिन क्या वे इस स्टोरी के साथ छपे संदर्भ, दस्तावेज़ों की भी बात कर रहे हैं, वे नहीं करेंगे क्योंकि बहुतों को अब मीडिया में डर लगने लगा है.

20 नंवबर से लकर 14 जनवरी के बीच कैरवान पत्रिका ने जज लोया की मौत से संबंधित दस लेख छापे. उन खबरों में सिर्फ परिवार वालों का बयान नहीं था बल्कि कई सारे सवाल और दस्तावेज़ भी थे. उन सब पर ज़्यादातर चैनल चुप ही रहे. किसी चैनल पर अनुज की डॉक्टर बुआ का सवाल नहीं चला, मगर अनुज का बयान चल रहा है. अब इसके ज़रिए स्टोरी को खारिज किया जा रहा है. कैरवान पत्रिका के संपादक हरतोष सिंह बल अभी भी अपनी स्टोरी पर कायम हैं और जांच की मांग कर रहे हैं.

कैरवान ने अपनी स्टोरी में बताया था और सबूत दिखाया था कि 2015 में अनुज लोया ने अपने पिता की मौत की जांच की मांग की थी और जान को ख़तरा बताया था. अब क्यों कह रहे हैं कि कोई शक नहीं, वही बेहतर बता सकते हैं. कैरवान की स्टोरी आने के बाद 29 नवंबर को टाइम्स ऑफ इंडिया में खबर छपती है कि अनुज लोया ने बॉम्‍बे हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस से मिलकर कहा कि परिवार को कोई शिकायत नहीं है. तब उस दिन तमाम न्यूज़ चैनलों ने इस खबर के प्रति या अनुज लोया के बयान के प्रति उत्साह क्यों नहीं दिखाया. क्यों चुप रहे गए, क्या कहीं चुनाव चल रहा था इसलिए. भारत का लोकतंत्र खतरे में हो या न हो, मीडिया ज़रूर ख़तरे में है. किसके इशारे पर कब कौन बोल रहा है, कब चुप हो जा रहा है, अब खबर से ज्यादा इसका पता रखिए. कांग्रेस पार्टी ने जज लोया की मौत की जांच की मांग की है.

शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने जज लोया के मामले को गंभीर बताया था. 16 जनवरी को महाराष्ट्र सरकार को इस मामले में जवाब देना है. 8 जनवरी को बॉम्‍बे लॉयर संघ ने हाईकोर्ट में याचिका लगाई है कि मामले की जांच की जाए. तो सुप्रीम कोर्ट में क्या सुलझ गया. जो दो महीने की चिट्ठी से नहीं सुलझा वो चाय पर कैसे सुलझ गया. देश को समस्या का पता चला तो क्या देश को समाधान का पता नहीं चलना चाहिए.

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